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Channel: धर्म संसार | भारत का पहला धार्मिक ब्लॉग
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ऋषभ अवतार द्वारा भगवान नरसिंह का मान मर्दन

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भगवान विष्णु के वराह अवतार द्वारा अपने भाई हिरण्याक्ष के वध के पश्चात उसके छोटे भाई हिरण्यकश्यप के अत्याचार हद से अधिक बढ़ गए. सारी सृष्टि त्राहि त्राहि करने लगी. जहाँ एक ओर हिरण्यकश्यप पूरे संसार से धर्म का नाश करने पर तुला हुआ था वहीँ उसका अपना पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु की भक्ति में लीन था. हिरण्यकश्यप जब किसी भी तरह प्रह्लाद को नहीं समझा सका तो उसने उसे कई बार मारने का प्रयत्त्न किया किन्तु प्रह्लाद हर बार भगवान विष्णु की कृपा से बच गया. यहाँ तक कि इस प्रयास में उसकी बहन होलिका भी मृत्यु को प्राप्त हो गयी. अंत में जब वो स्वयं प्रह्लाद को मारने को तत्पर हुआ तो अपने भक्त की रक्षा के लिए भगवान विष्णु स्वयं नरसिंह अवतार में प्रकट हुए.

भगवान नरसिंह में वो सभी लक्षण थे जो हिरण्यकश्यप के मृत्यु के वरदान को संतुष्ट करते थे. भगवान नरसिंह के द्वारा हिरण्यकश्यप का नाश हुआ किन्तु एक और समस्या खड़ी हो गयी. भगवान नरसिंह इतने क्रोध में थे कि लगता था जैसे वो प्रत्येक प्राणी का संहार कर देंगे. यहाँ तक कि स्वयं प्रह्लाद भी उनके क्रोध को शांत करने में विफल रहा. सभी देवता भयभीत हो भगवान ब्रम्हा की शरण में गए. परमपिता ब्रम्हा उन्हें लेकर भगवान विष्णु के पास गए और उनसे प्रार्थना की कि वे अपने अवतार के क्रोध शांत कर लें किन्तु भगवान विष्णु ने ऐसा करने में अपनी असमर्थता जतलाई. भगवान विष्णु ने सबको भगवान शंकर के पास चलने की सलाह दी. उन्होंने कहा चूँकि भगवान शंकर उनके आराध्य हैं इसलिए केवल वही नरसिंह के क्रोध को शांत कर सकते हैं. और कोई उपाय न देख कर सभी भगवान शंकर के पास पहुंचे.

देवताओं के साथ स्वयं परमपिता ब्रम्हा और भगवान विष्णु के आग्रह पर भगवान शिव नरसिंह का क्रोध शांत करने उनके समक्ष पहुंचे किन्तु उस समय तक भगवान नरसिंह का क्रोध सारी सीमाओं को पार कर गया था. साक्षात भगवान शंकर को सामने देख कर भी उनका क्रोध शांत नहीं हुआ बल्कि वे स्वयं भगवान शंकर पर आक्रमण करने दौड़े. उसी समय भगवान शंकर ने एक विकराल ऋषभ का रूप धारण किया और भगवान नरसिंह को अपनी पूंछ में लपेट कर खींच कर पाताल में ले गए. काफी देर तक भगवान शंकर ने भगवान नरसिंह को वैसे हीं अपने पूंछ में जकड कर रखा. अपनी सारी शक्तियों और प्रयासों के बाद भी भगवान नरसिंह उनकी पकड़ से छूटने में सफल नहीं हो पाए. अंत में शक्तिहीन होकर उन्होंने ऋषभ रूप में भगवान शंकर को पहचाना और तब उनका क्रोध शांत हुआ. इसे देख कर भगवान ब्रम्हा और भगवान विष्णु के आग्रह पर ऋषभ रुपी भगवान शंकर ने उन्हें मुक्त कर दिया. इस प्रकार देवताओं और प्रह्लाद के साथ साथ सभी सत्पात्रों को दो महान अवतारों के दर्शन हुए.

श्रीकृष्ण के पुत्रों के नाम

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श्रीकृष्ण की सोलह हजार एक सौ आठ पत्नियाँ थीं। प्रत्येक पत्नी से उन्होंने  दस दस पुत्र प्राप्त किये थे। इस प्रकार उनके समस्त पुत्रों की गिनती एक लाख इकसठ हजार अस्सी थी। उनके सभी पुत्रों का नाम बताना तो संभव नहीं है लेकिन उनकी आठ मुख्य रानियों के पुत्रों के नाम नीचे दिए हैं।
  1. रुक्मिणी:प्रधुम्न, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, चारुदेह, सुचारू, चरुगुप्त, भद्रचारू, चारुचंद्र, विचारू और चारू।
  2. सत्यभामा:भानु, सुभानु, स्वरभानु, प्रभानु, भानुमान, चंद्रभानु, वृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु।
  3. जाम्बवंती:साम्ब, सुमित्र, पुरुजित, शतजित, सहस्त्रजित, विजय, चित्रकेतु, वसुमान, द्रविड़ और क्रतु।
  4. सत्या:वीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगु, वेगवान, वृष, आम, शंकु, वसु और कुन्ति।
  5. कालिंदी:श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शांति, दर्श, पूर्णमास और सोमक।
  6. लक्ष्मणा:प्रघोष, गात्रवान, सिंह, बल, प्रबल, ऊर्ध्वग, महाशक्ति, सह, ओज और अपराजित।
  7. मित्रविन्दा:वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, अन्नाद, महांस, पावन, वह्नि और क्षुधि।
  8. भद्रा:संग्रामजित, वृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक।

पंच सती

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हिन्दू धर्म में पंच सतियों का बड़ा महत्त्व है। ये पांचो सम्पूर्ण नारी जाति के सम्मान की साक्षी मानी जाती हैं। विशेष बात ये है कि इन पांचो स्त्रियों को अपने जीवन में अत्यंत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और साथ ही साथ समाज ने इनके पतिव्रत धर्म पर सवाल भी उठाए लेकिन इन सभी के पश्चात् भी वे हमेशा पवित्र और पतिव्रत धर्म की प्रतीक मानी गई। कहा जाता है कि नित्य सुबह इनके बारे में चिंतन करने से सारे पाप धुल जाते हैं। आइये इनके बारे में कुछ जानें।
  • अहल्या:ये महर्षि गौतम की पत्नी थी। देवराज इन्द्र इनकी सुन्दरता पर रीझ गए और उन्होंने अहल्या को प्राप्त करने की जिद ठान ली पर मन ही मन वे अहल्या के पतिव्रत से डरते भी थे। एक बार रात्रि में हीं उन्होंने गौतम ऋषि के आश्रम पर मुर्गे के स्वर में बांग देना शुरू कर दिया। गौतम ऋषि ने समझा कि सवेरा हो गया है और इसी भ्रम में वे स्नान करने निकल पड़े। अहल्या को अकेला पाकर इन्द्र ने गौतम ऋषि के रूप में आकर अहल्या से प्रणय याचना की और उनका शील भंग किया। गौतम ऋषि जब वापस आये तो अहल्या का मुख देख कर वे सब समझ गए। उन्होंने इन्द्र को नपुंसक होने का और अहल्या को शिला में परिणत होने का श्राप दे दिया। युगों बाद श्रीराम ने अपने चरणों के स्पर्श से अहल्या को श्राप मुक्त किया।
  • मन्दोदरी:मंदोदरी मय दानव और हेमा अप्सरा की पुत्री, राक्षसराज रावण की पत्नी और इन्द्रजीत मेघनाद की माता थी। पुराणों के अनुसार रावण के विश्व विजय के अभियान के समय मय दानव ने रावण को अपनी पुत्री दे दी थी। जब रावण ने सीता का हरण कर लिया तो मंदोदरी ने बार बार रावण को समझाया कि वो सीता को सम्मान सहित लौटा दें। रावण की मृत्यु के पश्चात् मंदोदरी के करुण रुदन का जिक्र आता है। श्रीराम के सलाह पर रावण के छोटे भाई विभीषण ने मंदोदरी से विवाह कर लिया था।
  • तारा:तारा समुद्र मंथन के समय निकली अप्सराओं में से एक थी। ये वानरराज बालि की पत्नी और अंगद की माता  थी। रामायण में हालाँकि इनका जिक्र बहुत कम आया है लेकिन ये अपनी बुधिमत्ता के लिए प्रसिद्ध थीं। पहली बार बालि से हारने के बाद जब सुग्रीव दुबारा लड़ने के लिए आया तो इन्होने बालि से कहा कि अवश्य हीं इसमें कोई भेद है लेकिन क्रोध में बालि ने इनकी बात नहीं सुनी और मारे गए। बालि के मृत्यु के पश्चात् इनके करुण रुदन का वर्णन है। श्रीराम की सलाह से बालि के छोटे भाई सुग्रीव से इनका विवाह होता है। जब लक्षमण क्रोध पूर्वक सुग्रीव का वध करने कृष्किन्धा आये तो तारा ने हीं अपनी चतुराई और मधुर व्यहवार से उनका क्रोध शांत किया।
  • कुन्ती:ये श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव की बहन थी। इनका असली नाम पृथा था लेकिन महाराज कुन्तिभोज ने इन्हें गोद लिया था जिसके कारण इनका नाम कुंती पड़ा। इनका विवाह भीष्म के भतीजे और ध्रितराष्ट्र के छोटे भाई पांडू से हुआ। विवाह से पूर्व भूलवश इन्होने महर्षि दुर्वासा के वरदान का प्रयोग सूर्यदेव पर कर दिया जिनसे कर्ण का जन्म हुआ लेकिन लोकलाज के डर से इन्होने कर्ण को नदी में बहा दिया। पांडू के संतानोत्पत्ति में असमर्थ होने पर उन्होंने उसी मंत्र का प्रयोग कर धर्मराज से युधिष्ठिर, वायुदेव से भीम और इन्द्र से अर्जुन को जन्म दिया। इन्होने पांडू की दूसरी पत्नी माद्री को भी इस मंत्र की दीक्षा दी जिससे उन्होंने अश्वनीकुमारों से नकुल और सहदेव को जन्म दिया।
  • द्रौपदी:ये पांचाल के राजा महाराज द्रुपद की पुत्री, धृष्टधुम्न की बहन और पांचो पांडवो की पत्नी थी। श्रीकृष्ण ने इन्हें अपनी मुहबोली बहन माना। ये पांडवों के दुःख और संघर्ष में बराबर की हिस्सेदार थी। पांच व्यक्तियों की पत्नी होकर भी इन्होने पतिव्रत धर्म का एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। कौरवों ने इनका चीरहरण करने का प्रयास किया और ये इनके पतिव्रत धर्म का हीं प्रभाव था कि स्वयं श्रीकृष्ण को इनकी रक्षा के लिए आना पड़ा। श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा को इन्होने हीं पतिव्रत धर्म की शिक्षा दी थी। यही नहीं, जब पांडवों ने अपने शरीर को त्यागने का निर्णय लिया तो उनकी अंतिम यात्रा में ये भी उनके साथ थीं। 

दक्ष प्रजापति की पुत्रियों और उनके पतियों के नाम

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Daksha's Daughters
पुराणों के अनुसार दक्ष प्रजापति परमपिता ब्रम्हा के पुत्र थे जो उनके दाहिने पैर के अंगूठे से उत्पन्न हुए थे. प्रजापति दक्ष की दो पत्नियाँ थी - प्रसूति और वीरणी. प्रसूति से दक्ष की चौबीस कन्याएँ थीं और वीरणी से साठ कन्याएँ. उन सभी का वर्णन नीचे दिया है और साथ हीं साथ उनके पतियों का नाम भी दिया गया है:

प्रसूति से दक्ष की चौबीस पुत्रियाँ और उनके पति
  1. श्रद्धा (धर्म)
  2. लक्ष्मी (धर्म)
  3. धृति (धर्म)  
  4. तुष्टि (धर्म)  
  5. पुष्टि (धर्म)  
  6. मेधा (धर्म)
  7. क्रिया (धर्म)  
  8. बुद्धि (धर्म)  
  9. लज्जा (धर्म)  
  10. वपु (धर्म)  
  11. शांति (धर्म)  
  12. सिद्धि (धर्म)  
  13. कीर्ति (धर्म)
  14. ख्याति (महर्षि भृगु)
  15. सती (रूद्र)
  16. सम्भूति (महर्षि मरीचि)
  17. स्मृति (महर्षि अंगीरस)
  18. प्रीति (महर्षि पुलत्स्य)
  19. क्षमा (महर्षि पुलह)
  20. सन्नति (कृतु)
  21. अनुसूया (महर्षि अत्रि)
  22. उर्जा (महर्षि वशिष्ठ)
  23. स्वाहा (अग्नि)
  24. स्वधा (पितृस)
वीरणी से दक्ष की साठ पुत्रियाँ और उनके पति 
  1. मरुवती (धर्म)
  2. वसु (धर्म)
  3. जामी (धर्म)  
  4. लंबा (धर्म)
  5. भानु (धर्म)
  6. अरुंधती (धर्म)
  7. संकल्प (धर्म)
  8. महूर्त (धर्म)
  9. संध्या (धर्म)
  10. विश्वा (धर्म)
  11. अदिति (महर्षि कश्यप)
  12. दिति (महर्षि कश्यप)
  13. दनु (महर्षि कश्यप)
  14. काष्ठा (महर्षि कश्यप)
  15. अरिष्टा (महर्षि कश्यप)
  16. सुरसा (महर्षि कश्यप)
  17. इला (महर्षि कश्यप)
  18. मुनि (महर्षि कश्यप)
  19. क्रोधवषा (महर्षि कश्यप)
  20. तामरा (महर्षि कश्यप)
  21. सुरभि (महर्षि कश्यप)
  22. सरमा (महर्षि कश्यप)
  23. तिमि (महर्षि कश्यप)
  24. कृतिका (चंद्रमा)
  25. रोहिणी (चंद्रमा)
  26. मृगशिरा (चंद्रमा)
  27. आद्रा (चंद्रमा)
  28. पुनर्वसु (चंद्रमा)
  29. सुन्रिता (चंद्रमा)
  30. पुष्य (चंद्रमा)
  31. अश्लेषा (चंद्रमा)
  32. मेघा (चंद्रमा)
  33. स्वाति (चंद्रमा)
  34. चित्रा (चंद्रमा)
  35. फाल्गुनी (चंद्रमा)
  36. हस्ता (चंद्रमा)  
  37. राधा (चंद्रमा)
  38. विशाखा (चंद्रमा)
  39. अनुराधा (चंद्रमा)
  40. ज्येष्ठा (चंद्रमा)
  41. मुला (चंद्रमा)
  42. अषाढ़ (चंद्रमा)
  43. अभिजीत (चंद्रमा)
  44. श्रावण (चंद्रमा)
  45. सर्विष्ठ (चंद्रमा)
  46. सताभिषक (चंद्रमा)
  47. प्रोष्ठपदस (चंद्रमा)
  48. रेवती (चंद्रमा)
  49. अश्वयुज (चंद्रमा)
  50. भरणी (चंद्रमा)
  51. रति (कामदेव) 
  52. स्वरूपा (भूत)
  53. भूता (भूत)
  54. स्वधा (अंगिरा प्रजापति)
  55. अर्चि (कृशाश्वा)
  56. दिशाना (कृशाश्वा)
  57. विनीता (तार्क्ष्य कश्यप)
  58. कद्रू (तार्क्ष्य कश्यप)
  59. पतंगी (तार्क्ष्य कश्यप)
  60. यामिनी (तार्क्ष्य कश्यप)

प्राणियों की वंशबेल

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आभार वेबदुनिया

घटोत्कच

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घटोत्कच भीम और राक्षस कन्या हिडिम्बा का पुत्र था. पांडवों के वंश का वो सबसे बड़ा पुत्र था और महाभारत के युध्द में उसने अहम भूमिका निभाई. हालाँकि कभी भी उसकी गिनती चंद्रवंशियों में नहीं की गयी (इसका कारण हिडिम्बा का राक्षसी कुल था) लेकिन उसे कभी भी अन्य पुत्रों से कम महत्वपूर्ण नहीं समझा गया. महाभारत के युद्ध में कर्ण से अर्जुन के प्राणों की रक्षा करने हेतु घटोत्कच ने अपने प्राणों की बलि दे दी.

लाक्षाग्रह की घटना के बाद पांडव वनों में भटक रहे थे. चलते चलते कुंती का धैर्य जाता रहा और सब ने विश्राम की इच्छा जाहिर की. कुंती सहित सभी भाई गहरी नींद सो गए और भीम वहां पहरे पर बैठ गए. वहीँ पास में हिडिम्ब नमक राक्षस अपनी बहन हिडिम्बा के साथ रहता था. जब पांडव वहां विश्राम कर रहे थे तो हिडिम्ब को मानवों की गंध मिल गयी और उसने हिडिम्बा को इसका पता लगाने भेजा. हिडिम्बा हालाँकि राक्षसी थी लेकिन अहिंसा प्रिय थी. केवल अपने भाई के भय से वो उसका साथ देती थी. जब हिडिम्बा मनुष्यों को खोजती वहां तक पहुंची तो वहां पर भीम के रूप और बलिष्ठ शरीर को देख कर वो उसपर आसक्त हो गयी. वो एक सुन्दर स्त्री का रूप धर कर भीम के पास गयी और उसे कहा कि वो जल्द से जल्द अपने परिवार के साथ वहां से चला जाए नहीं तो वे सभी उसके भाई के ग्रास बन जाएँगे. भीम कहा कि उसका परिवार दिन भर की थकान के बाद विश्राम कर रहा है इसीलिए वो उन्हें उठा नहीं सकते. भीम ने उसे सांत्वना देते हुए कहा कि उसे किसी से भी घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है.

उधर जब हिडिम्बा वापस लौट कर नहीं आयी तो हिडिम्ब स्वयं उसे ढूंढ़ता हुआ वहां पर पहुच गया. क्रोध में वो पहले हिडिम्बा को हीं मारना चाहता था पर भीम ने उसे ऐसा करने नहीं दिया. कोलाहल से उनका परिवार उठ ना जाए इसीलिए भीम उसे घसीटता हुआ वहां से दूर ले गया पर उन दोनो में ऐसा भयानक युध्द होने लगा कि आसपास के वृक्ष टूट कर गिर पड़े और सभी लोग जाग गए. पहले तो उन्हें कुछ समझ में हीं नहीं आया लेकिन हिडिम्बा ने उन्हें सारी बातें बता दी. भीम को लेकर सभी निश्चिन्त थे क्योंकि विश्व की कोई भी शक्ति उसे परास्त नहीं कर सकती थी. ऐसा हीं हुआ और भीम ने जल्द ही हिडिम्ब का अंत कर दिया.

उसकी मृत्यु के बाद हिडिम्बा ने कुंती से कहा कि उसकी भाई की मृत्यु के बाद वो बिलकुल असहाय हो गयी है. भीम के प्रति अपनी आसक्ति के बारे में भी उसने सब को बताया और उससे विवाह करने की अपनी इच्छा व्यक्त की. अब एक अजीब स्थिति पैदा हो गयी. पहली ये कि विपत्ति के इस समय में पांडवों का बल भीम हीं था और दूसरी ये कि अपने बड़े भाई युधिष्ठिर के अविवाहित रहते भीम विवाह नहीं कर सकता था. कुंती ने ये समस्या युधिष्ठिर को बताई तो उसने कहा कि ये तो सत्य है कि उनके अविवाहित रहते भीम रीतिगत तरीके से विवाह नहीं कर सकता किन्तु किसी की रक्षा हेतु धर्म उसे गन्धर्व विवाह करने की छूट देता है. उन्होंने दो शर्तों पर भीम का विवाह हिडिम्बा से करना स्वीकार किया कि एक तो हिडिम्बा प्रत्येक रात्रि उसे उसके परिवार के पास वापस छोड़ आएगी और दूसरे भीम उसके पास केवल एक संतान की उत्पत्ति तक हीं रहेगा. इन शर्तों को हिडिम्बा ने सहर्ष स्वीकार कर लिया.

कुछ समय के बाद हिडिम्बा ने घटोत्कच को जन्म दिया जो पैदा होते हीं वयस्क हो गया. उसके सर पर एक भी बाल नहीं था इसीलिए भीम ने उसका नाम घटोत्कच रखा जिसका अर्थ होता है घड़े के सामान चिकने सर वाला. शर्त के अनुसार भीम अपने परिवार के पास वापस चला गया. जब घटोत्कच को पांडवों के साथ हुए अन्याय का पता चला तो वो अत्यंत क्रोधित हो उठा. वह उसी समय कौरवों पर आक्रमण करना चाहता था किन्तु युधिष्ठिर ने उसे समझा बुझा कर शांत किया. घटोत्कच ने पांडवों को वचन दिया कि जब भी संकट के समय वे उसे याद करेंगे, वो उपस्थित हो जाएगा.

महाभारत के युध्द में घटोत्कच ने कौरव सेना का बड़ा विनाश किया. कौरव की तरफ से अलम्बुष राक्षस ने उसे रोकने की बहुत कोशिश की परन्तु अंत में वो घटोत्कच के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुआ. भीष्म के सेनापति रहते तो भीष्म ने घटोत्कच को जैसे तैसे रोके रखा किन्तु भीष्म के धराशायी होने के बाद तो उसने कौरव सेना की बड़ी बुरी गत की. महाभारत में कहा गया है कि भीष्म के पतन के बाद घटोत्कच ने कौरवों की सेना में ऐसा उत्पात मचाया कि दुर्योधन ने बांकी सभी को छोड़ कर केवल उसे मारने का आदेश दिया. घटोत्कच ने ऐसा हाहाकार मचाया कि अंत में दुर्योधन ने कर्ण से उसे मारने का अनुरोध किया. कर्ण ने दुर्योधन को वचन दिया कि वो आज घटोत्कच को अवश्य मार गिरायेगा लेकिन कर्ण को ये जल्द हीं पता चल गया कि घटोत्कच को मारना उसके लिए भी सहज नहीं है. कर्ण ने साधारण बाणों से घटोत्कच को मारने का बड़ा प्रयास किया पर सफल नहीं हो पाया. अंत में दुर्योधन के बार बार उपालंभ देने पर और पाने वचन की रक्षा के लिए उसने घटोत्कच पर इन्द्र के द्वारा दी गयी अमोघ शक्ति का प्रयोग किया जिससे आखिरकार घटोत्कच की मृत्यु हो गयी.

ऐसा कहा जाता है कि अर्जुन के प्राणों की रक्षा के लिए स्वयं श्रीकृष्ण ने घटोत्कच को कौरव सेना में हाहाकार मचाने के लिए उत्साहित किया. उन्हें पता था कि जबतक कर्ण के पास इंद्र की दी गयी शक्ति थी, अर्जुन उसे कभी परास्त नहीं कर सकता था और कर्ण अर्जुन के प्राण कभी भी ले सकता था. जब कर्ण ने घटोत्कच का वध किया तो कौरव सेना में सभी हर्षित थे केवल कर्ण को छोड़ कर क्योंकि उसे पता था कि अब अर्जुन की निश्चित मृत्यु उसके हाथ से निकल चुकी है, वहीँ पांडव सेना में सभी दुखी थे केवल श्रीकृष्ण को छोड़ कर क्योंकि उन्हें पता था कि घटोत्कच ने अर्जुन को निश्चित मृत्यु से बचा लिया है.

जब महादेव ने श्रीराम की परीक्षा ली

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श्रीराम का वनवास ख़त्म हो चुका था. एक बार श्रीराम ब्राम्हणों को भोजन करा रहे थे तभी भगवान शिव ब्राम्हण वेश में वहाँ आये. श्रीराम ने लक्ष्मण और हनुमान सहित उनका स्वागत किया और उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया. भगवान शिव भोजन करने बैठे किन्तु उनकी क्षुधा को कौन बुझा सकता था? बात हीं बात में श्रीराम का सारा भण्डार खाली हो गया. लक्ष्मण और हनुमान ये देख कर चिंतित हो गए और आश्चर्य से भर गए. एक ब्राम्हण उनके द्वार से भूखे पेट लौट जाये ये तो बड़े अपमान की बात थी. उन्होंने श्रीराम से और भोजन बनवाने की आज्ञा मांगी. श्रीराम तो सब कुछ जानते हीं थे, उन्होंने मुस्कुराते हुए लक्ष्मण से देवी सीता को बुला लाने के लिए कहा.

सीता जी वहाँ आयी और ब्राम्हण वेश में बैठे भगवान शिव का अभिवादन किया. श्रीराम ने मुस्कुराते हुए सीता जी को सारी बातें बताई और उन्हें इस परिस्थिति का समाधान करने को कहा. सीता जी अब स्वयं महादेव को भोजन कराने को उद्धत हुई. उनके हाथ का पहला ग्रास खाते हीं भगवान शिव संतुष्ट हो गए. 

भोजन के उपरान्त भगवान शिव ने श्रीराम से कहा कि आकण्ठ भोजन करने के कारण वे स्वयं उठने में असमर्थ हैं इसी कारण कोई उन्हें उठा कर शैय्या पर सुला दे. श्रीराम की आज्ञा से हनुमान महादेव को उठाने लगे मगर आश्चर्य, एक विशाल पर्वत को बात हीं बात में उखाड़ देने वाले हनुमान, जिनके बल का कोई पार हीं नहीं था, महादेव को हिला तक नहीं सके. भला रुद्रावतार रूद्र की शक्ति से कैसे पार पा सकते थे? हनुमान लज्जित हो पीछे हट गए. फिर श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण ये कार्य करने को आये. अब तक वो ये समझ चुके थे कि ये कोई साधारण ब्राम्हण नहीं हैं. अनंत की शक्ति भी अनंत हीं थी. परमपिता ब्रम्हा, नारायण और महादेव का स्मरण करते हुए लक्ष्मण ने उन्हें उठा कर शैय्या पर लिटा दिया.

लेटने के बाद भगवान शिव ने श्रीराम से सेवा करने को कहा. स्वयं श्रीराम लक्ष्मण और हनुमान के साथ भगवान शिव की पाद सेवा करने लगे. देवी सीता ने महादेव को पीने के लिए जल दिया. महादेव ने आधा जल पिया और बांकी जल का कुल्ला देवी सीता पर कर दिया. देवी सीता ने हाथ जोड़ कर कहा कि हे ब्राम्हणदेव, आपने अपने जूठन से मुझे पवित्र कर दिया. ऐसा सौभाग्य तो बिरलों को प्राप्त होता है. ये कहते हुए देवी सीता उनके चरण स्पर्श करने बढ़ी, तभी महादेव उपने असली स्वरुप में आ गए. महाकाल के दर्शन होते हीं सभी ने करबद्ध हो उन्हें नमन किया.

भगवान शिव ने श्रीराम को अपने ह्रदय से लगते हुए कहा कि आप सभी मेरी परीक्षा में उत्तीर्ण हुए. ऐसे कई अवसर थे जब किसी भी मनुष्य को क्रोध आ सकता था किन्तु आपने अपना संयम नहीं खोया. इसी कारण संसार आपको मर्यादा पुरुषोत्तम कहता है. उन्होंने श्रीराम को वरदान मांगने को कहा किन्तु श्रीराम ने हाथ जोड़ कर कहा कि आपके आशीर्वाद से मेरे पास सब कुछ है. अगर आप कुछ देना हीं चाहते हैं तो अपने चरणों में सदा की भक्ति का आशीर्वाद दीजिये. महादेव ने मुस्कुराते हुए कहा कि आप और मैं कोई अलग नहीं हैं किन्तु फिर भी देवी सीता ने मुझे भोजन करवाया है इसीलिए उन्हें कोई वरदान तो माँगना हीं होगा. देवी सीता ने कहा कि हे भगवान, अगर आप हमसे प्रसन्न हैं तो कुछ काल तक आप हमारे राजसभा में कथावाचक बनकर रहें. उसके बाद कुछ काल तक भगवान शिव श्रीराम की सभा में कथा सुना कर सबको कृतार्थ करते रहे.

कर्त्यवीर्य अर्जुन द्धारा रावण को बंदी बनाना

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रावण का दिग्विजय अभियान चल रहा था। कई राज्यों को जीतते हुए रावण महिष्मति पहुंचा। उस समय वहाँ हैहय वंश के राजा कर्त्यवीर्य अर्जुन शासन कर रहा था तथा नित्य की भांति अपनी रानियों के साथ जलविहार को गया हुआ था। घूमता घूमता रावण अपनी सेना सहित उसी सरोवर के किनारे पहुंच गया और अपने आराध्य भगवान शंकर की आराधना हेतु उसने शिवलिंग की स्थापना की। उधर अर्जुन की रानियों ने कौतुक के लिए उससे कुछ असाधारण करने का अनुरोध किया। कर्त्यवीर्य अर्जुन को वरदान स्वरुप हजार भुजाएं प्राप्त हुई थी इसी कारण वो सहस्त्रबाहु के नाम से भी विख्यात था तथा अजेय था। अपने पत्नियों के इस प्रकार अनुरोध करने पर उसने अपनी हजार भुजाओं से नदी का प्रवाह पूरी तरह रोक दिया। 

अचानक धारा रुक जाने से नदी का जलस्तर बढ़ गया और उसमे तट पर बनाया गया रावण का शिवलिंग बह गया। इससे अतिक्रोध में आकर रावण ने अपनी सेना की एक टुकड़ी को इसका कारण पता करने और अपराधी को बंदी बना कर लाने का आदेश दिया। जब उसकी सेना ने देखा कि अर्जुन ने अपने हजार हाथों से जल का प्रवाह रोक दिया है तो उन्होंने उसे बंदी बनाने के लिए उसपर आक्रमण कर दिया किन्तु अर्जुन के पराक्रम के आगे किसी की ना चली। उससे पराजित हो वे वापस रावण के पास लौटे और उससे सारी घटना कही। अपने विजय के मद में चूर रावण ये सुनकर नदी के तट पर पहुंचा और अर्जुन को युद्ध की चुनौती दे डाली। पहले अर्जुन ने कहा की रावण उसका अतिथि है इसलिए उसका उससे युद्ध करना उचित नहीं है किन्तु रावण के रणमत्त हठ के आगे उसकी एक न चली।  अंततः दोनों वीर युद्ध के लिए सज्जित हुए।  

दोनों महायोद्धा और अजेय थे। उनका युद्ध कई दिनों तक चलता रहा और ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उनमे से कोई भी पराजित नहीं हो सकता। अंत में अर्जुन ने क्रोध में आकर रावण को अपने हजार हाथों से जकड लिया। रावण अपनी पूरी शक्ति के बाद भी उससे निकल नहीं पाया और अर्जुन ने उसे बंदी बना लिया। बाद में जब रावण के दादा महर्षि पुलत्स्य को इसका पता चला तो उन्होंने बीच बचाव कर रावण को मुक्त करवाया और फिर रावण अर्जुन से मित्रता कर वापस लंका को लौट गया। 

३३ कोटि देवताओं का रहस्य

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हिन्दू धर्म सागर की तरह विशाल है. इसकी विशालता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि हिन्दू धर्म में कुल देवी देवताओं की संख्या ३३ करोड़ बताई जाती है. सुनने में कुछ अजीब नहीं लगता? क्या ये संभव है कि किसी धर्म में कुल देवी देवताओं की संख्या ३३ करोड़ हो सकती है? किसी को भी आश्चर्य हो सकता है. कहते हैं कि अधूरा ज्ञान हानिकारक हो सकता है. तो आईये हम इस बारे में कुछ आश्चर्यजनक तत्थ्य जानें.

सबसे पहले ये बात कि हिन्दू धर्म में कुल ३३ करोड़ देवी देवतायें हैं ये सत्य नहीं है. मैंने कई धर्म गुरुओं को पुरे विश्वास के साथ ये कहते सुना है कि ये संख्या सटीक रूप से ३३ करोड़ ही हैं किन्तु जब उनसे ये पूछा जाए कि केवल ३३ देवी देवताओं के नाम बताएं, निश्चित रूप से उन्हें काफी मेहनत करनी पड़ेगी.

सबसे पहली बात, वेद, पुराण, गीता, रामायण, महाभारत या किसी अन्य धार्मिक ग्रन्थ में ये नहीं लिखा कि हिन्दू धर्म में ३३ करोड़ देवी देवताओं हैं और यही नहीं देवियों को कहीं भी इस गिनती में शामिल नहीं किया है. इतनी विशाल संख्या देखते हुआ शायद उन्हें बाद में इस सूची में शामिल कर लिया गया होगा. हमारे धर्म ग्रंथों में ३३ करोड़ नहीं बल्कि "३३ कोटि"देवताओं (ध्यान दें, देवता न कि भगवान) का जिक्र है. ध्यान दें कि यहाँ "कोटि"शब्द का प्रयोग किया गया है, करोड़ का नहीं. आज हम जिसे करोड़ कहते हैं, पुराने समय में उसे कोटि कहा जाता है. युधिष्ठिर ने ध्यूत सभा में अपने धन का वर्णन करते समय कोटि शब्द का प्रयोग किया है. आधुनिक काल के विद्वानों ने कोटि का अर्थ सीधा सीधा अनुवाद कर करोड़ कर दिया.

दरअसल यहाँ कोटि का प्रयोग ३३ करोड़ नहीं बल्कि ३३ (त्रिदशा) "प्रकार"के देवताओं के लिए किया गया है. कोटि का एक अर्थ "प्रकार" (तरह) भी होता है. उस समय जब देवताओं का वर्गीकरण किया गया तो उसे ३३ प्रकार में विभाजित किया गया जो समय के साथ अपभ्रंश होकर कब "करोड़"के रूप में प्रचलित हो गया पता ही नहीं चला. दुःख कि बात ये है कि आज भी हम हिन्दू रटे रटाये तौर पर बड़े गर्व से कहते हैं कि हमारे देवी देवताओं की संख्या इतनी अधिक है. इन ३३ कोटि (करोड़ नहीं) देवताओं को वर्णन आपको किसी भी धर्म ग्रन्थ खासकर पुराणों में मिल जाएगा.

१२ आदित्य, ८ वसु, ११ रूद्र एवं दो अश्विनी कुमार मिलकर ३३ (१३+८+११+२ = ३३) देवताओं की श्रेणी बनाते हैं. इनका वर्णन नीचे दिया गया है:

१२ आदित्य (सभी देवताओं में मूल देवता)

  1. धाता
  2. मित
  3. आर्यमा 
  4. शक्रा
  5. वरुण
  6. अंश
  7. भाग
  8. विवास्वान
  9. पूष
  10. सविता
  11. त्वास्था
  12. विष्णु
८ वसु (इंद्र और विष्णु के सहायक)
  1. धर (पृथ्वी)
  2. ध्रुव (नक्षत्र)
  3. सोम (चन्द्र)
  4. अह (अंतरिक्ष)
  5. अनिल (वायु)
  6. अनल (अग्नि)
  7. प्रत्युष (सूर्य)
  8. प्रभास (ध्यौ: यही आठवें वसु थे जिनका जन्म भीष्म के रूप में गंगा की आठवी संतान के रूप में हुआ)
११ रूद्र (भगवान शंकर के प्रमुख अनुयायी. इन्हें उनका (भगवान रूद्र) का हीं रूप माना जाता है) 
  1. हर 
  2. बहुरूप
  3. त्रयम्बक
  4. अपराजिता
  5. वृषाकपि
  6. शम्भू
  7. कपार्दी
  8. रेवात
  9. मृगव्याध
  10. शर्वा
  11. कपाली
२ अश्विनी कुमार (इनकी गिनती जुड़वाँ भाइयों के रूप में एक साथ ही होती है जो देवताओं के राजवैध भी हैं)
  1.  नसात्या
  2. दसरा
कुल ३३ कोटि (प्रकार) देवता

श्री मद भगवद गीता के बारे में कुछ तत्थ्य

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  • किसने किसको सुनाई:श्रीकृष्ण ने अर्जुन को
  • कब सुनाई:आज से लगभग ७००० साल पहले
  • किस दिन सुनाई:रविवार के दिन
  • कौन सी तिथि को:एकादशी 
  • कहाँ सुनाई:कुरुक्षेत्र की रणभूमि में
  • कितनी देर में सुनाई:लगभग ४५ मिनट
  • क्यों सुनाई:कर्त्तव्य से भटके अर्जुन को कर्त्तव्य पथ पर लेन के लिए एवं आने वाली पीढ़ी को धर्म ज्ञान सिखाने के लिए
  • अर्जुन को गीता पर पूर्ण विश्वास कब आया:श्रीकृष्ण के विराट स्वरुप के दर्शन के बाद
  • अर्जुन के आलावा और किसने श्रीकृष्ण के विराट रूप के दर्शन किये:संजय ने
  • अर्जुन के आलावा इसे और किसने सुना:ध्रितराष्ट्र एवं संजय ने
  • अर्जुन से पहले इसका ज्ञान किसे मिला था:सूर्यदेव को
  • गीता की गिनती किन धर्मग्रंथों में की जाती है:उपनिषदों में
  • गीता किस महाग्रंथ का भाग है:महाभारत के शांति पर्व का
  • गीता का दूसरा नाम:गीतोपनिषद
  • गीता का सार क्या है:परमात्मा की शरण लेना
  • कुल कितने श्लोक हैं: ७००
  • कुल कितने अध्याय है: १८
  1. विषाद योग:४६ श्लोक
  2. सांख्य योग:७२ श्लोक
  3. कर्म योग:४३ श्लोक
  4. ज्ञान कर्म संन्यास योग:४२ श्लोक 
  5. कर्म संन्यास योग:२९ श्लोक 
  6. ध्यान योग अथवा आत्मसंयम योग:४७ श्लोक
  7. ज्ञान विज्ञान योग:३० श्लोक
  8. अक्षर ब्रम्ह योग:२८ श्लोक
  9. राजविद्या राजगुह्य योग:३४ श्लोक
  10. विभूति विस्तार योग:४२ श्लोक
  11. विश्वरूप दर्शन योग:५५ श्लोक
  12. भक्ति योग:२० श्लोक
  13. क्षेत्र क्षेत्रजन विभाग योग:३५ श्लोक
  14. गुणत्रय विभाग योग:२७ श्लोक
  15. पुरुषोत्तम योग:२० श्लोक
  16. दैवासुर सम्पद विभाग योग:२४ श्लोक
  17. श्रध्दात्रय विभाग योग:२८ श्लोक
  18. मोक्ष संन्यास योग:७८ श्लोक 
  • गीता में किसने कितने श्लोक कहे हैं:
    • श्रीकृष्ण ने:५७४
    • अर्जुन ने:८५
    • ध्रितराष्ट्र ने:
    • संजय ने:४०

    ५६ (छप्पन) भोग का रहस्य

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    भगवान को लगाए जाने वाले भोग की बड़ी महिमा है. इनके लिए 56 प्रकार के व्यंजन परोसे जाते हैं, जिसे छप्पन भोग कहा जाता है. यह भोग रसगुल्ले से शुरू होकर दही, चावल, पूरी, पापड़ आदि से होते हुए इलायची पर जाकर खत्म होता है. अष्ट पहर भोजन करने वाले बालकृष्ण भगवान को अर्पित किए जाने वाले छप्पन भोग के पीछे कई रोचक कथाएं हैं. 

    ऐसा कहा जाता है कि यशोदाजी बालकृष्ण को एक दिन में अष्ट पहर भोजन कराती थी. अर्थात् बालकृष्ण आठ बार भोजन करते थे. जब इंद्र के प्रकोप से सारे व्रज को बचाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठाया था, तब लगातार सात दिन तक भगवान ने अन्न जल ग्रहण नहीं किया. आठवे दिन जब भगवान ने देखा कि अब इंद्र की वर्षा बंद हो गई है तो उन्होंने सभी व्रजवासियो को गोवर्धन पर्वत से बाहर निकल जाने को कहा. तब दिन में आठ प्रहर भोजन करने वाले व्रज के नंदलाल कन्हैया का लगातार सात दिन तक भूखा रहना उनके व्रज वासियों और मया यशोदा के लिए बड़ा कष्टप्रद हुआ. भगवान के प्रति अपनी अन्न्य श्रद्धा भक्ति दिखाते हुए सभी व्रजवासियो सहित यशोदा जी ने सात दिन और अष्ट पहर के हिसाब से ७ x ८=५६व्यंजनो का भोग बाल कृष्ण को लगाया.

    श्रीमद्भागवत के अनुसार, गोपिकाओं ने एक माह तक यमुना में भोर में ही न केवल स्नान किया, अपितु कात्यायनी मां की अर्चना भी इस मनोकामना से की, कि उन्हें नंदकुमार ही पति रूप में प्राप्त हों. श्रीकृष्ण ने उनकी मनोकामना पूर्ति की सहमति दे दी. व्रत समाप्ति और मनोकामना पूर्ण होने के उपलक्ष्य में ही उद्यापन स्वरूप गोपिकाओं ने छप्पन भोग का आयोजन किया.

    ऐसा भी कहा जाता है कि गौलोक में भगवान श्रीकृष्ण राधिका जी के साथ एक दिव्य कमल पर विराजते हैं. उस कमल की तीन परतें होती हैं. प्रथम परत में "आठ", दूसरी में "सोलह"और तीसरी में "बत्तीस पंखुड़िया"होती हैं. प्रत्येक पंखुड़ी पर एक प्रमुख सखी और मध्य में भगवान विराजते हैं. इस तरह कुल पंखुड़ियों संख्या छप्पन होती है. 

    छप्पन भोग इस प्रकार है:
    1. भक्त (भात)
    2. सूप (दाल)
    3. प्रलेह (चटनी)
    4. सदिका (कढ़ी)
    5. दधिशाकजा (दही शाक की कढ़ी)
    6. सिखरिणी (सिखरन)
    7. अवलेह (शरबत)
    8. बालका (बाटी)
    9. इक्षु खेरिणी (मुरब्बा)
    10. त्रिकोण (शर्करा युक्त)
    11. बटक (बड़ा)
    12. मधु शीर्षक (मठरी)
    13. फेणिका (फेनी)
    14. परिष्टïश्च (पूरी)
    15. शतपत्र (खजला)
    16. सधिद्रक (घेवर)
    17. चक्राम (मालपुआ)
    18. चिल्डिका (चोला)
    19. सुधाकुंडलिका (जलेबी)
    20. धृतपूर (मेसू)
    21. वायुपूर (रसगुल्ला)
    22. चन्द्रकला (पगी हुई)
    23. दधि (महारायता)
    24. स्थूली (थूली)
    25. कर्पूरनाड़ी (लौंगपूरी)
    26. खंड मंडल (खुरमा)
    27. गोधूम (दलिया)
    28. परिखा
    29. सुफलाढय़ा (सौंफ युक्त)
    30. दधिरूप (बिलसारू)
    31. मोदक (लड्डू)
    32. शाक (साग)
    33. सौधान (अधानौ अचार)
    34. मंडका (मोठ)
    35. पायस (खीर)
    36. दधि (दही)
    37. गोघृत
    38. हैयंगपीनम (मक्खन)
    39. मंडूरी (मलाई)
    40. कूपिका (रबड़ी)
    41. पर्पट (पापड़)
    42. शक्तिका (सीरा)
    43. लसिका (लस्सी)
    44. सुवत
    45. संघाय (मोहन)
    46. सुफला (सुपारी)
    47. सिता (इलायची)
    48. फल
    49. तांबूल
    50. मोहन भोग
    51. लवण
    52. कषाय
    53. मधुर
    54. तिक्त
    55. कटु
    56. अम्ल

    सप्तर्षियों की पृथ्वी से दूरी

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    पुराणों में सात महान ऋषियों के बारे में वर्णित है जिन्हें सप्तर्षि कहा जाता है। ध्यान देने वाली बात है कि हर मनवन्तर में सप्तर्षि अलग अलग होते हैं। अभी सातवां मनवन्तर चल रहा है जिसमे वैवस्वत मनु का शासन है। किन्तु पहले मनवन्तर जिसके शासक स्वयंभू मनु हैं, के सप्तर्षियों का महत्त्व सबसे अधिक है। कहा जाता है कि सातों ऋषि अपने अपने ग्रह पर निवास करते हैं जो पृथ्वी से बहुत दूर हैं। आज हम आपको बताएँगे कि सप्तर्षियों में कौन से ऋषि पृथ्वी से कितनी दूरी पर निवास करते हैं। आशा है आपको ये जानकारी पसंद आएगी। 

    • महर्षि अत्रि:५४८०००००००००००० (548 x 10^12) किलोमीटर या ५७.९ (57.9) प्रकाशवर्ष दूर
    • महर्षि वशिष्ठ:७३७०००००००००००० (737 x 10^12) किलोमीटर या ७७.९ (77.9) प्रकाशवर्ष दूर 
    • महर्षि पुलह:७४७०००००००००००० (747 x 10^12) किलोमीटर या ७९ (79) प्रकाशवर्ष दूर 
    • महर्षि अंगिरस:७६६०००००००००००० (766 x 10^12) किलोमीटर या ८१ (81) प्रकाशवर्ष दूर
    • महर्षि पुलत्स्य:७९४०००००००००००० (794 x 10^12) किलोमीटर या ८३.९ (83.9) प्रकाशवर्ष दूर 
    • महर्षि मारीचि:९५५०००००००००००० (955 x 10^12) किलोमीटर या १००.९ (100.9) प्रकाशवर्ष दूर 
    • महर्षि क्रतु:११७००००००००००००० (1170 x 10^12) किलोमीटर या १२३.७ (123.7) प्रकाशवर्ष दूर

    भगवान चित्रगुप्त एवं कायस्थ वंश

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    कायस्थों का स्त्रोत श्री चित्रगुप्तजी महाराज को माना जाता है। कहा जाता है कि ब्रह्माजी ने चार वर्णो को बनाया (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र) तब यम जी ने उनसे मानवों का विवरण रखने में सहायता मांगी। फिर ब्रह्माजी ११००० वर्षों के लिये ध्यानसाधना मे लीन हो गये और जब उन्होने आँखे खोली तो देखा कि "आजानुभुज करवाल पुस्तक कर कलम मसिभाजनम"अर्थात एक पुरुष को अपने सामने कलम, दवात, पुस्तक तथा कमर मे तलवार बाँधे पाया। तब ब्रह्मा जी ने कहा कि "हे पुरुष तुम कौन हो, तब वह पुरुष बोला मैं आपके चित्त में गुप्त रूप से निवास कर रहा था, अब आप मेरा नामकरण करें और मेरे लिए जो भी दायित्व हो मुझे सौपें। तब ब्रह्माजी बोले जैसा कि तुम मेरे चित्र (शरीर) मे गुप्त (विलीन) थे इसलिये तुम्हे चित्रगुप्त के नाम से जाना जाएगा। और तुम्हारा कार्य होगा प्रेत्यक प्राणी की काया में गुप्तरूप से निवास करते हुए उनके द्वारा किये गए सत्कर्म और अपकर्म का लेखा रखना और तदानुसार सही न्याय कर उपहार और दंड की व्यवस्था करना। चूंकि तुम प्रत्येक प्राणी की काया में गुप्तरूप से निवास करोगे इसलिये तुम्हे और तुम्हारी संतानो को कायस्थ भी कहा जाएगा ।

    श्री चित्रगुप्त जी को महाशक्तिमान क्षत्रीय के नाम से सम्बोधित किया गया है । इनकी दो शादियाँ हुईं, पहली पत्नी सूर्यदक्षिणा/नंदनीजो ब्राह्मण कन्या थी, इनसे ४ पुत्र हुए:
    1. भानू (श्रीवास्तव):उनका राशि नाम धर्मध्वज था जिन्हे चित्रगुप्त जी ने श्रीवास (श्रीनगर) और कान्धार के इलाके में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। उनका विवाह नागराज वासुकी की पुत्री पद्मिनी से हुआ। उस विवाह से देवदत्त और घनश्याम नामक दो दिव्य पुत्रों की उत्पत्ति हुई। देवदत्त को कश्मीर का एवं घनश्याम को सिन्धु नदी के तट का राज्य मिला। श्रीवास्तव २ वर्गों में विभाजित हैं यथा खर एवं दूसर। कुछ अल इस प्रकार हैं: वर्मा, सिन्हा, अघोरी, पडे, पांडिया, रायजादा, कानूनगो, जगधारी, प्रधान, बोहर, रजा सुरजपुरा, तनद्वा, वैद्य, बरवारिया, चौधरी, रजा संडीला, देवगनइत्यादि। 
    2. विभानू (सूर्यध्व्ज):उनका राशि नाम श्यामसुंदर था जिनका विवाह देवी मालती से हुआ। महाराज चित्रगुप्त ने विभानु को काश्मीर के उत्तर क्षेत्रों में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। चूंकि उनकी माता दक्षिणा सूर्यदेव की पुत्री थीं, तो उनके वंशज सूर्यदेव का चिन्ह अपनी पताका पर लगाये और सूर्यध्व्ज नाम से जाने गए। अंततः वह मगध में आकर बसे। 
    3. विश्वभानू (वाल्मिक):उनका राशि नाम दीनदयाल था और वह देवी शाकम्भरी की आराधना करते थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने उनको चित्रकूट और नर्मदा के समीप वाल्मीकि क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। उनका विवाह नागकन्या देवी बिम्ववती से हुआ। यह ज्ञात है की उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा नर्मदा नदी के तट पर तपस्या करते हुए बिताया। इस तपस्या के समय उनका पूर्ण शरीर वाल्मीकि नामक लता से ढका हुआ था। उनके वंशज वाल्मीकि नाम से जाने गए और वल्लभपंथी बने। उनके पुत्र श्री चंद्रकांत गुजरात में जाकर बसे तथा अन्य पुत्र अपने परिवारों के साथ उत्तर भारत में गंगा और हिमालय के समीप प्रवासित हुए। आज वह गुजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं। गुजरात में उनको "वल्लभी कायस्थ"भी कहा जाता है। 
    4. वीर्यभानू (अष्ठाना):उनका राशि नाम माधवराव था और उन्हीं ने देवी सिंघध्वनि से विवाह किया। वे देवी शाकम्भरी की पूजा किया करते थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री वीर्यभानु को आधिस्थान में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। उनके वंशज अष्ठाना नाम से जाने गए और रामनगर (वाराणसी) के महाराज ने उन्हें अपने आठ रत्नों में स्थान दिया। आज अष्ठाना उत्तर प्रदेश के कई जिले और बिहार के सारन, सिवान, चंपारण, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी, दरभंगा और भागलपुर क्षेत्रों में रहते हैं। इसके अतिरिक्त मध्य प्रदेश में भी उनकी संख्या ध्यान रखने योग्य है। वह ५ अल में विभाजित हैं। 

    दूसरी पत्नी इरावती/शोभावती नागवन्शी क्षत्रिय कन्या थी, इनसे ८ पुत्र हुए:
    1. चारु (माथुर):वह गुरु मथुरे के शिष्य थे। उनका राशि नाम धुरंधर था और उनका विवाह देवी पंकजाक्षी से हुआ एवं वह देवी दुर्गा की आराधना करते थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री चारू को मथुरा क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। उनके वंशज माथुर नाम से जाने गाये। उन्होंने राक्षसों (जोकि वेद में विश्वास नहीं रखते थे), को हराकर मथुरा में राज्य स्थापित किया। इसके पश्चात् उनहोंने आर्यावर्त के अन्य हिस्सों में भी अपने राज्य का विस्तार किया। माथुरों ने मथुरा पर राज्य करने वाले सूर्यवंशी राजाओं जैसे इक्ष्वाकु, रघु, दशरथ और राम के दरबार में भी कई पद ग्रहण किये। माथुर को ३ वर्गों में विभाजित हैं: देहलवी, खचौली और गुजरात के कच्छी।  उनके ८४ अल हैं जिनमे से कुछ इस प्रकार हैं: कटारिया, सहरिया, ककरानिया, दवारिया, दिल्वारिया, तावाकले, राजौरिया, नाग, गलगोटिया, सर्वारिया, रानोरियाइत्यादि। इटावा के मदनलाल तिवारी द्वारा लिखित मदन कोश के अनुसार माथुरों ने पांड्या राज्य की स्थापना की जो की आज के समय में मदुरै, त्रिनिवेल्ली जैसे क्षेत्रों में फैला था। माथुरों के दूत रोम के ऑगस्टस कैसर के दरबार में भी गए थे। 
    2. चितचारु (भटनागर):वह गुरू भट के शिष्य थे जिनका विवाह देवी भद्रकालिनी से हुआ था। वह देवी जयंती की अराधना करते थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने उन्हें भट देश और मालवा में भट नदी के तट पर राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। उन्होंने चित्तौड़ एवं चित्रकूट की स्थापना की और वहीं बस गए। उनके वंशज भटनागर के नाम से जाने गए जो 84 अल में विभाजित हैं जिनमे से कुछ अल इस प्रकार हैं: दासनिया, भतनिया, कुचानिया, गुजरिया, बहलिवाल, महिवाल, सम्भाल्वेद, बरसानिया, कन्मौजियाइत्यादि। भटनागर उत्तर भारत में कायस्थों के बीच एक आम उपनाम है। 
    3. मतिभान (सक्सेना):इनका विवाह देवी कोकलेश से हुआ और वे देवी शाकम्भरी की पूजा करते थे। चित्रगुप्त जी ने श्री मतिमान को शक् इलाके में राज्य स्थापित करने भेजा। उनके पुत्र एक महान योद्धा थे और उन्होंने आधुनिक काल के कान्धार और यूरेशिया भूखंडों पर अपना राज्य स्थापित किया। चूंकि वह शक् थे और शक् साम्राज्य से थे तथा उनकी मित्रता सेन साम्राज्य से थी, तो उनके वंशज शकसेन या सकसेन कहलाये। आधुनिक इरान का एक भाग उनके राज्य का हिस्सा था। आज वे कन्नौज, पीलीभीत, बदायूं, फर्रुखाबाद, इटाह, इटावाह, मैनपुरी, और अलीगढ में पाए जाते हैं। सक्सेना 'खरे'और 'दूसर'में विभाजित हैं और इस समुदाय में १०६ अल हैं। कुछ अल इस प्रकार हैं: जोहरी, हजेला, अधोलिया, रायजादा, कोदेसिया, कानूनगो, बरतरिया, बिसारिया, प्रधान, कम्थानिया, दरबारी, रावत, सहरिया, दलेला, सोंरेक्षा, कमोजिया, अगोचिया, सिन्हा, मोरिया इत्यादि। 
    4. सुचारु (गौड़):वह गुरु वशिष्ठ के शिष्य थे और उनका राशि नाम धर्मदत्त था। वह देवी शाकम्बरी की आराधना करते थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री सुचारू को गौड़ क्षेत्र में राज्य स्थापित करने भेजा था। श्री सुचारू का विवाह नागराज वासुकी की पुत्री देवी मंधिया से हुआ। गौड़ 5 वर्गों में विभाजित हैं: खरे, दुसरे, बंगाली, देहलवी एवं वदनयुनि। गौड़ कायस्थ को ३२ अल में बांटा गया है और इनमे महाभारत के भगदत्त और कलिंग के रुद्रदत्त प्रसिद्द हैं।
    5. चारुण (कर्ण):उनका राशि नाम दामोदर था एवं उनका विवाह देवी कोकलसुता से हुआ। वह देवी लक्ष्मी की आराधना करते थे और वैष्णव थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री चारूण को कर्ण क्षेत्र (आधुनिक कर्नाटक) में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। उनके वंशज समय के साथ उत्तरी राज्यों में प्रवासित हुए और आज नेपाल, उड़ीसा एवं बिहार में पाए जाते हैं। उनकी बिहार की शाखा दो भागों में विभाजित है: 'गयावाल कर्ण' (जो गया में बसे) और 'मैथिल कर्ण' (जो मिथिला में जाकर बसे)। इनमें दास, दत्त, देव, कण्ठ, निधि, मल्लिक, लाभ, चौधरी, रंग आदि पदवी प्रचलित है। मैथिल कर्ण कायस्थों की एक विशेषता उनकी पंजी पद्धति है। पंजी वंशावली रिकॉर्ड की एक प्रणाली है। कर्ण ३६० अल में विभाजित हैं और इस विशाल संख्या का कारण वह कर्ण परिवार हैं जिन्हों ने कई चरणों में दक्षिण भारत से उत्तर की ओर पलायन किया। इस समुदाय का महाभारत के कर्ण से कोई सम्बन्ध नहीं है। 
    6. हिमवान (अम्बष्ट):उनका राशि नाम सरंधर था और उनका विवाह देवी भुजंगाक्षी से हुआ। वह देवी अम्बा माता की अराधना करते थे। गिरनार और काठियवार के अम्बा-स्थान नामक क्षेत्र में बसने के कारण उनका नाम अम्बष्ट पड़ा। श्री हिमवान की पांच दिव्य संतानें हुईं: नागसेन (२४ अल), गयासेन (३५ अल), गयादत्त (८५ अल), रतनमूल (२५ अल) और देवधर (२१ अल)। ये पाँचों पुत्र विभिन्न स्थानों में जाकर बसे और इन स्थानों पर अपने वंश को आगे बढ़ाया। अंततः वह पंजाब में जाकर बसे जहाँ उनकी पराजय सिकंदर के सेनापति और उसके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य के हाथों हुई। अम्बष्ट कायस्थ बिजातीय विवाह की परंपरा का पालन करते हैं और इसके लिए "खास घर"प्रणाली का उपयोग करते हैं। इन घरों के नाम उपनाम के रूप में भी इस्तेमाल किये जाते हैं। कुछ "खास घर"(जिनसे मगध राज्य के उन गाँवों का नाम पता चलता है जहाँ मौर्यकाल में तक्षशिला से विस्थापित होने के उपरान्त अम्बष्ट आकर बसे थे) के नाम हैं: भीलवार, दुमरवे, बधियार, भरथुआर, निमइयार, जमुआर, कतरयार पर्वतियार, मंदिलवार, मैजोरवार, रुखइयार, मलदहियार, नंदकुलियार, गहिलवार, गयावार, बरियार, बरतियार, राजगृहार, देढ़गवे, कोचगवे, चारगवे, विरनवे, संदवार, पंचबरे, सकलदिहार, करपट्ने, पनपट्ने, हरघवे, महथा, जयपुरियारआदि। 
    7. चित्रचारु (निगम):उनका राशि नाम सुमंत था और उनका विवाह अशगंधमति से हुआ। वह देवी दुर्गा की अराधना करते थे। महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री चित्रचारू को महाकोशल और निगम क्षेत्र (सरयू नदी के तट पर) में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। उनके वंशज वेदों और शास्त्रों की विधियों में पारंगत थे जिससे उनका नाम निगम पड़ा। आज के समय में वे कानपुर, फतेहपुर, हमीरपुर, बंदा, जलाओं, महोबा में रहते हैं। वह ४३ अल में विभाजित हैं जिनमे से कुछ इस प्रकार हैं: कानूनगो, अकबरपुर, अकबराबादी, घताम्पुरी, चौधरी, कानूनगो बाधा, कानूनगो जयपुर, मुंशीइत्यादि। 
    8. अतिन्द्रिय (कुलश्रेष्ठ):उनका राशि नाम सदानंद है और उन्हों ने देवी मंजुभाषिणी से विवाह किया। वह देवी लक्ष्मी की आराधना करते हैं। महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री अतिन्द्रिय (जितेंद्रिय) को कन्नौज क्षेत्र में राज्य स्थापित करने भेजा था। श्री अतियेंद्रिय चित्रगुप्त जी की बारह संतानों में से अधिक धर्मनिष्ठ और सन्यासी प्रवृत्ति वाली संतानों में से थे। उन्हें 'धर्मात्मा'और 'पंडित'नाम से जाना गया और स्वभाव से गुणी थे। आधुनिक काल में वे मथुरा, आगरा, फर्रूखाबाद, इटाह, इटावाह और मैनपुरी में पाए जाते हैं। कुछ कुलश्रेष्ठ जो की माता नंदिनी के वंश से हैं, नंदीगांव (बंगाल) में पाए जाते हैं। 

    इरावान

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    इरावान महाभारत का बहुचर्चित तो नहीं किन्तु एक मुख्य पात्र है। इरावान महारथी अर्जुन का पुत्र था जो एक नाग कन्या से उत्पन्न हुआ था। द्रौपदी से विवाह के पूर्व देवर्षि नारद के सलाह के अनुसार पाँचों भाइयों ने अनुबंध किया कि द्रौपदी एक वर्ष तक किसी एक भाई की पत्नी बन कर रहेगी। उस एक वर्ष में अगर कोई भी अन्य भाई भूल कर भी बिना आज्ञा द्रौपदी के कक्ष में प्रवेश करेगा तो उसे १२ वर्ष का वनवास भोगना पड़ेगा। देवर्षि ने ये अनुबंध इस लिए करवाया था ताकि दौपदी को लेकर भाइयों के मध्य किसी प्रकार का मतभेद ना हो। 

    एक बार कुछ डाकुओं ने एक ब्राम्हण की गाय छीन ली तो वो मदद के लिए युधिष्ठिर के महल पहुँचा। वहाँ उसे सबसे पहले अर्जुन दिखा जिससे उसने मदद की गुहार लगायी। अर्जुन को याद आया कि पिछली रात उसने अपना गांडीव युधिष्ठिर के कक्ष में रख दिया था। इस समय युधिष्ठिर और द्रौपदी कक्ष में थे और ऐसे में वहाँ जाने का अर्थ अनुबंध का खंडन करना था किन्तु ब्राम्हण की सहायता के लिए उन्हें कक्ष में जाना पड़ा। जब वे दस्युओं को मारकर ब्राह्मण की गाय छुड़ा लाये तो अनुबंध की शर्त के अनुसार वनवास को उद्धत हुए। अन्य भाइयों के लाख समझने के बाद भी वे वनवास को निकल गए। भ्रमण करते हुए वे भारत के उत्तर पूर्व में (आज जहाँ नागालैंड है) पहुँचे और एक सरोवर में स्नान के लिए उतरे। वहाँ नागों का वास था जिसकी राजकुमारी उलूपी अर्जुन पर मुग्ध हो गयी। उलूपी विधवा थी और अर्जुन से विवाह की प्रबल इच्छा के कारण उलूपी ने अर्जुन को जल के भीतर खींच लिया और नागलोक में ले आयी। वहाँ उलूपी के बार बार आग्रह करने पर अर्जुन ने उससे विवाह किया और गुप्त रूप से उसी के कक्ष में रहने लगे। किन्तु बाद में उनका रहस्य खुलने पर उलूपी के पिता ने उनके सामने शर्त रखी कि उलूपी और उनकी जो संतान होगी उसे वहीँ नागलोक में रहना होगा। इन्ही का पुत्र इरावान हुआ जिसे नागलोक में ही छोड़ कर अर्जुन एक वर्ष पश्चात आगे की यात्रा को निकल गए। 

    इरावान बहुत ही मायावी योद्धा था जिसने महाभारत के युद्ध में पांडवों की ओर से युद्ध किया था। उसकी माया शक्ति के आगे योद्धाओं की ना चली। पितामह भीष्म पहले ही प्रतिज्ञा कर चुके थे कि वे पांडव और उनके पुत्रों का वध नहीं करेंगे। कोई और उपाय ना देख कर तो दुर्योधन ने महान मायावी राक्षस अलम्बुष से इरावान का वध करने को कहा। अलम्बुष ने इरावान से भयानक मायायुद्ध किया और अंततः युद्ध के आठवें दिन अलम्बुष के हाँथों इरावान वीरगति को प्राप्त हुआ। 

    इरावान की दक्षिण भारत विशेषकर तमिलनाडु में बड़ी महत्ता है। साथ ही साथ किन्नर समाज में भी इरावान को देवता की तरह पूजा जाता है। दक्षिण भारत में एक विशेष दिन किन्नर इकठ्ठा होकर इरावान के साथ सामूहिक विवाह रचाते हैं और अगले दिन इरावन को मृत मानकर वे सभी एक विधवा की भांति विलाप करते हैं। इस प्रथा के पीछे भी महाभारत की एक कथा है। कहा जाता है कि इरावान की मृत्यु से एक दिन पहले सहदेव, जिन्हे त्रिकालदृष्टि प्राप्त थी, ने इरावन को बता दिया था था कि अगले दिन उनकी मृत्यु होने वाली है। ये सुनकर इरावान जरा भी नहीं घबराये किन्तु उन्होंने श्रीकृष्ण से ये प्रार्थना की कि वे अविवाहित नहीं मरना चाहते। अब इतनी जल्दी इरावान के लिए कन्या का प्रबंध कहाँ से होता? इस कारण श्रीकृष्ण ने वहाँ युद्ध में उपस्थित राजाओं से उनकी कन्या का विवाह इरावान से करने को कहा किन्तु ये जानते हुए कि इरावान अगले दिन मरने वाला है, कौन राजा उसे अपनी कन्या देता? कोई और उपाय ना देख कर स्वयं श्रीकृष्ण ने मोहिनी रूप में इरावान के साथ विवाह किया और अगले दिन उसकी मृत्यु के पश्चात वे विधवा हुए। कहीं कहीं महाभारत में इरावान का विवाह सात्यिकी की पुत्री के साथ भी होना बताया गया है। यही प्रथा इरावान के साथ किन्नर मानते हैं इसी कारण देश भर के किन्नर इरावान को अपने आराध्य के रूप में पूजते हैं।

    पौराणिक काल के योद्धाओं का स्तर

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    हम लोगों ने कई बार रामायण, महाभारत एवं अन्य पौराणिक कहानियों में योद्धाओं के ओहदे के बारे में पढ़ा है। सबसे आम शब्द जो इन पुस्तकों में आता है वह है "महारथी" और ये शब्द इतना आम बना  दिया गया है कि किसी भी योध्या के लिए हम महारथी शब्द का प्रयोग कर लेते है जबकि यह एक बहुत बड़ी पदवी होती थी और कुछ चुनिंदा योद्धा हीं महारथी के स्तर तक पहुच पाते थे। क्या आपको पता है कि इन ओहदों को पाने के लिए भी कुछ योग्यता जरुरी होती थी? अगर नहीं तो आज हम पौराणिक काल के योद्धाओं के स्तर के बारे में जानेंगे। 

    यहाँ मैं विशेष रूप से अनुरोध करना चाहूंगा कि कृपया रामायण और महाभारत के योद्धाओं की आपस में तुलना न करें।उनका बल उनके काल में उनके समकक्ष योद्धाओं के लिहाज से देखें। अन्यथा रामायण काल के सामान्य योद्धा भी महाभारत काल के महारथी से अधिक शक्तिशाली थे। उसी प्रकार किसी देवता की तुलना साधारण मनुष्य से ना करें। उनका बल भी उनके समक्ष देवताओं अथवा दानवों के सन्दर्भ में है। ये भी ध्यान रखें कि किसी भी योद्धा को केवल उसके शारीरिक बल से नहीं अपितु उसके द्वारा प्राप्त दिव्यास्त्रों के आधार पर भी प्रमाणित किया जाता था।
    1. अर्धरथी:अर्धरथी एक प्रशिक्षित योद्धा होता था जो एक से अधिक अस्त्र अथवा शास्त्रों का प्रयोग जनता हो तथा वो युद्ध में एक साथ २५००सशस्त्र योद्धाओं का सामना अकेले कर सकता हो। रामायण और महाभारत की बात करें तो इन युद्धों में असंख्य अर्धरथियों ने हिस्सा लिया था। उल्लेखनीय है कि महाभारत युद्ध में योद्धओं के बल का वर्णण करते हुए पितामह भीष्म ने कर्ण की गिनती एक अर्धरथी के रूप में की थी और इस अपमान के कारण कर्ण ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक भीष्म पितामह जीवित रहेंगे वो महाभारत के युद्ध में भाग नहीं लेगा।
    2. रथी:एक ऐसा योद्धा जो दो अर्धरथियों या ५०००सशस्त्र योद्धाओं का सामना एक साथ कर सके। इसके अतिरिक्त उसकी योग्यता एवं निपुणता कम से कम दो अस्त्र एवं दो शस्त्र चलाने में हो। महाभारतकाल में दुर्योधन एवं दुःशासन को छोड़ कर सारे कौरव रथी थे। इसके अलावा द्रौपदी के पांचो पुत्र (प्रतिविन्ध्य, सुतसोम, श्रुतकर्मा, शतानीक एवं श्रुतसेन), जयद्रथ, शकुनि एवं उसका पुत्र उलूक, युयुत्सु, सुदक्षिण, विराट के पुत्र राजकुमार उत्तर, शंख, शतानीक एवं श्वेत, अर्जुन का पुत्र इरावान, वृषसेन को छोड़ कर्ण के सभी पुत्र, दुर्योधन एवं दुःशाशन के सभी पुत्र, सुशर्मा, उत्तमौजा, युधामन्यु, जरासंध पुत्र सहदेव, बाह्लीक पुत्र सोमदत्त, कंस आदि की गिनती रथी के रूप में होती थी। रामायणमें असंख्य रथियों ने हिस्सा लिया जिनका विस्तृत वर्णण नहीं मिलता है। राक्षसों में खर और दूषण, वातापि आदि रथी थे। वानरों में गंधमादन, मैन्द एवं द्विविन्द, हनुमान के पुत्र मकरध्वज, शरभ एवं सुषेण को रथी माना जाता था। 
    3. अतिरथी:एक ऐसा योद्धा जो अनेक अस्त्र एवं शस्त्रों को चलने में माहिर हो तथा युद्ध में १२ रथियोंया ६००००सशस्त्र योद्धाओं का सामना एक साथ कर सकता हो। महाभारत काल में युधिष्टिर, नकुल, सहदेव, घटोत्कच, दुःशाशन, विराट, द्रुपद, धृष्टधुम्न, शिखंडी, कर्ण का पुत्र वृषसेन, मद्रराज शल्य, कृतवर्मा, भूरिश्रवा, कृपाचार्य, शिशुपाल एवं उसका पुत्र धृष्टकेतु, रुक्मी, शिखंडी, सात्यिकी, भीष्म के चाचा बाह्लीक, नरकासुर, राक्षस अलम्बुष, प्रद्युम्न एवं अलायुध आदि अतिरथी थे। रामायण काल में अंगद, नल, नील, प्रहस्त, अकम्पन, शत्रुघ्न, भरत पुत्र पुष्कल, विभीषण, हनुमान के पिता केसरी, ताड़का एवं उसका पुत्र मारीच आदि की गिनती अतिरथी में होती थी।
    4. महारथी:ये संभवतः सबसे प्रसिद्ध पदवी थी और जो भी योद्धा इस पदवी को प्राप्त करते थे वे पुरे विश्व में सम्मानित और प्रसिद्ध होते थे। महारथी एक ऐसा योद्धा होता था जो सभी ज्ञात अस्त्र शस्त्रों को चलने में माहिर होता था और इसके अतिरिक्त उनके पास सामान्य अस्त्रों से ऊपर कुछ दिव्यास्त्रों का ज्ञान होता था। युद्ध में महारथी १२ अतिरथियोंअथवा ७२००००सशस्त्र योद्धाओं का सामना कर सकता था। इसके अतिरिक्त जिस भी योद्धा के पास ब्रह्मास्त्र का ज्ञान होता था (जो गिने चुने ही थे) वो सीधे महारथी की श्रेणी में आ जाते थे। साधारणतयः अधिकतर बड़े योद्धाओं को महारथी कह के बुलाया जाता है लेकिन असल में गिनती के कुछ योद्धा होते थे जो महारथी की पदवी हासिल करते थे। महाभारत में दुर्योधन, अश्वत्थामा, भगदत्त, जरासंध, अभिमन्यु, बर्बरीक आदि को महारथी के श्रेणी में रखा जाता है। भीम को १८ अतिरथियों के बराबर, बलराम, गुरु द्रोण, अर्जुन एवं कर्ण को दो-दो महारथियों के समान तथा पितामह भीष्म को तीन महारथियों के समकक्ष माना जाता है। रामायण काल में भरत, ऋक्षराज जामवंत, सुग्रीव, लव, कुश, अतिकाय आदि महारथी की श्रेणी में आते हैं। कुम्भकर्ण को दो, रावण, बालि एवं कर्त्यवीर्य अर्जुन को तीन तथा लक्ष्मण, हनुमान एवं परशुराम को ६ महारथियों के बराबर माना जाता है। कहीं कहीं लक्षमण, हनुमान एवं परशुराम की गणना अतिमहारथियों में भी की जाती है।
    5. अतिमहारथी:इस श्रेणी के योद्धा दुर्लभ होते थे। अतिमहारथी उसे कहा जाता था जो १२ महारथीश्रेणी के योद्धाओं अर्थात ८६४००००सशस्त्र योद्धाओं का सामना अकेले कर सकता हो साथ ही सभी प्रकार के दैवीय शक्तियों का ज्ञाता हो। महाभारत में अतिमहारथी योद्धाओं का कोई प्रामाणिक सन्दर्भ नहीं मिलता है। रामायण में केवल मेघनाद की गिनती अतिमहारथी में की जाती है तथा कहीं कहीं लक्षमण को भी इस श्रेणी में रखा जाता है। इसके अतिरिक्त भगवान विष्णु के अवतार विशेषकर नृसिंह, राम, कृष्ण एवं कहीं कहीं परशुराम को भी अतिमहारथी श्रेणी में रखा जाता है। देवताओं में कार्तिकेय, गणेश, कभी कभी वैदिक पुराण में इंद्र, अग्नि एवं वरुण तथा आदिशक्ति की दस महाविद्याओं को अतिमहारथी की श्रेणी मिली है। इसके साथ ही रुद्रावतार विशेषकर वीरभद्र और कहीं कहीं हनुमान को भी अतिमहारथी कहा जाता है।
    6. महामहारथी:ये किसी भी प्रकार के योद्धा का उच्चतम स्तर माना जाता है। महामहारथी उसे कहा जाता है जो २४ अतिमहारथियोंअर्थात २०७३६००००सशस्त्र योद्धाओं का सामना कर सकता हो। इस साथ ही समस्त प्रकार की दैवीय एवं महाशक्तियाँ उसके अधीन हो। आजतक पृथ्वी पर कोई भी योद्धा अथवा कोई अवतार इस स्तर का नहीं हुआ है। इसका एक कारण ये भी है कि अभी तक २४ अतिमहारथी एक काल में तो क्या पूरे कल्प में भी नहीं हुए हैं। केवल त्रिदेवों (ब्रम्हा, विष्णु एवं रूद्र) एवं आदिशक्तिको ही इतना शक्तिशाली समझा जाता है।

    जब दुर्वासा ऋषि के श्राप से तीनों लोक श्रीहीन हो गए

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    महर्षि दुर्वासा महामुनि अत्रि एवं सती अनुसूया के कनिष्ठ पुत्र थे जो भगवान रूद्र के अंश से जन्मे थे। वे चन्द्र एवं दत्तात्रेय के भाई थे और पूरे विश्व में अपने क्रोध के कारण प्रसिद्ध थे। श्राप तो जैसे इनके जिह्वा के नोक पर रखा रहता था। पृथ्वी पर ना जाने कितने मनुष्य उनके क्रोध और श्राप का भाजन बनें किन्तु इन्होने स्वयं देवराज इंद्र को भी नहीं छोड़ा।

    एक बार ऋषि दुर्वासा वन में भ्रमण करने को निकले। अचानक उन्हें एक बहुत तेज व अनोखी सुगंध का अनुभव हुआ। वो सुगंध इतनी अच्छी थी कि दुर्वासा स्वयं को रोक नहीं पाए एवं सुगंध की दिशा में बढ़ने लगे। थोड़ी दूर चलने के पश्चात उन्होंने देखा कि एक बहुत रूपवती नारी वहीं सरोवर के तट पर बैठी हुई है। उसके गले में एक अद्भभुत पुष्प हार था जो प्रकाश की भांति जगमगा रहा था और ये मनभावन सुगंध उसी हार से निकल रही थी। एक अकेली नारी को इस प्रकार वन में बैठा देख उन्हें विस्मय हुआ और वे उसके पास पहुँचे। एक जटाजूट योगी को इस प्रकार अपने पास आते देख उस कन्या ने तत्काल उठ कर उन्हें प्रणाम किया।

    दुर्वासा ने विस्मित स्वर में पूछा कि "हे देवी आप कौन है और इस घने वन में एकाकी क्या कर रही हैं?" इसपर उस कन्या ने उन्हें बताया कि उनका नाम विद्याधरी है और वे वायु की देवी हैं। दुर्वासा ने उनका अभिवादन किया और अपना परिचय देते हुए कहा कि "आपने ये जो पुष्पों की माला पहनी है वो अत्यंत दुर्लभ प्रतीत होती है। इतनी मनभावन सुगंध और इतना तेज प्रकाश तो पृथ्वी के किसी पुष्प में होना असंभव है। आपको ये पुष्पों की माला कहाँ से प्राप्त हुई?" उनके इस प्रश्न पर उस देवी ने कहा कि "आपका कथन सत्य है। ये साधारण पुष्प नहीं अपितु अति दुर्लभ पारिजात के पुष्पों की माला है जो केवल स्वर्ग लोक में ही मिलते हैं। मेरी सेवा से प्रसन्न होकर स्वयं पवनदेव ने मुझे ये अद्वितीय हार उपहार स्वरुप दिया है।" उस हार के बारे में जानने के पश्चात दुर्वासा ने उसे प्राप्त करने की इच्छा जताई जिसपर विद्याधरी सहर्ष उन्हें वो हार उपहार स्वरुप प्रदान कर अपने लोक लौट गयी। 

    कुछ समय पश्चात दुर्वासा अपने पिता एवं सप्तर्षियों से मिलने स्वर्गलोक गए जहाँ उन्हें देवराज के दर्शन हुए। ये सोच कर कि पारिजात पुष्पों का वो हार पृथ्वी पर रहने के योग्य नहीं है, दुर्वासा ने वो हार देवराज को उपहार स्वरुप दे दिया। उन्होंने सोचा कि इस अद्वितीय हार को पा कर इंद्रदेव प्रसन्न होंगे किन्तु देवराज ने उस उपहार का उपहास करना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने कहा कि "हे महर्षि। आप पृथ्वी के वासी हैं इसी कारण कदाचित आपको ये हार अद्भभुत प्रतीत हो रहा है किन्तु ये तो स्वर्ग लोक है और इस प्रकार के असंख्य पुष्प हमारे पारिजात उपवन में हैं। इसका मैं क्या करूँगा? किन्तु अब आपने मुझे उपहार स्वरुप दे ही दिया है तो मैं ये पारिजात माला ऐरावत को ही भेंट कर देता हूँ।" ये कहकर इंद्र ने वो माला ऐरावत के मस्तक पर रख दी। इस प्रकार माला रखे जानें और उसकी तीव्र गंध से ऐरावत को बड़ी असुविधा हुई और उस मादक गंध के मद में आकर ऐरावत ने उस माला को क्षत-विक्षत कर दिया। 

    अपने ही द्वारा दिए गए उपहार का स्वयं अपने ही सामने इस प्रकार अपमान होता देख कर दुर्वासा को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने क्रोधित स्वर में इंद्र से कहा "हे इंद्र! आपने अपनी सम्पदा और ऐश्वर्य के मद में मेरे द्वारा दिए गए उपहार का ऐसा अपमान किया। आप ये भी भूल गए कि उपहार का मूल्य नहीं देखा जाता और वो हमेशा अमूल्य ही होता है। मैं आपको श्राप देता हूँ कि जिस ऐश्वर्य के अभिमान में आपने मेरा इतना अपमान किया वो आपसे सदा के लिए छिन जाएगा और आपके द्वारा शासित तीनों लोक श्रीहीन हो जाएंगे।"

    इस प्रकार के श्राप को पाकर इंद्र बड़े भयभीत हुए और उन्होंने बार बार दुर्वासा से क्षमा याचना की किन्तु क्रोधित दुर्वासा ने उन्हें क्षमा नहीं किया एवं स्वर्ग लोक से प्रस्थान कर गए। उनके जाते ही इंद्र एवं अन्य देवता अपनी सारी सम्पदा खो कर श्रीहीन हो गए। जैसे ही शुक्राचार्य को ये समाचार मिला, उन्होंने दैत्यों को स्वर्ग लोक पर आक्रमण करने को कहा। दैत्यराज बलि के नेतृत्व में उन्होंने स्वर्ग लोक पर आक्रमण कर देवराज इंद्र को उनके पद से च्युत कर दिया। विवश हो इंद्र को अन्य देवों के साथ प्राण बचाने के लिए छुपना पड़ा। स्वर्ग लोक से निकले जाने के पश्चात देवराज परमपिता ब्रम्हा के पास पहुँचे और उन्हें अपनी रक्षा करने को कहा। ब्रम्हदेव ने इंद्र से कहा कि तुमने स्वयं अपने अहंकार के कारण अपनी सम्पदा को खोया है अतः अब तुम्हे अपने सामर्थ्य से उसे पुनः प्राप्त करना होगा। इसपर इंद्र ने अपनी संपत्ति को पुनः प्राप्त करने का उपाय पूछा तब ब्रम्हदेव ने नारायण के साथ परामर्श कर देवों और दानवों को समुद्र मंथन करने का सुझाव दिया जिससे उन्हें उनकी संपत्ति पुनः प्राप्त हो सके।

    मकर संक्रांति की कथा एवं उसका महत्त्व

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    सर्व-प्रथम आप सभी लोगों को मकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनायें। आज पूरा देश और कई अन्य जगह विदेशों में भी मकर संक्रांति का पर्व मनाया जा रहा है। तो आइये आज हम मकर संक्रांति का महत्व जानते हैं और समझते हैं कि ये क्यों मनाया जाता है। मकर संक्रांति से जुडी कुछ पौराणिक कथाएं भी हैं और कई ऐसे पौराणिक प्रसंग हैं जो आज के ही दिन घटित हुए थे।
    • मकर संक्रांति के दिन ही भगवान सूर्य नारायण धनु राशि को छोड़ कर मकर राशि में प्रवेश करते हैं। ऐसी मान्यता है कि आज के ही दिन सूर्यदेव अपने पुत्र शनिदेव से मिलने जाते हैं जो कि मकर राशि के स्वामी हैं। धनु और मकर राशि के इसी संयोग को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। 
    • मान्यता है कि आज के दिन ही भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर भगवान रूद्र ने देवी गंगा को अपने शीश पर धारण किया था और आज ही के दिन गंगा भगीरथ का अनुसरण करते हुए कपिल मुनि के आश्रम से होते हुए धरती पर आयी थी। इसी कारण आज के दिन गंगा स्नान, विशेषकर प्रयाग (इलाहबाद) का बड़ा महत्त्व है। माना जाता है कि आज के दिन गंगा स्नान करने वाला व्यक्ति अपने सारे पापों से मुक्त हो जाता है। हालाँकि आज के दिन स्त्रियों का स्नान वर्जित बताया गया है।
    • कहा जाता है कि आज के ही दिन यशोदा माँ ने भगवान विष्णु को अपने पुत्र के रूप में पाने के लिए व्रत किया था और भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लेकर उनकी इच्छा पूरी की। 
    • ऐसा माना जाता है कि आज ही के दिन सूर्यदेव की गति एवं ऊष्मा तिल-तिल करके बढ़ती है अतः इसी कारण आज के दिन तिल से बने मिष्ठान्न बनाने की प्रथा है। 
    • आज के दिन दान का बड़ा महत्त्व है। आज के दिन दान करने से अन्य दिनों के दान से १००० गुणा फल प्राप्त होता है। कहा जाता है कि संक्रांति के दिन सूर्यपुत्र कर्ण अपने समस्त भंडार दान के लिए खोल देता था। 
    • आज के दिन को साल का सबसे पवित्र दिन माना जाता है। कहा जाता है कि आज के दिन जिसे मृत्यु प्राप्त होती है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। आज के दिन ही पितामह भीष्म ने अपना शरीर त्यागा था। जब अर्जुन के बाणों ने उन्हें शर-शैया पर सुला दिया तो उन्होंने शरीर त्यागने से मना कर दिया क्योंकि सूर्य उस समय दक्षिणायन में था। उन्होंने सूर्यदेव के उत्तरायण में आने की प्रतीक्षा करते हुए आज ही के दिन युधिष्ठिर को अंतिम शिक्षा देने के पश्चात अपनी देह का त्याग किया था।
    इस दिन का ज्योतिष एवं वैज्ञानिक महत्त्व भी है। इसी दिन सूर्य दक्षिणायण से उत्तरायण हो जाते है। अर्थात इसी दिन सूर्य पृथ्वी के दक्षिण गोलार्ध से यात्रा करते हुए उत्तरी गोलार्ध में पहुँचते है। जब सूर्य दक्षिण गोलार्ध में रहते हैं तो दिन छोटे और अपेक्षाकृत ठन्डे होते हैं। सूर्य के उत्तरी गोलार्ध में पहुँचने के बाद धीरे धीरे दिन बड़े होते हैं और तपन थोड़ी बढ़ने लगती है। 
    कई वर्षों से मकर संक्रांति का दिन १४ जनवरी को आ रहा है इसीलिए लोगों में ये भ्रम है कि मकर संक्रांति का दिन निश्चित होता है। जबकि ऐसा नहीं होता है। आज से १००० वर्ष पहले धनु और मकर का ये संयोग ३१ दिसंबर को पड़ता था इसीलिए मकर संक्रांति भी ३१ दिसंबर को मनाई जाती थी। जैसे जैसे सूर्य की दिशा बदली, मकर संक्रांति का दिन आगे बढ़ता गया। आज से लगभग ५००० वर्ष बाद कलियुग के अंत समय ये संयोग बढ़कर फरवरी के अंत तक पहुँच जायेगा। अर्थात मकर संक्रांति तब फरवरी के अंत में मनाई जाएगी। साल २०१२ में धनु और मकर राशि का ये संयोग बिलकुल मध्यरात्रि में हुआ था इसी कारण उस वर्ष मकर संक्रांति १५ जनवरी को मनाई गयी थी। 

    मकर संक्रांति को पुरे भारत के विभिन्न भागों में अलग-अलग नामों से जाना और मनाया जाता है। तिल और गुड़ से बने मिष्टान्न विशेषकर तिलकुट, दही-चूड़ा, स्वादिष्ट सब्जी और पतंग उड़ाने की भी विशेष प्रथा है। अधिकतर राज्यों में इसे मकर संक्रांति के नाम से ही बनाया जाता है किन्तु कुछ राज्यों में अलग नाम भी हैं। विशेषकर पंजाब और हरियाणा में इसे एक दिन पहले, १३ फरवरी को "लोहड़ी"के नाम से मनाया जाता है।
    • मकर संक्रान्ति:छत्तीसगढ़, गोआ, ओड़ीसा, हरियाणा, बिहार, झारखण्ड, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, राजस्थान, सिक्किम, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पश्चिम बंगाल, और जम्मू
    • ताइ पोंगल, उझवर तिरुनल:तमिलनाडु
    • उत्तरायण:गुजरात, उत्तराखण्ड
    • माघी:हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब
    • भोगाली बिहु:असम
    • शिशुर सेंक्रात:कश्मीर घाटी
    • खिचड़ी:उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार
    • पौष संक्रान्ति:पश्चिम बंगाल
    • मकर संक्रमण:कर्नाटक
    यही नहीं, मकर संक्रांति को भारत से बाहर भी अन्य नामों से मनाया जाता है। नेपाल में विशेषकर इसे धूम-धाम से मनाया जाता है।*
    • बांग्लादेश: पौष संक्रान्ति
    • नेपाल:माघे सङ्क्रान्ति या 'माघी सङ्क्रान्ति' 'खिचड़ी सङ्क्रान्ति'
    • थाईलैण्ड: सोङ्गकरन
    • लाओस:पि मा लाओ
    • म्यांमार:थिङ्यान
    • कम्बोडिया:मोहा संगक्रान
    • श्री लंका:पोंगल, उझवर तिरुनल
    *अन्य राज्यों एवं देशों में अलग-अलग नाम का सन्दर्भ विकिपीडिआ से लिया गया है।

    पौराणिक काल में धन/संख्या की मापन विधि

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    महाभारत में एक प्रसंग आता है जब जुए में युधिष्ठिर हार रहे होते हैं तब दुर्योधन उनसे व्यंग करते हुए पूछता है कि क्या अब आपके पास धन ख़त्म हो गया? तब युधिष्ठिर क्रोधित होते हुए अपने पास संचित धन की व्याख्या करते हैं। जहाँ दुर्योधन ने अपने पास संचित धन की संख्या "पद्म" बताई, वहीं युधिष्ठिर कहते हैं कि उनके पास "परार्ध" से भी अधिक धन है। आज के युग में हम धन को मिलियन, बिलियन, ट्रिलियन आदि में मापते हैं किन्तु प्राचीन काल में धन के मापन की विधि अलग थी। इनमे से कुछ जैसे इकाई, दहाई, सैकड़ा आदि तो हमने अपने विद्यालय के दिनों में पढ़ा है किन्तु अन्य कई परिमाण है जिसके बारे में हम नहीं जानते। तो आइये, इस लेख में हम उन परिमाणों के बारे में जानते हैं।

    1. इकाई            १ 
    2. दहाई             १० (१०^१)
    3. सैकड़ा            १०० (१०^२) 
    4. सहस्त्र            १००० (१०^३)
    5. दस सहस्त्र         १०००० (१०^४)
    6. लक्ष              १००००० (१०^५)
    7. दस लक्ष           १०००००० (१०^६)
    8. करोड़             १००००००० (१०^७)
    9. दस करोड़          १०००००००० (१०^८)
    10. अरब              १००००००००० (१०^९)
    11. दस अरब           १०००००००००० (१०^१०)
    12. खर्व               १००००००००००० (१०^११)
    13. दस खर्व            १०००००००००००० (१०^१२)
    14. नील               १००००००००००००० (१०^१३)
    15. दस नील            १०००००००००००००० (१०^१४)
    16. पद्म                १००००००००००००००० (१०^१५)
    17. महापद्म              १०००००००००००००००० (१०^१६)
    18. शंख                १००००००००००००००००० (१०^१७)
    19. महाशंख             १०००००००००००००००००० (१०^१८)
    20. अन्त्या               १००००००००००००००००००० (१०^१९)
    21. महाअन्त्या             १०००००००००००००००००००० (१०^२०)
    22. मध्या                १००००००००००००००००००००० (१०^२१)
    23. महामध्या              १०००००००००००००००००००००० (१०^२२)
    24. परार्ध                १००००००००००००००००००००००० (१०^२३)
    25. महापरार्ध              १०००००००००००००००००००००००० (१०^२४)
    26. धून                  १००००००००००००००००००००००००० (१०^२५)
    27. महाधून               १०००००००००००००००००००००००००० (१०^२६)
    28. अशोहिणी              १००००००००००००००००००००००००००० (१०^२७)
    29. महाअशोहिणी            १०००००००००००००००००००००००००००० (१०^२८)

    वसन्त पञ्चमी का माहात्म्य

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    सर्वप्रथम आप सभी को वसन्त पञ्चमी की हार्दिक शुभकामनाएं। वसन्त पञ्चमी भारत का एक प्रमुख त्यौहार है जो हर वर्ष माघ महीने की पाँचवी तिथि को मनाया जाता है। इसी कारण इस त्यौहार को वसन्त पञ्चमी के नाम से जाना जाता है। ये तिथि आम तौर पर जनवरी या फरवरी में पड़ती है। इसी तिथि से शिशिर ऋतु का प्रस्थान और वसन्त ऋतु का आगमन माना जाता है जो भारत में सर्वाधिक प्रिय ऋतु मानी जाती है। ये त्यौहार मुख्य रूप से महादेवी सरस्वती को समर्पित है तथा कहीं-कहीं इसे प्रेम स्वरुप कामदेव और रति को भी समर्पित किया जाता है। 

    पुराणों के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में परमपिता ब्रम्हा ने भगवान विष्णु की तपस्या कर उनका साक्षात्कार किया। फिर उन्ही की इच्छा से ब्रम्हदेव ने पूरी सृष्टि की संरचना की। अपनी रचना के पश्चात भी वे संतुष्ट नहीं थे। उन्हें अपनी रचना में पूर्णता का अनुभव नहीं हो रहा था क्युकि उन्हें अपनी रचना में चेतना की जगह जड़ता की अधिकता प्रतीत हो रही थी। ऐसा देख कर उन्होंने पुनः भगवान विष्णु का ध्यान किया और उन्हें अपनी समस्या बताई। नारायण ने उन्हें सुझाव दिया कि कोई ऐसी रचना करें जिससे सृष्टि में चेतना का प्रादुर्भाव हो। इससे प्रेरित होकर ब्रम्हदेव ने अपने कमण्डल से जल छिड़का और अपने मन में एक योगशक्ति का आह्वान किया। उसी समय उनके मानस से एक अत्यंत सुन्दर एवं अलौकिक नारी का प्रादुर्भाव हुआ जिन्होंने अपने हाथ में वीणा को धारण किया हुआ था। उन्होंने आकर ब्रम्हदेव को प्रणाम किया तो वे उनकी सुंदरता देख मुग्ध हो गए और स्वयं में एक प्रकार की जड़ता का अनुभव करने लगे। उन्होंने उस देवी से उनके अदभुत वाद्य को बजाने का अनुरोध किया। ब्रम्हदेव की इच्छा से वो देवी वीणा बजाने लगीं और उसके मधुर ध्वनि से समस्त जगत को चेतना की प्राप्ति होने लगी। जो कुछ भी जड़ अवस्था में था वो चेतन हो गया। जल एवं वायु को गति एवं चराचर जीवों को ध्वनि प्राप्त हो गयी। चूँकि उस देवी के संगीत से समस्त जगत को स्वर की प्राप्ति हुई थी, इसी कारण ब्रम्हा ने उन्हें "सरस्वती" नाम दिया और उन्हें संगीत और समस्त प्रकार के विद्या एवं ज्ञान की अधिष्ठात्री घोषित किया। उसी समय उनके स्वर से सृष्टि में काम का प्रवाह भी हुआ और ब्रम्हा ने उन्हें अपनी भार्या का स्थान दिया।


    एक कथा के अनुसार द्वापर युग में देवी सरस्वती की कृपा से श्रीकृष्ण ने केवल ६४ दिनों में समस्त ६४ विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया। इसी से प्रसन्न होकर उन्होंने देवी सरस्वती को कोई वर देने की इच्छा जताई। सरस्वती के स्वीकृति के पश्चात श्रीकृष्ण ने उन्हें ये वर दिया कि पृथ्वी पर उनकी पूजा की जाएगी और तभी से वसन्त पञ्चमी का पर्व मनाया जा रहा है। ये भी मान्यता है कि देवी पार्वती ने महादेव का व्रत तोड़ने के लिए देवी सरस्वती की सहायता माँगी। उनकी प्रार्थना स्वीकार कर देवी सरस्वती की ही प्रेरणा से कामदेव ने वसन्त पञ्चमी के दिन ही महादेव पर अपने बाण से प्रहार किया और उनके कोप का भाजन बनें। उनकी पत्नी रति के अनुरोध पर महादेव ने ये वरदान दिया कि वसन्त पञ्चमी के दिन देवी सरस्वती के साथ कामदेव और रति की भी पूजा होगी। 

    इतिहास के अनुसार जब मुहम्मद गोरी १६ बार हरने के बाद १७ वी बार पृथ्वीराज चौहान को बंदी बनाने में सफल हुआ तो वो इन्हे सजा देने के लिए अफगान ले गया। वहाँ पृथ्वीराज की आँखें फोड़ दी गयी और अंतिम बार उनके शब्दवेधी बाण का कमाल देखने के लिए उनके हाथ में धनुष-बाण दिया गया। चंदरबाई ने गोरी को अपने सिंहासन पर बैठ घंटे पर चोट करने को कहा और साथ ही साथ संकेत से छंद के रूप में पृथ्वीराज को भी बता दिया कि गोरी ही घंटे पर चोट कर रहा है। जैसे ही गोरी ने घंटे की ध्वनि की, पृथ्वीराज का सटीक बाण उनकी छाती में जा धँसा। इसके बाद चंदरबाई और पृथ्वीराज ने एक दूसरे के प्राण लेकर आत्म बलिदान दे दिया। ११९२ को ये ऐतिहासिक घटना वसन्त पञ्चमी के दिन ही घटी थी। 

    इतिहास में वीर हकीकत राय का भी जिक्र है जो लाहौर का रहने वाला था। एक बार मदरसे में अन्य मुस्लिम छात्रों ने देवी सरस्वती को अपशब्द कहा जिस कारण उसकी अन्य बच्चों के साथ झड़प हो गयी। शिक्षक के वापस आने पर बच्चों ने झूट बोल दिया कि हकीकत राय ने बीबी फातिमा को अपशब्द कहा है। फलस्वरूप काजी को शिकायत करने पर उसे मृत्युदंड की सजा दी गयी। सजा का दिन वसन्त पञ्चमी को ही निर्धारित किया गया। अंत समय में हकीकत राय से कहा गया कि अगर वो इस्लाम कबूल कर ले तो उसे क्षमा कर दिया जाएगा पर उसने साफ़ मन कर दिया। सन १७३४ को वसन्त पञ्चमी के दिन ही उसे फांसी दे दी गयी। आजदी से पहले तक उसकी समाधि पर वसन्त पञ्चमी के दिन हिन्दू-मुस्लमान दोनों इकठा हो भाईचारे की मिसाल पेश किया करते थे। आज भी लाहौर में वसन्त पञ्चमी के दिन हकीकत की याद में पतंग उड़ने का रिवाज है।

    आज का दिन किसी भी विद्यार्थी के लिए बड़ा खास होता है क्यूंकि ऐसी मान्यता है कि आज के दिन जो भी देवी सरस्वती से विद्या का दान माँगता है उसे वो अवश्य प्राप्त होता है। आज के दिन देवी सरस्वती के ११ नामों को लेने से भी कई गुणा अधिक फल प्राप्त होता है। वो ११ नाम हैं - शारदा, सरस्वती, भारती, वीणावादिनी, बुद्धिदायिनी, हंससुवाहिनी, वागीश्वरी, कौमुदिप्रयुक्ता, ख्यात्वा, चंद्रकांताएवं भुवनेश्वरी। 

    भारत के अतिरिक्त अन्य कई देशों में भी अन्य नामों से वसन्त पञ्चमी का त्यौहार मनाया जाता है -
    • बर्मा:थुयथदी, टिपिटक मेदा
    • चीन: बियानचाइत्यान
    • जापान:बेंजाइतेन
    • थाईलैंड:सुरसवदी
    आइये इस लेख का अंत एक श्लोक से करते हैं। ऋग्वेद में देवी सरस्वती के बारे में कहा गया है-

    प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।

    अर्थात ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं।

    दशावतार और डार्विन के सिद्धांत में समानता

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    हम सभी भगवान् विष्णु के दस अवतारों के बारे में जानते हैं (आप उसके बारे में विस्तार से यहाँपढ़ सकते हैं)। लेकिन क्या आप जानते हैं कि भगवान विष्णु के ये दस अवतार वैज्ञानिक दृष्टि से भी आश्चर्यजनक रूप से भी प्रकृति के विकास-क्रम से बिलकुल मेल खाती है। डार्विन ने सन १८६० में पृथ्वी पर विकास-क्रम का सिद्धांत दिया था जिसमे उन्होंने ये बताया था कि पृथ्वी पर विभ्भिन्न प्राणी किस क्रम में आये थे। आज इतने वर्षों बाद भी डार्विन का सिद्धांत प्राणी विकास-क्रम में मील का पत्थर माना जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि जो सिद्धांत डार्विन ने १९वीं सदी में दिया था वो हमारे पास सहस्त्रों वर्ष पहले से दशावतार के रूप में हैं। आज बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी हैरान हैं कि जो क्रम १५० वर्ष पहले बताया गया था, ठीक उसी क्रम में दशवतार हजारों वर्ष पूर्व हो चुका था। तो ये कहना अनुचित नहीं होगा कि दशावतार के आधार पर डार्विन ने अपना सिद्धांत दिया। हालाँकि इस लेख में हम डार्विन सभी प्राणियों का वर्णन नहीं कर सकते क्योकि वो संभव नहीं है इसलिए मुख प्राणियों का उल्लेख करेंगे। तो आइये इस आश्चर्यजनक तथ्य को जानते हैं।
    1. मत्स्य अवतार:डार्विन के अनुसार प्राणियों में सबसे पहले जलचरों की उत्पत्ति हुई थी। अगर जीवाणुओं/विषाणुओं को छोड़ दिया जाये तो मछली प्राणी-विकास क्रम में सबसे प्रथम स्थान पर थी। हालाँकि जीवाणुओं की तरह ईश्वर को भी सूक्ष्म रूप में माना जा सकता है जो उपस्थित तो हैं किन्तु हम उन्हें देख नहीं सकते। आश्चर्यजनक रूप से भगवान् विष्णु ने पहला अवतार मत्स्य अथवा मछली के रूप में लिया। 
    2. कूर्म अवतार:डार्विन के सिद्धांत के अनुसार दूसरे क्रम में उन प्राणियों और सरीसृपों अस्तित्व में आये जो जल तथा थल दोनों स्थान पर रह सकते थे, जैसे कि कछुआ, मगरमच्छ एवं सर्प। आश्चर्यजनक रूप से विष्णु ने अपना दूसरा अवतार कूर्म यानि कछुए के रूप में लिया। 
    3. वराह अवतार:डार्विन के सिद्धांत के अनुसार अगले क्रम में वो प्राणी थे जो धीरे-धीरे जल को छोड़ थल को अपना निवास स्थान बनाने लगे। थल पर जीवित रहने के लिए वे उग्र स्वाभाव के हुए और शिकार कर अपना भोजन प्राप्त करने लगे। वैसे इस समय भी जलचर उनके भोजन का प्रमुख स्रोत हुआ करते थे। आज के ज़माने में भी ध्रुवीय भालू उसका निकटतम उदाहरण हैं। यहाँ पर भी भगवान् विष्णु का अगला अवतार वराह यानि शूकर के रूप में हुआ। यहाँ तक कि कथा के अनुसार भगवान् वराह ने पृथ्वी को जल स बाहर निकाला जो डार्विन के सिद्धांत में प्राणियों के जल से भूमि पर आने का प्रतीक है। साथ ही साथ ये अवतार पिछले अवतारों से अधिक उग्र था। 
    4. नृसिंह अवतार:डार्विन का अगला क्रम मनुष्यों का विकास था किन्तु वे पूर्ण मनुष्य नहीं थे बल्कि पशु एवं मनुष्यों के मिले जुले रूप थे। स्वाभाव से अत्यधिक उग्र किन्तु पशुओं से अधिक समझदार। डार्विन के सिद्धांत में एप-मैन यानि यतिओं का उल्लेख है जो मानव और पशुओं का मिला जुला रूप था। आज के युग में भी गुर्रिले या वनमानुष उसी श्रेणी में रखे जाते हैं जो है तो पशु किन्तु मनुष्य की बुद्धि के अत्यंत निकट हैं। अगर हम विष्णु के अगले अवतार को देखें तो हमें नृसिंह अवतार पशु एवं मनुष्यों का मिले-जुले रूप में देखने को मिलता है। वे पशुओं की तरह अत्यंत उग्र हैं किन्तु प्रह्लाद की प्रार्थना पर मनुष्यों की तरह शांत भी हो जाते हैं। कई देशों में आदम-भेड़िये की कथा भी प्रचलित है। 
    5. वामन अवतार:डार्विन के अगले क्रम में पशु-मानव धीरे-धीरे पूर्ण मानव की तरह विकसित होते हैं किन्तु उनका पूर्ण विकास नहीं होता। डार्विन इस "निएंडरथल" यानि पुरातन मनुष्य कहते हैं जिनकी ऊंचाई लगभग आधे से २ फुट बताई गयी है। इसे हम मनुष्य क्रम का पहला चरण कह सकते हैं। आश्चर्यजनक रूप से अगर हम विष्णु के अगले अवतार को देखें तो वे वामन अर्थात बौने के रूप में आये। ये भी डार्विन के इस चरण से पूर्णतः मेल खाता है। 
    6. परशुराम अवतार:डार्विन के अनुसार अगला चरण पहले आधुनिक मनुष्यों का है जो लौह-कालीन युग में थे। इन्हे भी पूर्ण रूपेण सभ्य नहीं माना जाता। मार-काट करना उनका स्वाभाव था और उनके पास पत्थरों और धातुओं से बने हथियार होते थे। विष्णु के अगले अवतार परशुराम भी इसके बहुत निकट है। वे भी परशु धारण करते हैं और क्रोधित इतने कि २१ बार पृथ्वी से क्षत्रियों का विनाश कर देते हैं। परशुराम से ही वास्तव में डार्विन के मनुष्य क्रम की शुरुआत होती है। 
    7. राम अवतार:डार्विन के अनुसार अभी का जो मानव है अब एक प्राणी के रूप में उससे अधिक विकसित होना संभव नहीं है किन्तु सामाजिक रूप से अब हम अपने आप को विकसित कर सकते हैं। अगला प्राणिरूप विकास तभी संभव है जब ब्रम्हांड में कुछ खगोलीय बदलाव हो। विष्णु का अगले अवतार श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम माना जाता है। ये ना केवल सम्पूर्ण मानव है बल्कि समाज की प्रत्येक मर्यादा को वहन करने वाले हैं। भगवान् विष्णु के सभी अवतारों में श्रीराम से अधिक सभ्य, संतुलित एवं मर्यादित कोई और अवतार नहीं है। 
    8. कृष्ण अवतार:इसे परमावतार माना जाता है। जहाँ राम हमेशा से अपने सद्गुणों के कारण विख्यात थे, कृष्ण में हर प्रकार के मानुषिक गुण के साथ-साथ दोष भी थे। आजकल के राजनीतितिक परिवेश में कृष्ण एक कुशल राजनितिक के रूप में बिलकुल फिट बैठते हैं। ये डार्विन के सामाजिक विकास-क्रम का एक उत्तम उदाहरण है। जहाँ राम ने किसी प्रकार का छल नहीं किया, कृष्ण धर्म की विजय के लिए समस्त छल करते दीखते हैं। 
    9. बुद्ध अवतार:शांति कदाचित मनुष्य के सामाजिक विकास-क्रम का अगला पड़ाव है और बुद्धावतार मुख्य रूप से शांति का पक्षधर है। साथ ही साथ ये अवतार ही एक ऐसा अवतार है जो अमानवीय या अतिमानवीय घटनाओं से बहुत दूर है। 
    10. कल्कि अवतार:डार्विन के अनुसार विकास का चक्र के निश्चित समय के बाद अपने आप को दोहराता है। कल्कि अवतार कदाचित उसी का प्रतीक होगा जब भगवान् विष्णु का ये अवतार पाप में लिप्त प्राणियों को पुण्य की ओर तथा कलियुग को पुनः सतयुग की ओर धकेलेगा। 
    अभी तक आपको आश्चर्य अवश्य हुआ होगा किन्तु अब अंतिम आश्चर्यजनक चीज बताता हूँ। डार्विन का सिद्धांत मुख्यतः ४ भाग में बंटा है - पशु, पशुवत, अपूर्ण प्राणी एवं पूर्ण प्राणी। ठीक इसी प्रकार दशावतार भी विभाजित है। मत्स्य, कूर्म एवं वराह पशुरूपी अवतार हैं, नृसिंह पशुवत अर्थात पशु एवं मनुष्य के मिले जुले रूप हैं, वामन और कुछ हद तक परशुराम अपूर्ण तथा राम, कृष्ण एवं बुद्ध पूर्ण पुरुष अवतार हैं। यही नहीं ये सारे अवतार चार युगों में भी बटें हैं। मत्स्य, कूर्म, वराह एवं नृसिंह सतयुग में, वामन, परशुराम, श्रीराम त्रेतायुग में, श्रीकृष्ण द्वापरयुग में तथा बुद्ध एवं कल्कि कलियुग में अवतरित हैं। है ना आश्चर्यजनक!
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