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सप्तर्षि

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सप्तर्षि-मण्डल आकाश में सुप्रसिद्ध ज्योतिर्मण्डलों में है। इसके अधिष्ठाता ऋषिगण लोक में ज्ञान-परम्परा को सुरक्षित रखते हैं। अधिकारी जिज्ञासु को प्रत्यक्ष या परोक्ष, जैसा वह अधिकारी हो, तत्त्वज्ञान की ओर उन्मुख करके मुक्ति-पथ में लगाते हैं। इन ऋषियों में से सब कल्पान्त-चिरजीवी, मुक्तात्मा और दिव्यदेहधारी हैं। इसके अतिरिक्त सप्तऋषि से उन सात तारों का बोध होता है, जो ध्रुवतारा की परिक्रमा करते हैं। प्रत्येक मन्वन्तर में इनमें से कुछ ऋषि परिवर्तित होते रहते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार इनकी नामावली इस प्रकार है: 
  • प्रथम स्वायम्भुव मन्वन्तर में: मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वशिष्ठ।
  • द्वितीय स्वारोचिष मन्वन्तर में:ऊर्ज्ज, स्तम्भ, वात, प्राण, पृषभ, निरय और परीवान।
  • तृतीय उत्तम मन्वन्तर में:महर्षि वशिष्ठ के सातों पुत्र।
  • चतुर्थ तामस मन्वन्तर में:ज्योतिर्धामा, पृथु, काव्य, चैत्र, अग्नि, वनक और पीवर।
  • पंचम रैवत मन्वन्तर में:हिरण्यरोमा, वेदश्री, ऊर्ध्वबाहु, वेदबाहु, सुधामा, पर्जन्य और महामुनि।
  • षष्ठ चाक्षुष मन्वन्तर में:सुमेधा, विरजा, हविष्मान, उतम, मधु, अतिनामा और सहिष्णु।
  • वर्तमान सप्तम वैवस्वत मन्वन्तर में:कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भारद्वाज।
  • अष्टम सावर्णिक मन्वन्तर में:गालव, दीप्तिमान, परशुराम, अश्वत्थामा, कृप, ऋष्यश्रृंग और व्यास।
  • नवम दक्षसावर्णि मन्वन्तर में:मेधातिथि, वसु, सत्य, ज्योतिष्मान, द्युतिमान, सबन और भव्य।
  • दशम ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर में:तपोमूर्ति, हविष्मान, सुकृत, सत्य, नाभाग, अप्रतिमौजा और सत्यकेतु।
  • एकादश धर्मसावर्णि मन्वन्तर में:वपुष्मान्, घृणि, आरूणि, नि:स्वर, हविष्मान्, अनघ, और अग्नितेजा।
  • द्वादश रुद्रसावर्णि मन्वन्तर में:तपोद्युति, तपस्वी, सुतपा, तपोमूर्ति, तपोनिधि, तपोरति और तपोधृति।
  • त्रयोदश देवसावर्णि मन्वन्तर में:धृतिमान्, अव्यय, तत्त्वदर्शी, निरूत्सुक, निर्मोह, सुतपा और निष्प्रकम्प।
  • चतुर्दश इन्द्रसावर्णि मन्वन्तर में:अग्नीध्र, अग्नि, बाहु, शुचि, युक्त, मागध, शुक्र और अजित।।
  • 'शतपथ ब्राह्मण'के अनुसार:गौतम, भारद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, वसिष्ठ, कश्यप और अत्रि.
  • 'महाभारत'के अनुसार:मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, पुलस्त्य और वसिष्ठ.
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जयद्रथ

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महाभारत में जयद्रथ सिंधु प्रदेश के राजा थे। जयद्रथ का विवाह कौरवों की एकमात्र बहन दुशाला से हुआ था। जयद्रथ वृह्रद्रथ के पुत्र थे। वृह्रद्रथ के यहाँ जयद्रथ का जन्म देर से हुआ था और जयद्रथ को यह वरदान प्राप्त था कि जयद्रथ का वध कोई सामान्य व्यक्ति नहीं कर पायेगा, साथ ही यह वरदान भी प्राप्त था कि जो भी जयद्रथ को मारेगा और जयद्रथ का सिर ज़मीन पर गिरायेगा, उसके सिर के हज़ारों टुकड़े हो जायेंगे। 

एक बार पाँचों पाण्डव किसी कार्यवश बाहर गये हुये थे। आश्रम में केवल द्रौपदी, उसकी एक दासी और पुरोहित धौम्य ही थे। उसी समय सिन्धु देश का राजा जयद्रथ, जो विवाह की इच्छा से शाल्व देश जा रहा था, उधर से निकला। अचानक आश्रम के द्वार पर खड़ी द्रौपदी पर उसकी द‍ृष्टि पड़ी और वह उस पर मुग्ध हो उठा। उसने अपनी सेना को वहीं रोक कर अपने मित्र कोटिकास्य से कहा, 'कोटिक! तनिक जाकर पता लगाओ कि यह सर्वांग सुन्दरी कौन है? यदि यह स्त्री मुझे मिल जाय तो फिर मुझे विवाह के लिये शाल्व देश जाने की क्या आवश्यकता है?'मित्र की बात सुनकर कोटिकास्य द्रौपदी के पास पहुँचा और बोला, 'हे कल्याणी! आप कौन हैं? कहीं आप कोई अप्सरा या देवकन्या तो नहीं हैं?'द्रौपदी ने उत्तर दिया, 'मैं जग विख्यात पाँचों पाण्डवों की पत्‍नी द्रौपदी हूँ। मेरे पति अभी आने ही वाले हैं अतः आप लोग उनका आतिथ्य सेवा स्वीकार करके यहाँ से प्रस्थान करें। आप लोगों से प्रार्थना है कि उनके आने तक आप लोग कुटी के बाहर विश्राम करें। मैं आप लोगों के भोजन का प्रबन्ध करती हूँ।'कोटिकास्य ने जयद्रथ के पास जाकर द्रौपदी का परिचय दिया। परिचय जानने पर जयद्रथ ने द्रौपदी के पास जाकर कहा, 'हे द्रौपदी! तुम उन लोगों की पत्‍नी हो जो वन में मारे-मारे फिरते हैं और तुम्हें किसी भी प्रकार का सुख-वैभव प्रदान नहीं कर पाते। तुम पाण्डवों को त्याग कर मुझसे विवाह कर लो और सम्पूर्ण सिन्धु देश का राज्यसुख भोगो।'जयद्रथ के वचनों को सुन कर द्रौपदी ने उसे बहुत धिक्कारा किन्तु कामान्ध जयद्रध पर उसके धिक्कार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उसने द्रौपदी को शक्‍तिपूर्वक खींचकर अपने रथ में बैठा लिया। गुरु धौम्य द्रौपदी की रक्षा के लिये आये तो उसे जयद्रथ ने उसे वहीं भूमि पर पटक दिया और अपना रथ वहाँ से भगाने लगा। द्रौपदी रथ में विलाप कर रही थी और गुरु धौम्य पाण्डवों को पुकारते हुये रथ के पीछे-पीछे दौड़ रहे थे।

कुछ समय पश्‍चात जब पाण्डवगण वापस लौटे तो रोते-कलपते दासी ने उन्हें सारा वृतान्त कह सुनाया। सब कुछ जानने पर पाण्डवों ने जयद्रथ का पीछा किया और शीघ्र ही उसकी सेना सहित उसे घेर लिया। दोनों पक्षों में घोर युद्ध होने लगा। पाण्डवों के पराक्रम से जयद्रथ के सब भाई और कोटिकास्य मारे गये तथा उसकी सेना रणभूमि छोड़ कर भाग निकली। सहदेव ने द्रौपदी सहित जयद्रथ के रथ पर अधिकार जमा लिया। जयद्रथ अपनी सेना को भागती देख कर स्वयं भी पैदल ही भागने लगा। सहदेव को छोड़कर शेष पाण्डव भागते हुये जयद्रथ का पीछा करने लगे। भीम तथा अर्जुन ने लपक कर जयद्रथ को आगे से घेर लिया और उसकी चोटी पकड़ ली। फिर क्रोध में आकर भीम ने उसे पृथ्वी पर पटक दिया और लात घूँसों से उसकी मरम्मत करने लगे। जब भीम की मार से जयद्रथ अधमरा हो गया तो अर्जुन ने कहा, 'भैया भीम! इसे प्राणहीन मत करो, इसे इसके कर्मों का दण्ड हमारे बड़े भाई युधिष्ठिर देंगे।"अर्जुन के वचन सुनकर भीम ने जयद्रथ के केशों को अपने अर्द्धचन्द्राकार बाणों से मूंडकर पाँच चोटी रख दी और उसे बाँधकर युधिष्ठिर के सामने प्रस्तुत कर दिया। धर्मराज ने जयद्रथ को धिक्कारते हुये कहा,'रे दुष्ट जयद्रथ! हम चाहें तो अभी तेरा वध कर सकते हैं किन्तु बहन दुःशला के वैधव्य को ध्यान में रख कर हम ऐसा नहीं करेंगे। जा तुझे मुक्‍त किया।'यह सुनकर जयद्रथ कान्तिहीन हो, लज्जा से सिर झुकाये वहाँ से चला गया।

वहाँ से वन में जाकर जयद्रथ ने भगवान शंकर की घोर तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर शंकर जी ने उसे वर माँगने के लिये कहा। इस पर जयद्रथ बोला, 'भगवन्! मैं युद्ध में पाँचों पाण्डवों पर विजय प्राप्त करने का वर माँगता हूँ।'इस पर भगवान शंकर ने जयद्रथ से कहा, 'हे जयद्रथ! पाण्डव अजेय हैं और ऐसा होना असम्भव है। श्री कृष्ण नारायण के और अर्जुन नर के अवतार हैं। मैं अर्जुन को त्रिलोक विजय प्राप्त करने का वर एवं पाशुपात्यस्त्र पहले ही प्रदान कर चुका हूँ। हाँ, तुम अर्जुन की अनुपस्थिति में एक बार शेष पाण्डवों को अवश्य पीछे हटा सकते हो।'इतना कहकर भगवान शंकर वहाँ से अन्तर्धान हो गये और मन्दबुद्धि जयद्रथ भी अपने राज्य में वापस लौट आया।
महाभारत का भयंकर युद्ध चल रहा था। लड़ते-लड़के अर्जुन रणक्षेत्र से दूर चले गए थे। अर्जुन की अनुपस्थिति में पाण्डवों को पराजित करने के लिए द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह की रचना की। अर्जुन-पुत्र अभिमन्यु चक्रव्यूह भेदने के लिए उसमें घुस गया। उसने कुशलतापूर्वक चक्रव्यूह के छः चरण भेद लिए, लेकिन सातवें चरण में उसे दुर्योधन, जयद्रथ आदि सात महारथियों ने घेर लिया और उस पर टूट पड़े। जयद्रथ ने पीछे से निहत्थे अभिमन्यु पर जोरदार प्रहार किया। वह वार इतना तीव्र था कि अभिमन्यु उसे सहन नहीं कर सका और वीरगति को प्राप्त हो गया। अभिमन्यु की मृत्यु का समाचार सुनकर अर्जुन क्रोध से पागल हो उठा। उसने प्रतिज्ञा की कि यदि अगले दिन सूर्यास्त से पहले उसने जयद्रथ का वध नहीं किया तो वह आत्मदाह कर लेगा। जयद्रथ भयभीत होकर दुर्योधन के पास पहुँचा और अर्जुन की प्रतिज्ञा के बारे में बताया। 

जयद्रथ का वध दुर्य़ोधन उसका भय दूर करते हुए बोला-'चिंता मत करो, मित्र! मैं और सारी कौरव सेना तुम्हारी रक्षा करेंगे। अर्जुन कल तुम तक नहीं पहुँच पाएगा। उसे आत्मदाह करना पड़ेगा।'अगले दिन युद्ध शुरू हुआ। अर्जुन की आँखें जयद्रथ को ढूँढ रही थीं, किंतु वह कहीं नहीं मिला। दिन बीतने लगा। धीरे-धीरे अर्जुन की निराशा बढ़ती गई। यह देख श्रीकृष्ण बोले-'पार्थ! समय बीत रहा है और कौरव सेना ने जयद्रथ को रक्षा कवच में घेर रखा है। अतः तुम शीघ्रता से कौरव सेना का संहार करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ो।'यह सुनकर अर्जुन का उत्साह बढ़ा और वह जोश से लड़ने लगे। लेकिन जयद्रथ तक पहुँचना मुश्किल था। सन्ध्या होने वाली थी। तब श्रीकृष्ण ने अपनी माया फैला दी। इसके फलस्वरूप सूर्य बादलों में छिप गया और सन्ध्या का भ्रम उत्पन्न हो गया। ‘सन्ध्या हो गई है और अब अर्जुन को प्रतिज्ञावश आत्मदाह करना होगा।’-यह सोचकर जयद्रथ और दुर्योधन ख़ुशी से उछल पड़े। अर्जुन को आत्मदाह करते देखने के लिए जयद्रथ कौरव सेना के आगे आकर अट्टहास करने लगा। जयद्रथ को देखकर श्रीकृष्ण बोले-'पार्थ! तुम्हारा शत्रु तुम्हारे सामने खड़ा है। उठाओ अपना गांडीव और वध कर दो इसका। वह देखो अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है।'यह कहकर उन्होंने अपनी माया समेट ली। देखते-ही-देखते सूर्य बादलों से निकल आया। सबकी दृष्टि आसमान की ओर उठ गई। सूर्य अभी भी चमक रहा था। यह देख जयद्रथ और दुर्योधन के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। जयद्रथ भागने को हुआ लेकिन तब तक अर्जुन ने अपना गांडीव उठा लिया था। तभी श्रीकृष्ण चेतावनी देते हुए बोले-'हे अर्जुन! जयद्रथ के पिता ने इसे वरदान दिया था कि जो इसका मस्तक ज़मीन पर गिराएगा, उसका मस्तक भी सौ टुकड़ों में विभक्त हो जाएगा। इसलिए यदि इसका सिर ज़मीन पर गिरा तो तुम्हारे सिर के भी सौ टुकड़े हो जाएँगे। हे पार्थ! उत्तर दिशा में यहाँ से सो योजन की दूरी पर जयद्रथ का पिता तप कर रहा है। तुम इसका मस्तक ऐसे काटो कि वह इसके पिता की गोद में जाकर गिरे।'

अर्जुन ने श्रीकृष्ण की चेतावनी ध्यान से सुनी और अपनी लक्ष्य की ओर ध्यान कर बाण छोड़ दिया। उस बाण ने जयद्रथ का सिर धड़ से अलग कर दिया और उसे लेकर सीधा जयद्रथ के पिता की गोद में जाकर गिरा। जयद्रथ का पिता चौंककर उठा तो उसकी गोद में से सिर ज़मीन पर गिर गया। सिर के ज़मीन पर गिरते ही उनके सिर के भी सौ टुकड़े हो गए। इस प्रकार अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरी हुई। 
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श्री दत्तात्रेय

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ब्रह्माण्ड पुराण में वर्णित है कि सत्ययुग में गुरुपदेशपरम्परा के क्षीण एवं श्रुतियों के लुप्तप्रायहोने पर अपनी विलक्षण स्मरण-शक्ति द्वारा इनके पुनरुद्धार एवं वैदिक धर्म की पुनस्र्थापना हेतु भगवान् श्रीविष्णु दत्तात्रेय के रूप में अवतीर्ण हुए। कथानक है कि श्रीनारदजीके मुख से महासती अनसूयाके अप्रतिम सतीत्व की प्रशंसा सुनकर उमा,रमा एवं सरस्वती ने ईष्र्यावशअपने-अपने पतियोंको उनके पातिव्रत्य की परीक्षा लेने महर्षि अत्रि के आश्रम भेजा। सती शिरोमणि अनसूयाने पातिव्रत्य की अमोघ शक्ति के प्रभाव से उन साधुवेशधारीत्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु व महेश) को नवजात शिशु बनाकर वात्सल्य भाव से स्तनपान कराया और तदनन्तर तीनों देवियों की क्षमा-याचना व प्रार्थना पर उन्हें पूर्ववत् स्वरूप प्रदान कर अनुगृहीत किया। अत्रि व अनसूयाका भाव समझकर त्रिदेव ने ब्रह्मा के अंश से रजोगुणप्रधानसोम, विष्णु के अंश से सत्त्‍‌वगुणप्रधानदत्त और शंकर के अंश से तमोगुणप्रधानदुर्वासा के रूप में माता अनसूयाके पुत्र बनकर अवतार ग्रहण किए। अत्रि मुनि का पुत्र होने के कारण आत्रेय और दत्त एवं आत्रेय के संयोग से दत्तात्रेय नामकरण हुआ।

यज्ञोपवीत संस्कार के उपरान्त सोम व दुर्वासाने अपना स्वरूप एवं तेज दत्तात्रेयको प्रदान कर तपस्या के निमित्त वन-प्रस्थान किया। वे त्रिमुख, षड्भुज, भस्मभूषित अंग वाले मस्तक पर जटा एवं ग्रीवा में रुद्राक्ष माला धारण किए हैं। त्रिमूर्तिस्वरूप में उनके निचले, मध्य व ऊपरी दोनों हाथ क्रमश: ब्रह्मा, महेश एवं विष्णु के हैं। वे योगमार्गके प्रव‌र्त्तक,अवधूत विद्या के आद्य आचार्य तथा श्री विद्या के परम आचार्य हैं। इनका बीजमन्त्र द्रांहै। सिद्धावस्थामें देश व काल का बन्धन उनकी गति में बाधक नहीं बनता। वे प्रतिदिन प्रात:से लेकर रात्रिपर्यन्तलीलारूपमें विचरण करते हुए नित्य प्रात: काशी में गंगा-स्नान, कोल्हापुर में नित्य जप, माहुरीपुरमें भिक्षा ग्रहण और सह्याद्रिकी कन्दराओंमें दिगम्बर वेश में विश्राम (शयन) करते हैं। उन्होंने श्रीगणेश, कार्तिकेय, प्रह्लाद, यदु, सांकृति, अलर्क, पुरुरवा, आयु, परशुराम व कार्तवीर्यको योग एवं अध्यात्म की शिक्षा दी। त्रिमूर्ति स्वरूप भगवान् श्री दत्तात्रेय सर्वथा प्रणम्य हैं: जगदुत्पत्तिकत्र्रे चस्थितिसंहारहेतवे। भवपाशविमुक्तायदत्तात्रेयनमोऽस्तुते॥

भगवान दत्तात्रेयके अवतार-चरित्र का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका आविर्भाव सृष्टि के प्रारंभिक सत्र में ही हो गया था। ब्रह्माजीके मानसपुत्र महर्षि अत्रि इनके पिता तथा कर्दम ऋषि की कन्या और सांख्यशास्त्रके प्रवक्ता कपिलदेव की बहिन सती अनुसूयाइनकी माता थीं। भगवान दत्तात्रेयका प्रादुर्भाव महर्षि अत्रि के चरम तप का पुण्यफलतथा सती अनुसूयाके परम पतिव्रता होने का सुफल है। प्राचीन ग्रंथों में ऐसी कथा पढने को मिलती है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश जब परमसतीअनसूयाकी अत्यन्त कठोर परीक्षा लेने उनके आश्रम में पहुँचे तो माता अनुसूयाने उन्हें अपने सतीत्व के तेज से शिशु बना दिया। इसी कारण दत्तात्रेयको त्रिदेवोंकी समस्त शक्तियों से सम्पन्न माना जाता है।

श्रीमद्भागवत में महर्षि अत्रि एवं माता अनुसूयाके यहां त्रिदेवोंके अंश से तीन पुत्रों के जन्म लेने का उल्लेख मिलता है। इस पुराण के मत से ब्रह्माजीके अंश से चन्द्रमा, विष्णुजी के अंश से योगवेत्तादत्तात्रेय और महादेवजी के अंश से दुर्वासाऋषि अनुसूयामाता के गर्भ से उत्पन्न हुए लेकिन वर्तमान युग में ब्रह्मा-विष्णु-महेशात्मक त्रिमुखीदत्तात्रेयकी उपासना ही प्रचलित है। इनके तीन मुख, छह हाथ वाला त्रिदेवमयस्वरूप ही सब जगह पूजा जा रहा है। दत्तमूर्तिके पीछे एक गाय तथा इनके आगे चार कुत्ते दिखाई देते हैं। औदुंबर वृक्ष के समीप इनका निवास बताया गया है। विभिन्न मठों, आश्रमों और मंदिरों में इनके इसी प्रकार के श्रीविग्रहोंका दर्शन होता है। योगियों का ऐसा मानना है कि भगवान दत्तात्रेयप्रात:काल ब्रह्माजी के स्वरूप में, मध्याह्न के समय विष्णुजी के स्वरूप में तथा सायंकाल शंकरजी के स्वरूप में दर्शन देते हैं। तभी तो शास्त्रों में इनकी प्रशंसा में कहा गया है- आदौ ब्रह्मा मध्येविष्णुरन्तेदेव: सदाशिव:।

तन्त्रशास्त्रके मूल ग्रन्थ रुद्रयामल के हिमवत् खण्ड में शिव-पार्वती के संवाद के माध्यम से श्रीदत्तात्रेयके वज्रकवचका वर्णन उपलब्ध होता है। इसका पाठ करने से असाध्य कार्य भी सिद्ध हो जाते हैं तथा सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। इस कवच का अनुष्ठान कभी भी निष्फल नहीं होता। इस कवच से यह रहस्योद्घाटनभी होता है कि भगवान दत्तात्रेयस्मर्तृगामीहैं। यह अपने भक्त के स्मरण करने पर तत्काल उसकी सहायता करते हैं। ऐसी मान्यता है कि ये नित्य प्रात:काशी में गंगाजीमें स्नान करते हैं। इसी कारण काशी के मणिकर्णिकाघाट की दत्तपादुकाइनके भक्तों के लिये पूजनीय स्थान है। वे पूर्ण जीवन्मुक्त हैं। इनकी आराधना से सब पापों का नाश हो जाता है। ये भोग और मोक्ष सब कुछ देने में समर्थ हैं।

प्राचीनकाल से ही सद्गुरु भगवान दत्तात्रेयने अनेक ऋषि-मुनियों तथा विभिन्न सम्प्रदायों के प्रवर्तक आचार्यो को सद्ज्ञान का उपदेश देकर कृतार्थ किया है। इन्होंने परशुरामजीको श्रीविद्या-मंत्र प्रदान किया था। त्रिपुरारहस्य में दत्त-भार्गव-संवाद के रूप में अध्यात्म के गूढ रहस्यों का उपदेश मिलता है। ऐसा भी कहा जाता है कि शिवपुत्रकार्तिकेय को दत्तात्रेयजीने अनेक विद्याएं प्रदान की थीं। भक्त प्रह्लाद को अनासक्ति-योग का उपदेश देकर उन्हें अच्छा राजा बनाने का श्रेय इनको ही जाता है। सांकृति-मुनिको अवधूत मार्ग इन्होंने ही दिखाया। कार्तवीर्यार्जुनको तन्त्रविद्याएवं नार्गार्जुनको रसायन विद्या इनकी कृपा से ही प्राप्त हुई थी। गुरु गोरखनाथ को आसन, प्राणायाम, मुद्रा और समाधि-चतुरंग योग का मार्ग भगवान दत्तात्रेयने ही बताया था। परम दयालु भक्तवत्सल भगवान दत्तात्रेयआज भी अपने शरणागत का मार्गदर्शन करते हैं और सारे संकट दूर करते हैं। मार्गशीर्ष-पूर्णिमा इनकी प्राकट्य तिथि होने से हमें अंधकार से प्रकाश में आने का सुअवसर प्रदान करती है।
आभारी जागरण

|| एकश्लोकी रामायण ||

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आदौ राम तपोवनादि गमनं, हत्वा मृगं कांचनं

वैदेही हरणं, जटायु मरणं, सुग्रीव संभाषणं

बाली निर्दलं, समुन्द्र तरणं, लंकापुरी दाहनं

पश्चाद्रावण-कुम्भकरण हननं, एतद्धि रामायणं

उद्धव

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भागवत के अनुसार श्री कृष्ण के प्रिय सखा और साक्षात बृहस्पति के शिष्य महामतिमान उद्धव वृष्णिवंशीय यादवों के माननीय मन्त्री थे. उनके पिता का नाम उपंग कहा गया है। कहीं-कहीं उन्हें वसुदेव के भाई देवभाग का पुत्र, अत: श्री कृष्ण का चचेरा भाई भी बताया गया है। एक अन्य मत के अनुसार ये सत्यक के पुत्र तथा कृष्ण के मामा कहे गये हैं।

मथुरा प्रवास में जब श्रीकृष्ण को अपने माता-पिता तथा गोपियों के विरह-दु:ख का स्मरण होता है, तो वे उद्धव को नन्द के गोकुल भेजते हैं तथा माता-पिता को प्रसन्न करने तथा गोपियों के वियोग-ताप को शान्त करने का आदेश देते हैं। उद्धव सहर्ष कृष्ण का सन्देश लेकर ब्रज जाते हैं और नन्दादि गोपों तथा गोपियों को प्रसन्न करते हैं। कृष्ण के प्रति गोपियों के कान्ता भाव के अनन्य अनुराग को प्रत्यक्ष देखकर उद्धव अत्यन्त प्रभावित होते हैं, वे कृष्ण का यह सन्देश सुनाते हैं कि तुम्हें मेरा वियोग कभी नहीं हो सकता, क्योंकि मैं आत्मरूप हूँ, सदैव तुम्हारे पास हूँ। मैं तुमसे दूर इसलिए हूँ कि तुम सदैव मेरे ध्यान में लीन रहो। तुम सब वासनाओं से शून्य शुद्ध मन से मुझमें अनुरक्त रहकर मेरा ध्यान करने में शीघ्र ही मुझे प्राप्त करोगी।

उद्धव जी वृष्णवंशियों में एक प्रधान पुरुष थे। ये साक्षात बृहस्पतिजी के शिष्य और परम बुद्धिमान थे। मथुरा आने पर भगवान श्रीकृष्ण ने इन्हें अपना मन्त्री और अन्तरंग सखा बना लिया।

जब उद्धव जी ब्रज में पहुँचे, तब उनसे मिलकर नन्दबाबा को विशेष प्रसन्नता हुई। उन्होंने उनको गले लगाकर अपना स्नेह प्रदर्शित किया। आतिथ्य-सत्कार के बाद नन्दबाबा ने उनसे वसुदेव-देवकी तथा श्रीकृष्ण-बलराम का कुशल-क्षेम पूछा। उद्धव जी नन्दबाबा और यशोदा मैया के हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति दृढ़ अनुराग का दर्शन कर आनन्द मग्न हो गये। जब गोपियों को ज्ञात हुआ कि उद्धव जी भगवान श्री कृष्ण का संदेश लेकर आये हैं, तब उन्होंने एकान्त में मिलने पर उनसे श्यामसुन्दर का समाचार पूछा। उद्धव जी ने कहा- 'गोपियो! भगवान श्री कृष्ण सर्वव्यापी हैं। वे तुम्हारे हृदय तथा समस्त जड़-चेतन में व्याप्त हैं। उनसे तुम्हारा वियोग कभी हो ही नहीं सकता। उनमें भगवद बुद्धि करके तुम्हें सर्वत्र व्यापक श्री कृष्ण का साक्षात्कार करना चाहिये।'

प्रियतम का यह सन्देश सुनकर गोपियों को प्रसन्नता हुई तथा उन्हें शुद्ध ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने प्रेम विह्वल होकर कृष्ण के मनोहर रूप और ललित लीलाओं का स्मरण करते हुए अपनी घोर वियोग-व्यथा प्रकट की तथा भावातिरेक की स्थिति में कृष्ण से ब्रज के उद्धार की दीन प्रार्थना की। परन्तु श्री कृष्ण का सन्देश सुनकर उनका विरह ताप शान्त हो गया। उन्होंने श्री कृष्ण भगवान को इन्द्रियों का साक्षी परमात्मा जानकर उद्धव का भली-भाँति पूजन और आदर-सत्कार किया। उद्धव कई महीने तक गोपियों का शोक-नाश करते हुए ब्रज में रहे।

गोपियों ने कहा-'उद्धवजी! हम जानती हैं कि संसार में किसी की आशा न रखना ही सबसे बड़ा सुख है, फिर भी हम श्री कृष्ण के लौटने की आशा छोड़ने में असमर्थ हैं। उनके शुभागमन की आशा ही तो हमारा जीवन है। यहाँ का एक-एक प्रदेश, एक-एक धूलिकण श्यामसुन्दर के चरणचिह्नों से चिह्नित है। हम किसी प्रकार मरकर भी उन्हें नहीं भूल सकती हैं।'गोपियों के अलौकिक प्रेम को देखकर उद्धव जी के ज्ञान का अहंकार गल गया।

वे कहने लगे- 'मैं तो इन गोप कुमारियों की चरण रज की वन्दना करता हूँ। इनके द्वारा गायी गयी श्री हरिकथा तीनों लोकों को पवित्र करती है। पृथ्वी पर जन्म लेना तो इन गोपांगनाओं का ही सार्थक है। मेरी तो प्रबल इच्छा है कि मैं इस ब्रज में कोई वृक्ष, लता अथवा तृण बन जाऊँ, जिससे इन गोपियों की पदधूलि मुझे पवित्र करती रहे। गोपियों की कृष्णाभक्ति से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने गोपियों की चरण रज की वन्दना की तथा इच्छा प्रकट की कि मैं अगले जन्म में गोपियों की चरण रज से पवित्र वृन्दावन की लता, ओषध, झाड़ी आदि बनूँ। इस प्रकार कृष्ण के प्रति ब्रजवासियों के प्रेम की सराहना करते हुए तथा नन्दादि, गोप तथा गोपियों से कृष्ण के लिए अनेक भेंट लेकर वे मथुरा लौट आये।

श्रीमद भागवत के अतिरिक्त गोपाल कृष्ण की लीला के वियोग-पक्ष का विस्तृत वर्णन अन्य पुराणों में नहीं मिलता। ब्रह्मवैवर्त में यद्यपि उद्धव के ब्रज भेजे जाने का प्रसंग आया है * परन्तु इस प्रसंग में भी प्राय: एकान्तत: राधा की विरह-व्याकुलता की ही प्रधानता है, उद्धव उन्हीं के प्रेम से प्रभावित होकर उन्हें सान्त्वना देने में प्रयत्नशील दिखाये गये हैं। वे राधा की माता-सदृश स्तुति करते हैं, उनकी मूर्च्छा दूर करने के उपाय करते हैं और अन्त में उन्हें कृष्ण का मिलन का आश्वासन देकर मथुरा लौटते हैं तथा कृष्ण को शीघ्र गोकुल जाने के लिए प्रेरित करते हैं। ब्रह्म वैवर्त में वियोग के वर्णन भी विलासोन्मुख हैं, अत: इस प्रसंग में उद्धव के व्यक्तित्व की कोई विशेषता उभरती नहीं दिखायी देती।

हिन्दी कृष्ण काव्य के प्रथम गायक विद्यापति ने यद्यपि विरह का विशद वर्णन किया है, परन्तु उसमें उद्धव के प्रसंग को स्थान नहीं मिला, केवल एक-आधा पद में उद्धव का नाम मात्र आया है जहाँ विरह-विह्वल राधा को इंगितकर सखी कहती है-"हे उद्धव, तू तुरन्त मथुरा जा और कह कि चन्द्रवदनी अब बचेगी नहीं, उसका वध किसे लगेगा?"इस एक सन्दर्भ से ही उद्धव के भागवत से भिन्न व्यक्तित्व की सूचना मिलती है। वस्तुत: कृष्ण-कथा लोक-विश्रुत रूप में उद्धव कृष्ण और गोपियों अथवा कृष्ण और राधा के बीच प्रेम सन्देश-वाहक रहे हैं। हिन्दी कृष्ण भक्ति-काव्य में भी उन्हें इसी रूप में ग्रहण किया गया, यद्यपि हिन्दी कृष्ण भक्ति-काव्य का प्रधान स्रोत और उपजीव्य भागवत ही था।

भक्त कवियों में सूरदास ने ही उद्धव सम्बन्धी प्रसंग का सम्यक रूप से विस्तृत वर्णन किया हैं उन्होंने वियोग का मार्मिक चित्रण करने के साथ इस प्रसंग के माध्यम से भक्ति के स्वत: पूर्ण ऐकान्तिक स्वरूप को स्पष्ट करने तथा उसकी महत्ता प्रतिपादित करने के लिए इतर साधनों-वैराग्य, योग, जप-तप कर्मकाण्ड आदि की हीनता प्रमाणित की है। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने उद्धव के व्यक्तित्व का जो नव निर्माण किया, वही अद्यावधि हिन्दी कृष्ण-काव्य की स्वीकृत परम्परा में सुरक्षित है। सूर के उद्धव स्वयं कृष्ण के शब्दों में काठ की भाँति निष्ठुर, प्रेमभजन से सर्वथा शून्य, अद्वैतदर्शी, 'निठुर जोगी जंग'और 'भुरंग'सखा हैं। वे निर्गुण का व्रत लिए हुए हैं, कृष्ण को 'त्रिगुण तन'समझते हैं तथा ब्रह्म को उनसे भिन्न मानते हैं, योग की बातें करते हैं तथा प्रेम की बातें सुनकर विपरीत बोलते हैं। वे अत्यन्त दम्भी, पाखण्डी और अहंकारी है। कृष्ण उन्हें सीधे मार्ग पर लाने के लिए उनका अद्वैतवादियों, निर्गुणवादियों, अलखवादी योगियों जैसा अभिमान चूर करके प्रेमभक्ति में दीक्षित करने के उद्देश्य से ही छल करके ब्रज भेजते हैं।

ब्रज की गोपियाँ उनके 'ज्ञान'की धज्जियाँ उड़ा देती हैं तथा सिद्ध कर देती हैं कि प्रेम में शून्य होने के कारण गम्भीर पांडित्य एक दुर्वह बोझ के सदृश है, वे वस्तुत: ज्ञानी नहीं, महामूर्ख हैं, क्योंकि वे अनपढ़ गँवार, ग्रामीण युवतियों को योग सिखाने का हास्यास्पद प्रयत्न करने आये हैं। सूरदास ने अपने समय के भक्ति-बाह्य सभी मतमतान्तरों के प्रतिनिधित्व का दायित्व उद्धव पर लाद दिया और अन्त में उद्धव को प्रेमभक्ति का यहाँ तक सर्मथक बना दिया है कि मथुरा लौटकर वे स्वयं श्रीकृष्ण की निष्ठुरता की आलोचना करने लगते हैं तथा उनसे ब्रजवासियों के विरह-दु:ख दूर करने की प्रार्थना करते हैं।

श्रीमद्भागवत के उद्धव के व्यक्तिव को पुन: लोक-विश्रुत कृष्ण-कथा की ओर किंचित मोड़ देकर सूरदास ने प्रेमदूत के माध्यम से जहाँ एक ओर अत्यन्त व्यंजनापूर्ण प्रेम विरह काव्य की रचना की है, वहाँ दूसरी ओर भक्ति मार्ग की सर्वश्रेष्ठता सिद्ध करने में अनुपम सफलता प्राप्त की है। सूरसागर के इस प्रसंग में साढ़े सात सौ पद हैं।

सूरदास के समकालीन अष्टछाप के अन्य कवियों में नंददास को छोड़कर सभी ने सूर के ही आधार पर उद्धव सम्बन्धी प्रसंग पर स्फुट रचना की है, अत: उनके द्वारा उद्धव के चरित्र-चित्रण में कोई नवीनता नहीं मिलती। केवल नन्ददास ने अपने 'भँवरगीत'में उद्धव को एक अद्वैत वेदान्त के सर्मथक ज्ञानमार्गी पण्डित के रूप में उपस्थित किया है जो न केवल गोपियों की उत्कट प्रेम-भक्ति, बल्कि उनके पाण्डित्यपूर्ण तर्कों का लोहा मानकर भक्तिमार्ग में दीक्षित हो जाते हैं।

यद्यपि कृष्ण भक्ति के राधावल्लभी सदृश कुछ सम्प्रदायों में विरह की महत्ता नहीं मानी गयी है और कारण उद्धव सम्बन्धी प्रसंग उनमें लोकप्रिय नहीं हुआ, फिर भी मुख्यत: सूर के उद्धव गोपी संवाद तथा भ्रमर गीत का आधार लेकर आधुनिक काल तक दर्जनों रचनाएँ हुईं और उनमें उद्धव का व्यक्तित्व बहुत कुछ सूर के उद्धव की ही भाँति चित्रित हुआ है।

तुलसीदास ने भी अपनी कृष्णगीतावली में इस प्रसंग में सरस पद रचे हैं। सच तो यह है कि कृष्ण भक्त कवि ही नहीं, मध्यकाल से लेकर आधुनिक काल तक ब्रजभाषा का ऐसा कोई कवि न होगा जिसने इस प्रसंग पर कुछ छन्द न रचे हों। यह निर्विवाद सत्य है कि ब्रजभाषा काव्य का मुख्य वर्ण्य-विषय राधा कृष्ण और गोपी कृष्ण की लीला ही रहा है और इस लीला में सबसे अधिक मार्मिक, रसिकों में लोकप्रिय प्रसंग उद्धव-गोपी संवाद और भ्रमरगीत है। इन सभी कवियों में उद्धव के तथाकथित ज्ञानमार्ग की खिल्ली उड़ाने, उद्धव की मूढ़ता प्रमाणित करने तथा प्रेम और भक्ति की महत्ता प्रतिपादित करने में परस्पर प्रतिस्पर्द्धा सी देखी जाती है।

भगवान ने जब द्वारकापुरी का निर्माण किया, तब उद्धव जी उनके साथ द्वारका आये। भगवान श्री कृष्ण इन्हें सदैव अपने साथ रखते थे तथा राज्यकार्य में इनसे सहयोग लिया करते थे। स्वधाम पधारने के पूर्व भगवान श्री कृष्ण ने उद्धव जी को तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया और उन्हें बदरिकाश्रम जाकर रहने की आज्ञा दी। भगवान के स्वधाम पधारने पर उद्धव जी मथुरा आये। यहीं उनकी विदुर जी से भेंट हुई। अपने एक स्वरूप से भगवान के आज्ञानुसार उद्धव जी बदरिकाश्रम चले गये और दूसरे सूक्ष्म रूप से गोवर्धन के पास लता-गुल्मों में छिपकर निवास करने लगे।

महर्षि शाण्डिल्य के उपदेश से वज्रनाभ ने जब गोवर्धन के संनिकट संकीर्तन-महोत्सव किया, तब उद्धव जी लता-कुंजों से प्रकट हो गये। उन्होंने श्री कृष्ण की रानियों को एक महीने तक श्रीमद्भागवत की कथा सुनायी तथा अपने साथ सबको नित्य व्रजभूमि में ले गये। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- 'मेरे इस लोक से लीला-संवरण के बाद उद्धव ही मेरे ज्ञान की रक्षा करेंगे, वे गुणों में मुझसे तनिक भी कम नहीं हैं। वे यहाँ अधिकारियों को उपदेश करने के लिये रहेंगे।'

आधुनिक काल में जगन्नाथदास 'रत्नाकर'ने 'उद्धवशतक'में भक्ति और रीति काव्य की परम्पराओं का समन्वय-सा करते हुए उद्धव के व्यक्तित्व में संवेदनशीलता का कुछ अधिक सन्निवेश किया है वैसे उनके उद्धव ब्रजभाषा के जाने पहचाने उद्धव ही हैं। खड़ीबोली के काव्यों 'प्रियप्रवास' (हरिऔध) और 'द्वापर' (मैथिलीशरण गुप्त) के उद्धव गोपियों के हास-परिहास के आलम्बन नहीं बनते, उनके व्यक्तित्व में गम्भीरता पायी जाती है। दोनों कवियों ने उन्हें अधिक संवेदनशील, विचारशील तथा बुद्धिमान चित्रित किया है।
आभारी ब्रज डिस्कवरी

प्राचीन भारत का नक्शा

अक्षौहिणी सेना

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अक्षौहिणीप्राचीन भारत में सेना का माप हुआ करता था जिसका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया गया है:

किसी भी अक्षौहिणी सेना के चार विभाग होते थे:
  1. गज (हाँथी सवार)
  2. रथ (रथी)
  3. घोड़े (घुड़सवार)
  4. सैनिक (पैदल सिपाही)
इसके प्रत्येक भाग की संख्या के अंकों का कुल जमा 18 आता है। एक घोडे पर एक सवार बैठा होगा. हाथी पर कम से कम दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है, एक पीलवान और दूसरा लडने वाला योद्धा. इसी प्रकार एक रथ में दो मनुष्य और चार घोडे रहे होंगें.

एक अक्षौहिणी सेना 9भागों में बटी होती थी:
  1. पत्ती: 1 गज + 1 रथ + 3 घोड़े + 5 पैदल सिपाही
  2. सेनामुख (3 x पत्ती): 3 गज + 3 रथ + 9 घोड़े + 15 पैदल सिपाही
  3. गुल्म (3 x सेनामुख): 9 गज + 9 रथ + 27 घोड़े + 45 पैदल सिपाही
  4. गण (3 x गुल्म): 27 गज + 27 रथ + 81 घोड़े + 135 पैदल सिपाही 
  5. वाहिनी (3 x गण): 81 गज + 81 रथ + 243 घोड़े + 405 पैदल सिपाही
  6. पृतना (3 x वाहिनी): 243 गज + 243 रथ + 729 घोड़े + 1215 पैदल सिपाही
  7. चमू (3 x पृतना): 729 गज + 729 रथ + 2187 घोड़े + 3645 पैदल सिपाही
  8. अनीकिनी (3 x चमू): 2187 गज + 2187 रथ + 6561 घोड़े + 10935 पैदल सिपाही
  9. अक्षौहिणी (10 x अनीकिनी): 21870 गज + 21870 रथ + 65610 घोड़े + 109350 पैदल सिपाही
इस प्रकार एक अक्षौहिणी सेना में गज, रथ, घुड़सवार तथा सिपाही की सेना निम्नलिखित होती थी:
  1. गज: 21870
  2. रथ: 21870
  3. घुड़सवार: 65610
  4. पैदल सिपाही: 109350
इसमें चारों अंगों के 218700सैनिक बराबर-बराबर बंटे हुए होते थे। प्रत्येक इकाई का एक प्रमुख होता था.
  1. पत्ती, सेनामुख, गुल्म तथा गण के नायक अर्धरथी हुआ करते थे.
  2. वाहिनी, पृतना, चमु और अनीकिनी के नायक रथीहुआ करते थे।
  3. एक अक्षौहिणी सेना का नायक अतिरथीहोता था.
  4. एक से अधिक अक्षौहिणी सेना का नायक सामान्यतः एक महारथीहुआ करता था.
पांडवों के पास (7 अक्षौहिणी सेना):
  1. 153090 रथ
  2. 153090 गज
  3. 459270 अश्व
  4. 765270 पैदल सैनिक

कौरवों के पास (11 अक्षौहिणी सेना): 

  1. 240570 रथ
  2. 240570 गज
  3. 721710 घोड़े
  4. 1202850 पैदल सैनिक

इस प्रकार महाभारत की सेना के मनुष्यों की संख्या कम से कम 4681920, घोडों की संख्या (रथ में जुते हुओं को लगा कर) 2715620 और इसी अनुपात में गजों की संख्या थी. इससे आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि महाभारत का युद्ध कितना विनाशकारी था.

महाजनपद

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बौद्ध और जैन धर्म के प्रारंम्भिक ग्रंथों में महाजनपद नाम के सोलह राज्यों का विवरण मिलता है। महाजनपदों के नामों की सूची इन ग्रंथों में समान नहीं है परन्तु वज्जि, मगध,कोशल, कुरु, पांचाल, गांधार और अवन्ति जैसे नाम अक्सर मिलते हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि ये महाजनपद महत्त्वपूर्ण महाजनपदों के रूप में जाने जाते होंगे। अधिकांशतः महाजनपदों पर राजा का ही शासन रहता था परन्तु गण और संघ नाम से प्रसिद्ध राज्यों में लोगों का समूह शासन करता था, इस समूह का हर व्यक्ति राजा कहलाता था। हर एक महाजनपद की एक राजधानी थी जिसे क़िले से घेरा दिया जाता था। भारत के सोलह महाजनपदों का उल्लेख ईसा पूर्व छठी शताब्दी से भी पहले का है। ये महाजनपद थे:
  1. अवन्ति:आधुनिक मालवा का प्रदेश जिसकी राजधानी उज्जयिनी और महिष्मति थी। उज्जयिनी (उज्जैन) मध्य प्रदेश राज्य का एक प्रमुख शहर है। महाभारत में सहदेव द्वारा अवंती को विजित करने का वर्णन है। जैन ग्रंथ भगवती सूत्र में इसी जनपद को मालव कहा गया है। इस जनपद में स्थूल रूप से वर्तमानमालवा, निमाड़ और मध्य प्रदेश का बीच का भाग सम्मिलित था। पुराणों के अनुसार अवंती की स्थापना यदुवंशी क्षत्रियों द्वारा की गई थी। चतुर्थ शती ई. पू. में अवन्ती का जनपद मौर्य-साम्राज्य में सम्मिलित था और उज्जयिनी मगध-साम्राज्य के पश्चिम प्रांत की राजधानी थी। गुप्त काल में चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने अवंती को पुन: विजय किया और वहाँ से विदेशी सत्ता को उखाड़ फैंका। मध्यकाल में इस नगरी को मुख्यत: उज्जैन ही कहा जाता था और इसका मालवा के सूबे के एक मुख्य स्थान के रूप में वर्णन मिलता है। जैन ग्रन्थ विविधतीर्थ कल्प में मालवा प्रदेश का ही नाम अवंति या अवंती है। महाकाल की शिव के द्वादश ज्योतिर्लिगों में गणना की जाती है। इसी कारण इस नगरी को शिवपुरी भी कहा गया है। प्राचीन अवंती वर्तमान उज्जैन के स्थान पर ही बसी थी, यह तथ्य इस बात से सिद्ध होता है कि क्षिप्रा नदी जो आजकल भी उज्जैन के निकट बहती है, प्राचीन साहित्य में भी अवंती के निकट ही वर्णित है।
  2. अश्मक:नर्मदा और गोदावरी नदियों के बीच अवस्थित इस प्रदेश की राजधानी पाटन थी। आधुनिक काल में इस प्रदेश को महाराष्ट्र कहते हैं। बौद्ध साहित्य में इस प्रदेश का, जो गोदावरी तट पर स्थित था, कई स्थानों पर उल्लेख मिलता है। सुत्तनिपात में अस्सक को गोदावरी-तट पर बताया गया है। इसकी राजधानी पोतन, पौदन्य या पैठान (प्रतिष्ठानपुर) में थी। पाणिनि ने अष्टाध्यायी में भी अश्मकों का उल्लेख किया है। सोननंदजातक में अस्सक को अवंती से सम्बंधित कहा गया है। अश्मक नामक राजा का उल्लेख वायु पुराण और महाभारत में है। सम्भवत: इसी राजा के नाम से यह जनपद अश्मक कहलाया। ग्रीक लेखकों ने अस्सकेनोई लोगों का उत्तर-पश्चिमी भारत में उल्लेख किया है। इनका दक्षिणी अश्वकों से ऐतिहासिक सम्बन्ध रहा होगा या यह अश्वकों का रूपान्तर हो सकता है।
  3. अंग:वर्तमान बिहार के मुंगेर और भागलपुर ज़िले इसमें आते थे। महाजनपद युग में अंग महाजनपद की राजधानी चंपा थी। महाभारत ग्रन्थ में प्रसंग है कि हस्तिनापुर में कौरव राजकुमारों के युद्ध कौशल के प्रदर्शन हेतु आचार्य द्रोण ने एक प्रतियोगिता का आयोजन किया। अर्जुन इस प्रतियोगिता में सर्वोच्च प्रतिभाशाली धनुर्धर के रूप में उभरा। कर्ण ने इस प्रतियोगिता में अर्जुन को द्वन्द युद्घ के लिए चुनौती दी। किन्तु कृपाचार्य ने यह कहकर ठुकरा दिया कि कर्ण कोई राजकुमार नहीं है। इसलिए इस प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकता। इसलिए दुर्योधन ने कर्ण को अंग देश का राजा घोषित कर दिया था। पहले अंग मगध के अंतर्गत आता था लेकिन बाद में भीष्म द्वारा अंग को जीतने के पश्चात् ये हस्तिनापुर के अधीन आ गया. 
  4. कम्बोज:प्राचीन संस्कृत साहित्य में कंबोज देश या यहाँ के निवासी कांबोजों के विषय में अनेक उल्लेख हैं जिनसे जान पड़ता है कि कंबोज देश का विस्तार स्थूल रूप से कश्मीर से हिन्दूकुश तक था। वाल्मीकि-रामायण में कंबोज, वाल्हीक और वनायु देशों के श्रेष्ठ घोड़ों का अयोध्या में होना वर्णित है. महाभारत के अनुसार अर्जुन ने अपनी उत्तर दिशा की दिग्विजय-यात्रा के प्रसंग में दर्दरों या दर्दिस्तान के निवासियों के साथ ही कांबोजों को भी परास्त किया था. महाभारत में कहा गया है कि कर्ण ने राजपुर पहुंचकर कांबोजों को जीता, जिससे राजपुर कंबोज का एक नगर सिद्ध होता है। वैदिक काल में कंबोज आर्य-संस्कृति का केंद्र था जैसा कि वंश-ब्राह्मण के उल्लेख से सूचित होता है, किंतु कालांतर में जब आर्यसभ्यता पूर्व की ओर बढ़ती गई तो कंबोज आर्य-संस्कृति से बाहर समझा जाने लगां। युवानच्वांग ने भी कांबोजों को असंस्कृत तथा हिंसात्मक प्रवृत्तियों वाला बताया है। कंबोज के राजपुर, नंदिनगर और राइसडेवीज के अनुसार द्वारका नामक नगरों का उल्लेख साहित्य में मिलता है। महाभारत में कंबोज के कई राजाओं का वर्णन है जिनमें सुदर्शन और चंद्रवर्मन मुख्य हैं। मौर्यकाल में चंद्रगुप्त के साम्राज्य में यह गणराज्य विलीन हो गया होगा।
  5. काशी:वाराणसी का दूसरा नाम ‘काशी’ प्राचीन काल में एक जनपद के रूप में प्रख्यात था और वाराणसी उसकी राजधानी थी। इसकी पुष्टि पाँचवीं शताब्दी में भारत आने वाले चीनी यात्री फ़ाह्यान के यात्रा विवरण से भी होती है। हरिवंशपुराण में उल्लेख आया है कि ‘काशी’ को बसाने वाले पुरुरवा के वंशज राजा ‘काश’ थे। अत: उनके वंशज ‘काशि’ कहलाए। संभव है इसके आधार पर ही इस जनपद का नाम ‘काशी’ पड़ा हो। काशी नामकरण से संबद्ध एक पौराणिक मिथक भी उपलब्ध है। उल्लेख है कि विष्णु ने पार्वती के मुक्तामय कुंडल गिर जाने से इस क्षेत्र को मुक्त क्षेत्र की संज्ञा दी और इसकी अकथनीय परम ज्योति के कारण तीर्थ का नामकरण काशी किया। कहा जाता है की कशी भगवान शंकर के त्रिशूल पर स्तिथ है इसी कारण इसे पृथ्वी से बहार का क्षेत्र माना जाता है. ये भी कहा जाता है की प्रलय के समय पूरी धरती का विनाश हो जाता है लेकिन शंकर के त्रिशूल पर होने के कारण काशी नगरी सुरक्षित रहती है.
  6. कुरु:आधुनिक हरियाणा तथा दिल्ली का यमुना नदी के पश्चिम वाला अंश शामिल था। इसकी राजधानी आधुनिक दिल्ली (इन्द्रप्रस्थ) थी। एक प्राचीन देश जिसका हिमालय के उत्तर का भाग 'उत्तर कुरु'और हिमालय के दक्षिण का भाग 'दक्षिण कुरु'के नाम से विख्यात था। भागवत के अनुसार युधिष्ठर का राजसूय यज्ञ और श्रीकृष्ण का रुक्मिणी के साथ विवाह यहीं हुआ था। अग्नीध के एक पुत्र का नाम 'कुरु'था जो वैदिक साहित्य में उल्लिखित एक प्रसिद्ध चंद्रवंशी राजा था। सामान्यत: धृतराष्ट्र की संतान को ही 'कौरव'संज्ञा दी जाती है, पर कुरु के वंशज कौरव-पांडवों दोनों ही थे। प्राचीन भारत का प्रसिद्ध जनपद जिसकी स्थितिं वर्तमान दिल्ली-मेरठ प्रदेश में थी। महाभारतकाल में हस्तिनापुर कुरु-जनपद की राजधानी थी। महाभारत से ज्ञात होता है कि कुरु की प्राचीन राजधानी खांडवप्रस्थ थी। महाभारत के अनेक वर्णनों से विदित होता है कि कुरुजांगल, कुरु और कुरुक्षेत्र इस विशाल जनपद के तीन मुख्य भाग थे। मुख्य कुरु जनपद हस्तिनापुर (ज़िला मेरठ, उ.प्र.) के निकट था। इसके दक्षिण में खांडव, उत्तर में तूर्ध्न और पश्चिम में परिणाह स्थित था। संभव है ये सब विभिन्न वनों के नाम थे। कुरु जनपद में वर्तमान थानेसर, दिल्ली और उत्तरी गंगा द्वाबा (मेरठ-बिजनौर ज़िलों के भाग) शामिल थे। महाभारत में भारतीय कुरु-जनपदों को दक्षिण कुरु कहा गया है और उत्तर-कुरुओं के साथ ही उनका उल्लेख भी है। महासुत-सोम-जातक के अनुसार कुरु जनपद का विस्तार तीन सौ कोस था। ऐसा जान पड़ता है कि इस काल के पश्चात और मगध की बढ़ती हुई शक्ति के फलस्वरूप जिसका पूर्ण विकास मौर्य साम्राज्य की स्थापना के साथ हुआ, कुरु, जिसकी राजधानी इस्तिनापुर राजा निचक्षु के समय में गंगा में बह गई थी और जिसे छोड़ कर इस राजा ने वत्स जनपद में जाकर अपनी राजधानी कौशांबी में बनाई थी, धीरे-धीरे विस्मृति के गर्त में विलीन हो गया। 
  7. कोशल:उत्तरी भारत का प्रसिद्ध जनपद जिसकी राजधानी विश्वविश्रुत नगरी अयोध्या थी। उत्तर प्रदेश के फैजाबाद ज़िला, गोंडा और बहराइच के क्षेत्र शामिल थे। यह जनपद सरयू (गंगा नदी की सहायक नदी) के तटवर्ती प्रदेश में बसा हुआ था। रामायण-काल में कोसल राज्य की दक्षिणी सीमा पर वेदश्रुति नदी बहती थी। श्री रामचंद्रजी ने अयोध्या से वन के लिए जाते समय गोमती नदी को पार करने के पहले ही कोसल की सीमा को पार कर लिया था। वेदश्रुति तथा गोमती पार करने का उल्लेख अयोध्याकाण्ड में है और तत्पश्चात स्यंदिका या सई नदी को पार करने के पश्चात श्री राम ने पीछे छूटे हुए अनेक जनपदों वाले तथा मनु द्वाराइक्ष्वाकु को दिए गए समृद्धिशाली (कोसल) राज्य की भूमि सीता को दिखाई। रामायण-काल में ही यह देश दो जनपदों में विभक्त था - उत्तर कोसल और दक्षिण कोसल. राजा दशरथ की रानी कौशल्या संभवत: दक्षिण कोसल (रायपुर-बिलासपुर के ज़िले, मध्य प्रदेश) की राजकन्या थी। रामायण-काल में अयोध्या बहुत ही समृद्धिशाली नगरी थी। महाभारत में भीमसेन की दिग्विजय-यात्रा में कोसल-नरेश बृहद्बल की पराजय का उल्लेख है। छठी और पाँचवी शती ई. पू. में कोसल मगध के समान ही शक्तिशाली राज्य था किन्तु धीरे-धीरे मगध का महत्त्व बढ़ता गया और मौर्य-साम्राज्य की स्थापना के साथ कोसल मगध-साम्राज्य ही का एक भाग बन गया।
  8. गांधार:पाकिस्तान का पश्चिमी तथा अफ़ग़ानिस्तान का पूर्वी क्षेत्र। इसे आधुनिक कंदहार से जोड़ने की ग़लती कई बार लोग कर देते हैं जो कि वास्तव में इस क्षेत्र से कुछ दक्षिण में स्थित था। इस प्रदेश का मुख्य केन्द्र आधुनिक पेशावर और आसपास के इलाके थे। इस महाजनपद के प्रमुख नगर थे - पुरुषपुर (आधुनिक पेशावर) तथा तक्षशिला इसकी राजधानी थी । इसका अस्तित्व 600 ईसा पूर्व से 11वीं सदी तक रहा। 13वीं शती तक युन्नान का भारतीय नाम गंधार ही प्रचलित था। इस प्रदेश का उल्लेख महाभारत और अशोक के शिलालेखों में मिलता है। महाभारत के अनुसार धृतराष्ट्र की रानी और दुर्योधन की माता गांधारी गंधार की राजकुमारी थीं। आजकल यह पाकिस्तान के रावलपिंडी और पेशावर ज़िलों का क्षेत्र है। तक्षशिला और पुष्कलावती यहीं के प्रसिद्ध नगर थे। अशोक के साम्राज्य का अंग रहने के बाद कुछ समय यह फारस के और कुषाण राज्य के अंतर्गत रहा। ऐतिहासिक अनुश्रुति में कौटिल्य को तक्षशिला महाविद्यालय का ही रत्न बताया गया है। केकय-नरेश युधाजित के कहने से अयोध्यापति रामचंद्र जी के भाई भरत ने गंधर्व देश को जीतकर यहाँ तक्षशिला और पुष्कलावती नगरियों को बसाया था। महाभारत काल में गंधार देश का मध्यदेश से निकट संबंध था। धृतराष्ट्र की पत्नी गंधारी, गंधार की ही राजकन्या थी। शकुनि इसका भाई था।
  9. चेदि:वर्तमान में बुंदेलखंड का इलाक़ा इसके अर्न्तगत आता है। गंगा और नर्मदा के बीच के क्षेत्र का प्राचीन नाम चेदि था। बौद्ध ग्रंथों में जिन सोलह महाजनपदों का उल्लेख है उनमें यह भी था। किसी समय शिशुपाल यहाँ का प्रसिद्ध राजा था। उसका विवाह रुक्मिणी से होने वाला था कि श्रीकृष्ण ने रूक्मणी का हरण कर दिया इसके बाद ही जब युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ में श्रीकृष्ण को पहला स्थान दिया तो शिशुपाल ने उनकी घोर निंदा की। इस पर श्रीकृष्ण ने उसका वध कर डाला। मध्य प्रदेश का ग्वालियर क्षेत्र में वर्तमान चंदेरी कस्बा ही प्राचीन काल के चेदि राज्य की राजधानी बताया जाता है। महाभारत में चेदि देश की अन्य कई देशों के साथ, कुरु के परिवर्ती देशों में गणना की गई है। कर्णपर्व में चेदि देश के निवासियों की प्रशंसा की गई है। महाभारत के समय कृष्ण का प्रतिद्वंद्वी शिशुपाल चेदि का शासक था। इसकी राजधानी शुक्तिमती बताई गई है।
  10. वृजि:उत्तर बिहार का बौद्ध कालीन गणराज्य जिसे बौद्ध साहित्य में वृज्जि कहा गया है। वास्तव में यह गणराज्य एक राज्य-संघ का अंग था जिसके आठ अन्य सदस्य (अट्ठकुल) थे जिनमें विदेह, लिच्छवी तथा ज्ञातृकगण प्रसिद्ध थे। बुद्ध के जीवनकाल में मगध सम्राट अजातशत्रु और वृज्जि गणराज्य में बहुत दिनों तक संघर्ष चलता रहा। महावग्ग के अनुसार अजातशत्रु के दो मन्त्रियों सुनिध और वर्षकार (वस्सकार) ने पाटलिग्राम (पाटलिपुत्र) में एक क़िला वृज्जियों के आक्रमणों को रोकने के लिए बनवाया था। महापरिनिब्बान सुत्तन्त में भी अजातशत्रु और वृज्जियों के विरोध का वर्णन है। वज्जि शायद वृजि का ही रूपांतर है। बुल्हर के मत में वज्रि का नामोल्लेख अशोक के शिलालेख सं. 13 में है। जैन तीर्थंकर महावीर वृज्जि गणराज्य के ही राजकुमार थे।
  11. वत्स:आधुनिक उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद तथा मिर्ज़ापुर ज़िले इसके अर्न्तगत आते थे। इस जनपद की राजधानी कौशांबी (ज़िला इलाहाबाद उत्तर प्रदेश) थी। वत्स देश का नामोल्ल्लेख वाल्मीकि रामायण में भी है कि लोकपालों के समान प्रभाव वाले राम चन्द्र वन जाते समय महानदी गंगा को पार करके शीघ्र ही धनधान्य से समृद्ध और प्रसन्न वत्स देश में पहुँचे। इस उद्धरण से सिद्ध होता है कि रामायण-काल में गंगा नदी वत्स और कोसल जनपदों की सीमा पर बहती थी। गौतम बुद्ध के समय वत्स देश का राजा उदयन था जिसने अवंती-नरेश चंडप्रद्योत की पुत्री वासवदत्ता से विवाह किया था। इस समय कौशांबी की गणना उत्तरी भारत के महान नगरों में की जाती थी। महाभारत के अनुसार भीम सेन ने पूर्व दिशा की दिग्विजय के प्रसंग में वत्स भूमि पर विजय प्राप्त की थी.
  12. पांचाल:पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बरेली, बदायूँ और फर्रूख़ाबाद ज़िलों से परिवृत प्रदेश का प्राचीन नाम है। यह कानपुर से वाराणसी के बीच के गंगा के मैदान में फैला हुआ था। इसकी भी दो शाखाएँ थीं- पहली शाखा उत्तर पांचाल की राजधानी अहिच्छत्र थी तथा दूसरी शाखा दक्षिण पांचाल की राजधानी कांपिल्य थी। पांडवों की पत्नी, द्रौपदी को पंचाल की राजकुमारी होने के कारण पांचाली भी कहा गया।शतपथ ब्राह्मण में पंचाल की परिवका या परिचका नामक नगरी का उल्लेख है जो वेबर के अनुसार महाभारत की एकचका है। पंचाल पाँच प्राचीन कुलों का सामूहिक नाम था। वे थे किवि, केशी, सृंजय, तुर्वसस तथा सोमक। पंचालों और कुरु जनपदों में परस्पर लड़ाई-झगड़े चलते रहते थे। महाभारत के आदिपर्व से ज्ञात होता है कि पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य ने अर्जुन की सहायता से पंचालराज द्रुपद को हराकर उसके पास केवल दक्षिण पंचाल (जिसकी राजधानी कांपिल्य थी) रहने दिया और उत्तर पंचाल को हस्तगत कर लिया था। इस प्रकार महाभारत-काल में पंचाल, गंगा के उत्तरी और दक्षिण दोनों तटों पर बसा हुआ था। द्रुपद पहले अहिच्छत्र या छत्रवती नगरी में रहते थे। महाभारत आदिपर्व में वर्णित द्रौपदी का स्वयंवर कांपिल्य में हुआ था। पंचाल निवासियों को भीमसेन ने अपनी पूर्व देश की दिग्विजय-यात्रा में अनेक प्रकार से समझा-बुझा कर वश में कर लिया था।
  13. मगध:बौद्ध काल तथा परवर्तीकाल में उत्तरी भारत का सबसे अधिक शक्तिशाली जनपद था। इसकी स्थिति स्थूल रूप से दक्षिण बिहार के प्रदेश में थी। आधुनिक पटना तथा गया ज़िला इसमें शामिल थे। इसकी राजधानी गिरिव्रज थी । भगवान बुद्ध के पूर्व बृहद्रथ तथा जरासंध यहाँ के प्रतिष्ठित राजा थे। यह दक्षिणी बिहार में स्थित था जो कालान्तर में उत्तर भारत का सर्वाधिक शक्‍तिशाली महाजनपद बन गया। मगध महाजनपद की सीमा उत्तर में गंगा से दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक, पूर्व में चम्पा से पश्‍चिम में सोन नदी तक विस्तृत थीं। मगध की प्राचीन राजधानी राजगृह थी। कालान्तर में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित हुई। मगध राज्य में तत्कालीन शक्‍तिशाली राज्य कौशल, वत्स व अवन्ति को अपने जनपद में मिला लिया। इस प्रकार मगध का विस्तार अखण्ड भारत के रूप में हो गया और प्राचीन मगध का इतिहास ही भारत का इतिहास बना। पटना और गया ज़िला का क्षेत्र प्राचीनकाल में मगध के नाम से जाना जाता था। गौतम बुद्ध के समय में मगध मेंबिंबिसार और तत्पश्चात उसके पुत्र अजातशत्रु का राज था। इस समय मगध की कोसल जनपद से बड़ी अनबन थी यद्यपि कोसल-नरेश प्रसेनजित की कन्या का विवाह बिंबिसार से हुआ था। इस विवाह के फलस्वरूप काशी का जनपद मगधराज को दहेज के रूप में मिला था। इनके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य तथा अशोक के राज्यकाल में मगध के प्रभावशाली राज्य की शक्ति अपने उच्चतम गौरव के शिखर पर पहुंची हुई थी और मगध की राजधानी पाटलिपुत्र भारत भर की राजनीतिक सत्ता का केंद्र बिंदु थी। मगध का महत्त्व इसके पश्चात भी कई शतियों तक बना रहा और गुप्त काल के प्रारंभ में काफ़ी समय तक गुप्त साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र ही में रही। बिम्बिसार को मगध साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। बिम्बिसार ने गिरिव्रज (राजगीर) को अपनी राजधानी बनायी। इसके वैवाहिक सम्बन्धों (कौशल, वैशाली एवं पंजाब) की नीति अपनाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
  14. मत्स्य:इसमें राजस्थान के अलवर, भरतपुर तथा जयपुर ज़िले के क्षेत्र शामिल थे। महाभारत काल का एक प्रसिद्ध जनपद जिसकी स्थिति अलवर-जयपुर के परिवर्ती प्रदेश में मानी गई है। इस देश में विराट का राज था तथा वहाँ की राजधानी उपप्लव नामक नगर में थी। विराट नगर मत्स्य देश का दूसरा प्रमुख नगर था। सहदेव ने अपनी दिग्विजय-यात्रा में मत्स्य देश पर विजय प्राप्त की थी। भीम ने भी मत्स्यों को विजित किया था। पांडवों ने मत्स्य देश में विराट के यहाँ रह कर अपने अज्ञातवास का एक वर्ष बिताया था। 
  15. मल्ल:यह भी एक गणसंघ था और पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाके इसके क्षेत्र थे। मल्ल देश का सर्वप्रथम निश्चित उल्लेख शायद वाल्मीकि रामायण में इस प्रकार है कि राम चन्द्र जी ने लक्ष्मण-पुत्र चंद्रकेतु के लिए मल्ल देश की भूमि में चंद्रकान्ता नामक पुरी बसाई जो स्वर्ग के समान दिव्य थी। महाभारत में मल्ल देश के विषय में कई उल्लेख हैं. बौद्ध साहित्य में मल्ल देश की दो राजधानियों का वर्णन है कुशावती और पावा. बौद्ध तथा जैन साहित्य में मल्लों और लिच्छवियों की प्रतिद्वंदिता के अनेक उल्लेख हैं. मगध के राजनीतिक उत्कर्ष के समय मल्ल जनपद इसी साम्राज्य की विस्तरणशील सत्ता के सामने न टिक सका। चौथी शती ई. पू. में चंद्रगुप्त मौर्य के महान साम्राज्य में विलीन हो गया।
  16. शूरसेन:शूरसेन महाजनपद उत्तरी-भारत का प्रसिद्ध जनपद था जिसकी राजधानी मथुरा में थी। इस प्रदेश का नाम संभवत: मधुरापुरी (मथुरा) के शासक, लवणासुर के वधोपरान्त, शत्रुघ्न ने अपने पुत्र शूरसेन के नाम पर रखा था। शूरसेन ने पुरानी मथुरा के स्थान पर नई नगरी बसाई थी जिसका वर्णन वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में है। महाभारत में शूरसेन-जनपद पर सहदेव की विजय का उल्लेख है।  विष्णु पुराण में शूरसेन के निवासियों को ही संभवत: शूर कहा गया है और इनका आभीरों के साथ उल्लेख है.

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अस्त्र शस्त्र

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प्राचीन आर्यावर्त के आर्यपुरुष अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण थे। उन्होंने अध्यात्म-ज्ञान के साथ-साथ आततियों और दुष्टों के दमन के लिये सभी अस्त्र-शस्त्रों की भी सृष्टि की थी। आर्यों की यह शक्ति धर्म-स्थापना में सहायक होती थी। प्राचीन काल में जिन अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग होता था, उनका वर्णन इस प्रकार है:


अस्त्र:अस्त्र उसे कहते हैं, जिसे मन्त्रों के द्वारा दूरी से फेंकते हैं। वे अग्नि, गैस और विद्युत तथा यान्त्रिक उपायों से चलते हैं। दैवी अस्त्र वे आयुध हैं जो मन्त्रों से चलाये जाते हैं। प्रत्येक शस्त्र पर भिन्न-भिन्न देव या देवी का अधिकार होता है और मन्त्र-तन्त्र के द्वारा उसका संचालन होता है। वस्तुत: इन्हें दिव्य तथा मान्त्रिक-अस्त्र कहते हैं। इन बाणों के कुछ प्रमुख रूप इस प्रकार हैं:

  • आग्नेय:यह विस्फोटक बाण है। यह जल के समान अग्नि बरसाकर सब कुछ भस्मीभूत कर देता है। इसका प्रतिकार पर्जन्य है।
  • पर्जन्य:यह आग्नेय का प्रतिकार बाण है। यह जल बरसाकर अग्नि को शांत कर देता है।
  • वायव्य:इस बाण से भयंकर तूफान आता है और अन्धकार छा जाता है।
  • पन्नग:इससे सर्प पैदा होते हैं। इसके प्रतिकार स्वरूप गरुड़ बाण छोड़ा जाता है।
  • गरुड़:इस बाण के चलते ही गरुड़ उत्पन्न होते है, जो सर्पों को खा जाते हैं।
  • महाअस्त्र: इनमे तीन दिव्यास्त्र आते है:
    • ब्रह्मास्त्र:ये परमपिता ब्रम्हा का अस्त्र मन जाता है. यह अचूक विकराल अस्त्र है। शत्रु का नाश करके छोड़ता है। इसका प्रतिकार दूसरे ब्रह्मास्त्र से ही हो सकता है, अन्यथा नहीं। प्राचीन काल के अस्त्रों में ये सर्वाधिक प्रसिद्द अस्त्र है.
    • वैष्णव: ये भगवान विष्णु का अस्त्र है. इस अस्त्र का कोई प्रतिकार ही नहीं है। यह बाण चलाने पर अखिल विश्व में कोई शक्ति इसका मुक़ाबला नहीं कर सकती। इसका केवल एक ही प्रतिकार है और वह यह है कि शत्रु अस्त्र छोड़कर नम्रतापूर्वक अपने को अर्पित कर दे। कहीं भी हो, यह बाण वहाँ जाकर ही भेद करता है। इस बाण के सामने झुक जाने पर यह अपना प्रभाव नहीं करता।
    • पाशुपत:ये भगवान शिव का अस्त्र है. इससे विश्व नाश हो जाता हैं यह बाण महाभारतकाल में केवल अर्जुन के पास था। इस अस्त्र का संधान केवल दुष्टों पर किया जा सकता है अन्यथा ये पलट कर चलने वाले को ही समाप्त कर देता है.

शस्त्र:शस्त्र ख़तरनाक हथियार हैं, जिनके प्रहार से चोट पहुँचती है और मृत्यु होती है। ये हथियार अधिक उपयोग किये जाते हैं। शस्त्र वे हैं, जो यान्त्रिक उपाय से फेंके जाते हैं। शस्त्रों के लिये देवी और देवताओं की आवश्यकता नहीं पड़ती। ये भयकंर अस्त्र हैं और स्वयं ही अग्नि, गैस या विद्युत आदि से चलते हैं। कुछ अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन, जिनका प्राचीन संस्कृत-ग्रन्थों में उल्लेख है:

  • शक्ति:यह लंबाई में गजभर होती है, उसका हेंडल बड़ा होता है, उसका मुँह सिंह के समान होता है और उसमें बड़ी तेज जीभ और पंजे होते हैं। उसका रंग नीला होता है और उसमें छोटी-छोटी घंटियाँ लगी होती हैं। यह बड़ी भारी होती है और दोनों हाथों से फेंकी जाती है। रामायण में लक्ष्मण रावण के शक्ति से ही घायल होते है.
  • तोमर:यह लोहे का बना होता है। यह बाण की शकल में होता है और इसमें लोहे का मुँह बना होता है साँप की तरह इसका रूप होता है। इसका धड़ लकड़ी का होता है। नीचे की तरफ पंख लगाये जाते हैं, जिससे वह आसानी से उड़ सके। यह प्राय: डेढ़ गज़ लंबा होता है। इसका रंग लाल होता है। रामायण में इसका काफी वर्णन दिया है.
  • पाश:ये कई प्रकार के होते हैं: नागपाश, वरुणपाश, साधारण पाश इत्यादि. इस्पात के महीन तारों को बटकर ये बनाये जाते हैं। एक सिर त्रिकोणवत होता है। नीचे जस्ते की गोलियाँ लगी होती हैं। कहीं-कहीं इसका दूसरा वर्णन भी है। वहाँ लिखा है कि वह पाँच गज़ का होता है और सन, रूई, घास या चमड़े के तार से बनता है। इन तारों को बटकर इसे बनाते हैं। यमराज का ये प्रधान अस्त्र मन जाता है.
  • ऋष्टि:यह सर्वसाधारण का शस्त्र है, पर यह बहुत प्राचीन है। कोई-कोई उसे तलवार का भी रूप बताते हैं। सामान्य सैनिक इसे इस्तेमाल करते थे.
  • गदा:इसका हाथ पतला और नीचे का हिस्सा वज़नदार होता है। इसकी लंबाई ज़मीन से छाती तक होती है। इसका वज़न बीस मन तक होता है। एक-एक हाथ से दो-दो गदाएँ उठायी जाती थीं। रामायण एवं महाभारत में इसका काफी वर्णन है. भगवान विष्णु, हनुमान, भीम, बलराम, दुर्योधन, जरासंध, शल्य इत्यादि का ये प्रधान शास्त्र था.
  • मुगदर:इसे साधारणतया एक हाथ से उठाते हैं। कहीं यह बताया है कि वह हथौड़े के समान भी होता है। राक्षसों में ये अस्त्र बहुत प्रसिद्द था.
  • चक्र:ये दूर से फेंका जाने वाला नुकीला गोल हथियार होता था. भगवान विष्णु तथा श्री कृष्ण का ये प्रधान हथियार माना जाता है.
  • वज्र:इसके दो प्रकार होते थे: कुलिश तथा अशानि. इसके ऊपर के तीन भाग तिरछे-टेढ़े बने होते हैं। बीच का हिस्सा पतला होता है। पर हाथ बड़ा वज़नदार होता है। ये इन्द्र का प्रधान हथियार था.
  • त्रिशूल:इसके तीन सिर होते हैं। ये भगवान शिव का प्रधान हथियार माना जाता है.
  • शूल:इसका एक सिर नुकीला, तेज होता है। शरीर में भेद करते ही प्राण उड़ जाते हैं।
  • असि:तलवार को कहते हैं। यह शस्त्र किसी रूप में पिछले काल तक उपयोग होता रहा। किसी भी सेना में ये सबसे ज्यादा प्रयुक्त होने वाला शस्त्र था.
  • खड्ग:ये तलवार का ही विशाल रूप है जो बलिदान का शस्त्र माना जाता है। दुर्गाचण्डी का ये प्रधान शस्त्र माना जाता है.
  • चन्द्रहास:टेढ़ी तलवार के समान वक्र कृपाण है। ये महाकाल का शस्त्र माना जाता है. भगवान शिव ने प्रसन्न होकर इसे रावण को प्रदान किया था इसी से ये रावण के प्रमुख शस्त्रों में एक था.
  • फरसा:यह कुल्हाड़ा है। पर यह युद्ध का आयुध है। राक्षसों का ये प्रमुख शस्त्र था.
  • मुशल:यह गदा के सदृश होता है, जो दूर से फेंका जाता है।
  • धनुष:इसका उपयोग बाण चलाने के लिये होता है। किसी भी युद्ध में प्रयुक्त शस्त्रों में ये सर्वाधिक प्रसिद्ध शस्त्र है. अस्त्रों के संधान के लिए ये सबसे अधिक प्रयुक्त शस्त्र था. श्रीराम, कर्ण, अर्जुन इत्यादि का ये प्रमुख शस्त्र था.
  • बाण:सायक, शर और तीर, नाराच, सूचीमुख आदि बाण भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। हमने ऊपर कई बाणों का वर्णन किया है। उनके गुण और कर्म भिन्न-भिन्न हैं।
  • परिघ:इसमें एक लोहे की मूठ है। दूसरे रूप में यह लोहे की छड़ी भी होती है और तीसरे रूप के सिरे पर बजनदार मुँह बना होता है। ये प्रायः द्वन्द युद्ध के समय प्रोयोग किया जाता था.
  • भिन्दिपाल:ये लोहे का बना होता है। इसे हाथ से फेंकते हैं। इसके भीतर से भी बाण फेंकते हैं।
  • परशु:यह छुरे के समान होता है। इसके नीचे लोहे का एक चौकोर मुँह लगा होता है। यह दो गज़ लंबा होता है। महर्षि परशुराम ये प्रधान शस्त्र था।
  • कुण्टा:इसका ऊपरी हिस्सा हल के समान होता है। इसके बीच की लंबाई पाँच गज़ की होती है।
  • शंकु:बर्छी वाला भाला।
  • पट्टिश:ये एक प्रकार का कुल्हाड़ा है।
इन अस्त्रों के अतिरिक्त अन्य अनेक अस्त्र हैं, जिनका हम यहाँ वर्णन नहीं कर सके। भुशुण्डी आदि अनेक शस्त्रों का वर्णन पुराणों में है। इनमें जितना स्वल्प ज्ञान है, उसके आधार पर उन सबका रूप प्रकट करना सम्भव नहीं।

धन्यवाद, ब्रज डिस्कवरी

कालचक्र

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पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु के नाभि कमल से उत्पन ब्रम्हा की आयु १०० दिव्य वर्ष मानी गयी है. पितामह ब्रम्हा के प्रथम ५० वर्षों को पूर्वार्ध एवं अगले ५० वर्षों को उत्तरार्ध कहते हैं. 

सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग को मिलकर एक महायुग कहते हैं. ऐसे १००० महायुगों का ब्रम्हा का एक दिन होता है. इसी प्रकार १००० महायुगों का ब्रम्हा की एक रात्रि होती है. अर्थात परमपिता ब्रम्हा का एक पूरा दिन २००० महायुगों का होता है. 

ब्रम्हा के १००० दिनों का भगवान विष्णु की एक घटी होती है. भगवान विष्णु की १२००००० (बारह लाख) घाटियों की भगवान शिव की आधी कला होती है. महादेव की १००००००००० (एक अरब) अर्ध्कला व्यतीत होने पर १ ब्रम्हाक्ष होता है.

अभी ब्रम्हा के उत्तरार्ध का पहला वर्ष चल रहा है (ब्रम्हा का ५१ वा वर्ष). 

ब्रम्हा के एक दिन में १४ मनु शाषण करते हैं:
  1. स्वयंभू
  2. स्वरोचिष
  3. उत्तम
  4. तामस 
  5. रैवत
  6. चाक्षुष
  7. वैवस्वत
  8. सावर्णि 
  9. दक्ष  सावर्णि 
  10. ब्रम्हा  सावर्णि
  11. धर्म  सावर्णि
  12. रूद्र  सावर्णि
  13. देव  सावर्णि
  14. इन्द्र सावर्णि
इस प्रकार ब्रम्हा के द्वितीय परार्ध (५१ वे) वर्ष के प्रथम दिन के छः मनु व्यतीत हो गए है और सातवे वैवस्वत मनु का अठाईसवा (२८) युग चल रहा है. इकहत्तर (७१) महायुगों का एक मनु होता है. १४ मनुओं का १ कल्प कहा जाता है जो की ब्रम्हा का एक दिन होता है. आदि में ब्रम्हा कल्प और अंत में पद्मा कल्प होता है. इस प्रकार कुल ३२ कल्प होते हैं. ब्रम्हा के परार्ध में रथन्तर तथा उत्तरार्ध में श्वेतवराह कल्प होता है. इस समय श्वेतवराह कल्प चल रहा है. इस प्रकार ब्रम्हा के १ दिन (कल्प) ४०००३२००००००० (चार लाख बतीस "करोड़") मानव वर्ष के बराबर है जिसमे १४ मवंतर होते है. चार युगों का एक महायुग होता है:

  1. सतयुग:सतयुग का काल १७२८००० (सत्रह लाख अठाईस हजार) वर्षों का होता है. इस युग में चार अमानवीय अवतार हुए. मत्स्यावतार, कुर्मावतार, वराहावतार एवं नरिसिंघवातर. सतयुग में पाप ० भाग तथा पुण्य २० भाग था. मनुष्यों की आयु १००००० वर्ष, उचाई २१ हाथ, पात्र स्वर्णमय, द्रव्य रत्नमय तथा ब्रम्हांडगत प्राण था. पुष्कर तीर्थ, स्त्रियाँ पद्मिनी तथा पतिव्रता थी. सूर्यग्रहण ३२००० तथा चंद्रग्रहण ५००० बार होते थे. सारे वर्ण अपने धर्म में लीन रहते थे. ब्राम्हण ४ वेद पढने वाले थे.
  2. त्रेतायुग:त्रेतायुग का काल १२९६००० (बारह लाख छियान्व्वे हजार) वर्षों का होता है. इस युग में तीन मानवीय अवतार हुए. वामन, परशुराम एवं राम. त्रेता में पाप ५ भाग एवं पुण्य १५ भाग होता था. मनुष्यों की आयु १०००० वर्ष, उचाई १४ हाथ, पात्र चांदी के, द्रव्य स्वर्ण तथा अस्थिगत प्राण था. नैमिषारण्य तीर्थ, स्त्रियाँ पतिव्रता होती थी.  सूर्यग्रहण ३२०० तथा चंद्रग्रहण ५०० बार होते थे. सारे वर्ण अपने अपने कार्य में रत थे. ब्राम्हण ३ वेद पढने वाले थे.
  3. द्वापर युग:द्वापर युग का काल ८६४००० (आठ लाख चौसठ हजार) वर्षों का होता है. इस युग में २ मानवीय अवतार हुए. कृष्ण एवं बुद्ध. इस युग में पाप १० भाग एवं पुण्य १० भाग का होता था. मनुष्यों की आयु १००० वर्ष, उचाई ७ हाथ, पात्र ताम्र, द्रव्य चांदी तथा त्वचागत प्राण था. स्त्रियाँ शंखिनी होती थी. सूर्यग्रहण ३२० तथा चंद्रग्रहण ५० हुए. वर्ण व्यवस्था दूषित थी तथा ब्राम्हण २ वेद पढने वाले थे.
  4. कलियुग:कलियुग का काल ४३२००० (चार लाख ३२ हजार) वर्षों का होता है. इस युग में एक अवतार संभल देश, गोड़ ब्राम्हण विष्णु यश के घर कल्कि नाम से होगा. इस युग में पाप १५ भाग एवं पुण्य ५ भाग होगा. मनुष्यों की आयु १०० वर्ष, उचाई ३.५ हाथ, पात्र मिटटी, द्रव्य ताम्र, मुद्रा लौह, गंगा तीर्थ तथा अन्नमय प्राण होगा. कलियुग के अंत में गंगा पृथ्वी से लीन हो जाएगी तथा भगवान विष्णु धरती का त्याग कर देंगे. सभी वर्ण अपने कर्म से रहित होंगे तथा ब्राम्हण केवल एक वेद पढने वाले होंगे अर्थात ज्ञान का लोप हो जाएगा.
दशावतार के बारे में जाने के लिए यहाँ जाएँ.

काल गणना के बारे में विस्तार से जानने के लिए यहाँ जाएँ.

पुराणों में श्लोकों की संख्या

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  1. ब्रह्मपुराण:१४०००
  2. पद्मपुराण:५५०००
  3. विष्णुपुराण:२३००० 
  4. शिवपुराण:२४००० 
  5. श्रीमद्भावतपुराण:१८००० 
  6. नारदपुराण:२५००० 
  7. मार्कण्डेयपुराण:९००० 
  8. अग्निपुराण:१५००० 
  9. भविष्यपुराण:१४५०० 
  10. ब्रह्मवैवर्तपुराण:१८००० 
  11. लिंगपुराण:११००० 
  12. वाराहपुराण:२४००० 
  13. स्कन्धपुराण:८११०० 
  14. वामनपुराण:१०००० 
  15. कूर्मपुराण:१७००० 
  16. मत्सयपुराण:१४००० 
  17. गरुड़पुराण:१९००० 
  18. ब्रह्माण्डपुराण:१२०००
इस प्रकार सारे पुराणों के श्लोकों की कुल संख्या लगभग ४०३६०० (चार लाख तीन हजार छः सौ) है. इसके अलावा रामायण में लगभग २४००० एवं महाभारत में लगभग ११०००० श्लोक हैं.

महाभारत में अठारह संख्या का महत्त्व

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महाभारत कथा में १८ (अठारह) संख्या का बड़ा महत्त्व है. महाभारत की कई घटनाएँ १८ संख्या से सम्बंधित है. कुछ उदाहरण देखें:

  • महाभारत का युद्ध कुल १८ दिनों तक हुआ था.
  • कौरवों (११ अक्षोहिनी) और पांडवों (९ अक्षोहिनी) की सेना भी कुल १८ अक्षोहिनी थी.
  • महाभारत में कुल १८ पर्व हैं (आदि पर्व, सभा पर्व, वन पर्व, विराट वरव, उद्योग पर्व, भीष्म पर्व, द्रोण पर्व, अश्वमेधिक पर्व, महाप्रस्थानिक पर्व, सौप्तिक पर्व, स्त्री पर्व, शांति पर्व, अनुशाशन पर्व, मौसल पर्व, कर्ण पर्व, शल्य पर्व, स्वर्गारोहण पर्व तथा आश्रम्वासिक पर्व).
  • गीता उपदेश में भी कुल १८ अध्याय हैं.
  • इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी १८ हैं (ध्रितराष्ट्र, दुर्योधन, दुह्शासन, कर्ण, शकुनी, भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, अश्वस्थामा, कृतवर्मा, श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी एवं विदुर).
  • महाभारत के युद्ध के पश्चात् कौरवों के तरफ से तीन और पांडवों के तरफ से १५ यानि कुल १८ योद्धा ही जीवित बचे.
  • महाभारत को पुराणों के जितना सम्मान दिया जाता है और पुराणों की संख्या भी १८ है.

कश्यप ऋषि से सम्पूर्ण जाति की उत्पत्ति

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महर्षि कश्यप ब्रम्हा के मानस पुत्र मरीचि के पुत्र थे. इस प्रकार वे ब्रम्हा के पोते हुए. महर्षि कश्यप ने ब्रम्हा के पुत्र प्रजापति दक्ष की १७ कन्याओं से विवाह किया. संसार की सारी जातियां महर्षि कश्यप की इन्ही १७ पत्नियों की संतानें मानी जाति हैं. इसी कारण महर्षि कश्यप की पत्नियों को लोकमाता भी कहा जाता है. उनकी पत्नियों और उनसे उत्पन्न संतानों का वर्णन नीचे है.
  1. अदिति:आदित्य (देवता). ये १२ कहलाते हैं. ये हैं अंश, अयारमा, भग, मित्र, वरुण, पूषा, त्वस्त्र, विष्णु, विवस्वत, सावित्री, इन्द्र और धात्रि या त्रिविक्रम (भगवन वामन).
  2. दिति:दैत्य और मरुत. दिति के पहले दो पुत्र हुए: हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप. इनसे सिंहिका नमक एक पुत्री भी हुई. इन दोनों का संहार भगवन विष्णु ने क्रमशः वराह और नरसिंह अवतार लेकर कर दिया. इनकी मृत्यु के पश्चात् दिति ने फिर से आग्रह कर महर्षि कश्यप द्वारा गर्भ धारण किया. इन्द्र ने इनके गर्भ के सात टुकड़े कर दिए जिससे सात मरुतों का जन्म हुआ. इनमे से ४ इन्द्र के साथ, एक ब्रम्ह्लोक, एक इन्द्रलोक और एक वायु के रूप में विचरते हैं.
  3. दनु:दानव जाति. ये कुल ६१ थे पर प्रमुख चालीस माने जाते हैं. वे हैं विप्रचित्त, शंबर, नमुचि, पुलोमा, असिलोमा, केशी, दुर्जय, अयःशिरी, अश्वशिरा, अश्वशंकु, गगनमूर्धा, स्वर्भानु, अश्व, अश्वपति, घूपवर्वा, अजक, अश्वीग्रीव, सूक्ष्म, तुहुंड़, एकपद, एकचक्र, विरूपाक्ष, महोदर, निचंद्र, निकुंभ, कुजट, कपट, शरभ, शलभ, सूर्य, चंद्र, एकाक्ष, अमृतप, प्रलब, नरक, वातापी, शठ, गविष्ठ, वनायु और दीघजिह्व. इनमें जो चंद्र और सूर्य नाम आए हैं वै देवता चंद्र और सूर्य से भिन्न हैं.
  4. काष्ठा:अश्व और अन्य खुर वाले पशु.
  5. अनिष्ठा:गन्धर्व या यक्ष जाति. ये उपदेवता माने जाते हैं जिनका स्थान राक्षसों से ऊपर होता है. ये संगीत के अधिष्ठाता भी माने जाते हैं. गन्धर्व काफी मुक्त स्वाभाव के माने जाते हैं और इस जाति में विवाह से पहले संतान उत्पत्ति आम मानी जाती थी. गन्धर्व विवाह बहुत ही प्रसिद्ध विवाह पद्धति थी जो राक्षसों और यक्षों में बहुत आम थी जिसके लिए कोई कर्मकांड की आवश्यकता नहीं होती थी. प्रसिद्ध गन्धर्वों या यक्षों में कुबेर और चित्रसेन के नाम बहुत प्रसिद्ध है.
  6. सुरसा:राक्षस जाति. ये जाति विधान और मैत्री में विश्वास नहीं रखती और चीजों को हड़प करने वाली मानी जाति है. कई लोगों का कहना है की राक्षस जाति की शुरुआत रावण द्वारा की गयी.दैत्य, दानव और राक्षस जातियां एक सी लगती जरुर हैं लेकिन उनमे अंतर था.दैत्य जाति अत्यंत बर्बर और निरंकुश थी. दानव लोग लूटपाट और हत्याएं कर अपना जीवन बिताते थे तथा मानव मांस खाना इनका शौक होता था. राक्षस इन दोनों जातियों की अपेक्षा अधिक संस्कारी और शिक्षित होते थे. रावण जैसा विद्वान् इसका उदाहरण है. राक्षस जाति का मानना था कि वे रक्षा करते हैं. एक तरह से राक्षस जाति इन सब में क्षत्रियों की भांति थी और इनका रहन सहन, जीवन और ऐश्वर्य दैत्यों और दानवों की अपेक्षा अधिक अच्छा होता था.
  7. इला:वृक्ष और समस्त वनस्पति.
  8. मुनि:समस्त अप्सरागण. ये स्वर्गलोक की नर्तकियां कहलाती थीं जिनका काम देवताओं का मनोरंजन करना और उन्हें प्रसन्न रखना था. उर्वशी, मेनका, रम्भा एवं तिलोत्तमा इत्यादि कुछ मुख्य अप्सराएँ हैं.
  9. क्रोधवषा:सर्प जाति, बिच्छू और अन्य विषैले जीव और सरीसृप.
  10. सुरभि:सम्पूर्ण गोवंश (गाय, भैंस, बैल इत्यादि). इसके आलावा इनसे ११ रुद्रों का जन्म हुआ जो भगवान शंकर के अंशावतार माने जाते हैं. भगवान शंकर ने महर्षि कश्यप की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें अपने अंशावतार के पिता होने का वरदान दिया था. वे हैं: कपाली, पिंगल, भीम, विरूपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, अहिर्बुधन्य, शम्भू, चंड एवं भव.
  11. सरमा:हिंसक और शिकारी पशु, कुत्ते इत्यादि.
  12. ताम्रा:गीध, बाज और अन्य शिकारी पक्षी.
  13. तिमि:मछलियाँ और अन्य समस्त जलचर.
  14. विनता:अरुण और गरुड़. अरुण सूर्य के सारथि बन गए और गरुड़ भगवान विष्णु के वाहन.
  15. कद्रू:समस्त नाग जाति. कद्रू से १००० नागों की जातियों का जन्म हुआ. इनमे आठ मुख्य नागकुल चले. वे थे वासुकी, तक्षक, कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंख, चूड, महापद्म और धनञ्जय. सर्प जाति और नाग जाति अलग अलग थी.सर्पों का मतलब जहाँ सरीसृपों की जाति से है वहीँ नाग जाति उपदेवताओं की श्रेणी में आती है जिनका उपरी हिस्सा मनुष्यों की तरह और निचला हिस्सा सर्पों की तरह होता था. ये जाति पाताल में निवास करती है और सर्पों से अधिक शक्तिशाली, लुप्त और रहस्यमयी मानी जाती है.
  16. पतंगी:पक्षियों की समस्त जाति.
  17. यामिनी:कीट पतंगों की समस्त जाति.
इसके अलावा महर्षि कश्यप ने वैश्वानर की दो पुत्रियों पुलोमाऔर कालकाके साथ भी विवाह किया. पुलोमा से पौलोमनमक दानव वंश चला और कालका से ६०००० दैत्यों ने जन्म लिया जो कालिकेयकहलाये. रावण की बहन शूर्पनखा का पति विद्युत्जिह्य भी कालिकेय दैत्य था जो रावण के हाथों मारा गया था.

    जब शिव ने सती का त्याग किया

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    सभी लोग जानते हैं कि सती ने अपने पिता द्वारा शिव को यज्ञ में आमंत्रित न करने और उनका अपमान करने पर उसी यज्ञशाला में आत्मदाह कर लिया था लेकिन बहुत कम लोग यह जानते हैं कि इसकी भूमिका बहुत पहले हीं लिखी जा चुकी थी.

    बात उन दिनों की है जब रावण ने सीता का हरण कर लिया था और श्रीराम और लक्षमण उनकी खोज में दर दर भटक रहे थे. जब सती ने ये देखा कि श्रीराम विष्णु के अवतार होते हुए भी इतना कष्ट उठा रहे हैं तो उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने भगवान शिव से पूछा कि प्रभु भगवान विष्णु तो आपके परम भक्त हैं फिर किस पाप के कारण वे इतना कष्ट भोग रहे हैं? भगवान शिव ने कहा कि चूँकि श्रीहरि विष्णु मनुष्य रूप में हैं इसलिए एक साधारण मनुष्य की तरह हीं वे भी दुःख भोग रहे हैं. सती ने पूछा कि अगर विष्णु केवल एक मनुष्य के रूप में हैं तो क्या उनमे वो सरे दिव्य गुण हैं जो श्रीहरि विष्णु में हैं? शिव ने जवाब दिया कि हाँ मनुष्य होते हुए भी वे उन सारी कलाओं से युक्त हैं जो श्रीहरि विष्णु में हैं. सती को इसपर विश्वास नहीं हुआ. उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि मनुष्य रूप में उनकी शक्तियां भी क्षीण हो गयी हैं इसलिए तो वे एक साधारण मनुष्य की भांति विलाप कर रहे हैं. अगर वे श्रीहरि विष्णु की सारी शक्तियों से युक्त होते तो उन्हें सीता को ढूंढ़ने के लिए इस प्रकार भटकने की आवश्यकता नहीं थी. उन्हें तुरंत पता चल जाता कि सीता लंका में है. सती ने शिव से कहा कि वो श्रीराम की परीक्षा लेना चाहती है. शिव ने उन्हें मना किया किया कि ये उचित नहीं है लेकिन सती नहीं मानी. अंततः विवश होकर महाकाल ने आज्ञा दे दी.

    शिव कि आज्ञा पाकर सती ने सीता का रूप धरा और जाकर वन में ठीक उस जगह बैठ गयी जहाँ से श्रीराम और श्रीलक्षमण आने वाले थे. जैसे हीं दोनों वहां से गुजरे तो उन्होंने सीता के रूप में सती को देखा. लक्षमण सती की इस माया में आ गए और सीता रूपी सती को देख कर प्रसन्न हो गए. उन्होंने जल्दी से आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम किया. तभी अचानक श्रीराम ने भी आकर सती को दंडवत प्रणाम किया. ये देख कर लक्षमण के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. इससे पहले वे कुछ समझ पाते, श्रीराम ने हाथ जोड़ कर सीता रूपी सती से कहा कि माता आप इस वन में क्या कर रही है? क्या आज महादेव ने आपको अकेले हीं विचरने के लिए छोड़ दिया है? अगर अपने इस पुत्र के लायक कोई सेवा हो तो बताइए. सती ने जब ऐसा सुना तो बहुत लज्जित हुई. वे अपने असली स्वरुप में आ गयी और दोनों को आशीर्वाद देकर वापस कैलाश चली गयी.

    जब वो वापस आई तो शिव ने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने श्रीराम की परीक्षा ली? सती ने झूठ मूठ हीं कह दिया कि उन्होंने कोई परीक्षा नहीं ली. शिव से क्या छुपा था. उन्हें तुरंत पता चल गया कि सती ने सीता का रूप धर कर श्रीराम की परीक्षा ली थी. उन्होंने सोचा कि भले हीं सती ने अनजाने में हीं सीता का रूप धरा था किन्तु शिव सीता को पुत्री के रूप के अतिरिक्त और किसी रूप में देख हीं नहीं सकते थे. अब उनके लिए सती को एक पत्नी के रूप में देख पाना संभव हीं नहीं था. उसी क्षण से शिव मन हीं मन सती से विरक्त हो गए. उनके व्यहवार में आये परिवर्तन को देख कर सती ने अपने पितामह ब्रम्हा से इसका कारण पूछा तो उन्होंने सती को उनकी गलती का एहसास कराया. ब्रम्हदेव ने कहा कि इस जन्म में तो अब शिव किसी भी परिस्थिति में तुम्हे अपनी पत्नी के रूप में नहीं देख सकेंगे. इसी कारण सती ने भी मन हीं मन अपने शरीर का त्याग कर दिया. जब उन्हें अपने पिता दक्ष द्वारा शिव के अपमान के बारे में पता चला तो उन्होंने यज्ञ में जाने की आज्ञा मांगी. शिव ये भली भांति जानते थे कि सती अपने इस शरीर का त्याग करना चाहती है इसलिए उन्होंने सती को यज्ञ में न जाने की सलाह दी किन्तु सती हठ कर कर वहां चली गयी और जैसा कि पहले से तय था, उन्होंने वहां आत्मदाह कर लिया. इस प्रकार दक्ष का यज्ञ केवल सती के शरीर त्याग करने का कारण मात्र बन कर रह गया.

    जब दो ब्रम्हास्त्रों का सामना हुआ

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    महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था. कौरवों की ओर से केवल तीन महारथी हीं जीवित बचे थे - अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा. दुर्योधन की मृत्यु से दुखी अश्वत्थामा ने पांडवों को छल से मारने की प्रतिज्ञा की. उसने दुर्योधन को मरते हुए वचन दिया था कि जैसे भी हो वो पांचों पांडवों को अवश्य मार डालेगा. कृपाचार्य ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की पट अंततः उन्होंने भी उसका साथ देने की स्वीकृति भर दी. युद्ध के समाप्त होने के पश्चात् कृष्ण पाँचों पांडवों को गंगा तट पर जागरण के लिए ले गए थे और उनके शिविर में उनके पाँचों पुत्र प्रतिविन्ध्य, सुतसोम, श्रुत्कार्मन, शतानीक एवं श्रुतसेन सोए हुए थे. इसकी जानकारी अश्वत्थामा को नहीं थी. उसे लगा कि पांडव हीं वहां सोए हुए हैं. उन्होंने इस पाँचों को सोते हुए हीं पांडव समझ कर मार डाला और प्रसन्नतापूर्वक लौट गए. उनके साथ साथ उन्होंने वहां विश्राम कर रहे सरे योद्धाओं को मौत के घाट उतार दिया जिसमे ध्रिस्त्धुम्न और शिखंडी भी थे.

    जब पांडव और द्रौपदी वापस आए तो उपने पुत्रों को मारा हुआ देख द्रौपदी विलाप करने लगी. उसके क्रोध का ठिकाना नहीं रहा. उसने पांडवों से कहा कि जब तक वो अश्वत्थामा का मारा हुआ मुख नहीं देख लेती वो अन्न जल ग्रहण नहीं करेगी. अश्वत्थामा को पकड़ने के लिए पांडव चल दिए जो भागता हुआ महर्षि व्यास के आश्रम में पहुँच चुका था. वहां पहुंचकर भीम ने उससे युद्ध कर उसे परस्त किया. अपने पिता आचार्य द्रोण के वरदान के कारण अश्वत्थामा अमर था. उसे ब्रम्हास्त्र का ज्ञान भी था. उसने पांडवों को समाप्त करने के लिए उनपर ब्रम्हास्त्र चला दिया. पांडवों में ब्रम्हास्त्र का ज्ञान केवल अर्जुन को था. जब कृष्ण ने देखा कि ये ब्रम्हास्त्र पांडवों को मार कर हीं रहेगा तो उन्होंने विवश होकर अर्जुन से भी ब्रम्हास्त्र चलने को कहा क्योंकि एक ब्रम्हास्त्र का सामना केवल दूसरा ब्रम्हास्त्र हीं कर सकता था लेकिन इससे पूरी पृथ्वी का विनाश हो जाता. जब महर्षि व्यास ने देखा कि दोनों ब्रम्हास्त्र टकराने हीं वाले हैं तो उन्होंने देवर्षि नारद की सहायता से दोनों ब्रम्हास्त्रों को रोक दिया. उन्होंने अर्जुन और अश्वत्थामा को समझाया कि इससे पूरी पृथ्वी का विनाश हो जाएगा और उनदोनो को अपना ब्रम्हास्त्र वापस लेने को कहा. उनकी आज्ञा मान कर अर्जुन ने तो अपना ब्रम्हास्त्र वापस ले लिए किन्तु अश्वत्थामा ब्रम्हास्त्र को वापस लेने कि कला नहीं जानता था. महर्षि व्यास ने कहा कि अगर वो अपना ब्रम्हास्त्र वापस नहीं ले सकता तो उसकी दिशा बदल कर उसके प्रभाव को सीमित कर दे. बदले की भावना में जलते अश्वत्थामा ने अपने ब्रम्हास्त्र की दिशा बदल कर उसे अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ पर गिरा दिया जिससे उसके गर्भ से एक मृत शिशु का जन्म हुआ.

    उसके इस कृत्य से पांडव बड़े क्रोधित हुए. वो ब्राम्हण था और अमर भी इस लिए वो उसका वध तो नहीं कर सकते थे इसलिए उन्होंने उसके मस्तक की मणि लेकर उसे आजीवन भटकने के लिए छोड़ दिया. बाद में कृष्ण की कृपा से उस शिशु को नया जीवनदान मिला जिससे उसका नाम परीक्षित पड़ा.

    महाराज युधिष्ठिर से मोहम्मद गोरी तक के वंश का वर्णन

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    महाभारत युद्ध के पश्चात् राजा युधिष्ठिर की ३० पीढ़ियों ने १७७० वर्ष ११ माह १० दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा हैः 
    1. युधिष्ठिर : ३६ वर्ष
    2. परीक्षित: ६० वर्ष
    3. जनमेजय: ८४ वर्ष
    4. अश्वमेध: ८२ वर्ष
    5. द्वैतीयरम: ८८ वर्ष 
    6. क्षत्रमाल: ८१ वर्ष 
    7. चित्ररथ: ७५ वर्ष 
    8. दुष्टशैल्य: ७५ वर्ष 
    9. उग्रसेन: ७८ वर्ष
    10. शूरसेन: ७८ वर्ष 
    11. भुवनपति: ६९ वर्ष 
    12. रणजीत: ६५ वर्ष 
    13. श्रक्षक: ६४ वर्ष 
    14. सुखदेव: ६२ वर्ष 
    15. नरहरिदेव: ५१ वर्ष 
    16. शुचिरथ: ४२ वर्ष 
    17. शूरसेन द्वितीय: ५८ वर्ष 
    18. पर्वतसेन: ५५ वर्ष 
    19. मेधावी: ५२ वर्ष 
    20. सोनचीर: ५० वर्ष 
    21. भीमदेव: ४७ वर्ष
    22. नरहिरदेव द्वितीय: ४७ वर्ष 
    23. पूरनमाल: ४४ वर्ष 
    24. कर्दवी: ४४ वर्ष 
    25. अलामामिक: ५० वर्ष 
    26. उदयपाल: ३८ वर्ष 
    27. दुवानमल: ४० वर्ष 
    28. दामात: ३२ वर्ष 
    29. भीमपाल: ५८ वर्ष 
    30. क्षेमक: ४८ वर्ष 
    क्षेमक के प्रधानमन्त्री विश्व ने क्षेमक का वध करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी १४ पीढ़ियों ने ५०० वर्ष ३ माह १७ दिन तक राज्य किया जिसका विरवरण नीचे दिया जा रहा है।
    1. विश्व: १७ वर्ष 
    2. पुरसेनी: ४२ वर्ष 
    3. वीरसेनी: ५२ वर्ष 
    4. अंगशायी: ४७ वर्ष 
    5. हरिजित: ३५ वर्ष 
    6. परमसेनी: ४४ वर्ष 
    7. सुखपाताल: ३० वर्ष 
    8. काद्रुत: ४२ वर्ष 
    9. सज्ज: ३२ वर्ष  
    10. आम्रचूड़: २७ वर्ष 
    11. अमिपाल: २२ वर्ष 
    12. दशरथ: २५ वर्ष 
    13. वीरसाल: ३१ वर्ष 
    14. वीरसालसेन: ४७ वर्ष 
    वीरसालसेन के प्रधानमन्त्री वीरमाह ने वीरसालसेन का वध करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी १६ पीढ़ियों ने ४४५ वर्ष ५ माह ३ दिन तक राज्य किया जिसका विरवरण नीचे दिया जा रहा है।
    1. वीरमाह: ३५ वर्ष 
    2. अजितसिंह: २७ वर्ष 
    3. सर्वदत्त: २८ वर्ष 
    4. भुवनपति: १५ वर्ष 
    5. वीरसेन: २१ वर्ष 
    6. महिपाल: ४० वर्ष 
    7. शत्रुशाल: २६ वर्ष 
    8. संघराज: १७ वर्ष 
    9. तेजपाल: २८ वर्ष 
    10. मानिकचंद: ३७ वर्ष 
    11. कामसेनी: ४२ वर्ष 
    12. शत्रुमर्दन: ८ वर्ष 
    13. जीवनलोक: २८ वर्ष 
    14. हरिराव: २६ वर्ष 
    15. वीरसेन द्वितीय: ३५ वर्ष 
    16. आदित्यकेतु: २३ वर्ष 
    प्रयाग के राजा धनधर ने आदित्यकेतु का वध करके उसके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी ९ पीढ़ी ने ३७४ वर्ष ११ माह २६ दिन तक राज्य किया जिसका विरवरण नीचे दिया जा रहा है।
    1. धनधर: २३ वर्ष 
    2. महर्षि: ४१ वर्ष 
    3. संरछि: ५० वर्ष 
    4. महायुध: ३० वर्ष 
    5. दुर्नाथ: २८ वर्ष 
    6. जीवनराज: ४५
    7. रुद्रसेन: ४७ वर्ष 
    8. आरिलक: ५२ वर्ष 
    9. राजपाल: ३६ वर्ष 
    सामन्त महानपाल ने राजपाल का वध करके १४ वर्ष तक राज्य किया। 

    अवन्तिका (वर्तमान उज्जैन) के विक्रमादित्य ने महानपाल का वध करके ९३ वर्ष तक राज्य किया। 

    विक्रमादित्य का वध समुद्रपाल ने किया और उसकी १६ पीढ़ियों ने ३७२ वर्ष ४ माह २७ दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
    1. समुद्रपाल: ५४ वर्ष 
    2. चन्द्रपाल: ३६ वर्ष 
    3. सहपाल: ११ वर्ष 
    4. देवपाल: २७ वर्ष 
    5. नरसिंहपाल: १८ वर्ष 
    6. सामपाल: २७ वर्ष 
    7. रघुपाल: २२ वर्ष 
    8. गोविन्दपाल: २७ वर्ष 
    9. अमृतपाल: ३६ वर्ष 
    10. बालिपाल: १२ वर्ष 
    11. महिपाल: १३ वर्ष 
    12. हरिपाल: १४ वर्ष 
    13. सीसपाल: ११ वर्ष (कुछ ग्रंथों में सीसपाल के स्थान पर भीमपाल का उल्लेख मिलता है, सम्भव है कि उसके दो नाम रहे हों।).
    14. मदनपाल: १७ वर्ष 
    15. कर्मपाल: १६ वर्ष 
    16. विक्रमपाल: २४ वर्ष 
    विक्रमपाल ने पश्चिम में स्थित राजा मालकचन्द बोहरा के राज्य पर आक्रमण कर दिया जिसमे मालकचन्द बोहरा की विजय हुई और विक्रमपाल मारा गया। मालकचन्द बोहरा की १० पीढ़ियों ने १९१ वर्ष १ माह १६ दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
    1. मालकचन्द: ५४ वर्ष 
    2. विक्रमचन्द: १२ वर्ष 
    3. मानकचन्द: १० वर्ष 
    4. रामचन्द: १३ वर्ष 
    5. हरिचंद: १४ वर्ष 
    6. कल्याणचन्द: १० वर्ष 
    7. भीमचन्द: १६ वर्ष 
    8. लोवचन्द: २६ वर्ष 
    9. गोविन्दचन्द: ३१ वर्ष 
    10. रानी पद्मावती: १ वर्ष 
    रानी पद्मावती गोविन्दचन्द की पत्नी थीं। कोई सन्तान न होने के कारण पद्मावती ने हरिप्रेम वैरागी को सिंहासनारूढ़ किया जिसकी ४ पीढ़ियों ने 50 वर्ष 0 माह 12 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
    1. हरिप्रेम: ७ वर्ष 
    2. गोविन्दप्रेम: २० वर्ष 
    3. गोपालप्रेम: १५ वर्ष 
    4. महाबाहु: ६ वर्ष 
    महाबाहु ने सन्यास ले लिया। इस पर बंगाल के अधिसेन ने उसके राज्य पर आक्रमण कर अधिकार जमा लिया। अधिसेन की १२ पीढ़ियों ने १५२ वर्ष ११ माह २ दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
    1. अधिसेन: १८ वर्ष 
    2. विल्वसेन: १२ वर्ष 
    3. केशवसेन: १५ वर्ष 
    4. माधवसेन: १२ वर्ष 
    5. मयूरसेन: २० वर्ष 
    6. भीमसेन: ५ वर्ष 
    7. कल्याणसेन: ४ वर्ष 
    8. हरिसेन: १२ वर्ष 
    9. क्षेमसेन: ८ वर्ष 
    10. नारायणसेन: २ वर्ष 
    11. लक्ष्मीसेन: २६ वर्ष 
    12. दामोदरसेन: ११ वर्ष 
    दामोदरसेन ने उमराव दीपसिंह को प्रताड़ित किया तो दीपसिंह ने सेना की सहायता से दामोदरसेन का वध करके राज्य पर अधिकार कर लिया तथा उसकी ६ पीढ़ियों ने १०७ वर्ष ६ माह २२ दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
    1. दीपसिंह: १७ वर्ष 
    2. राजसिंह: १४ वर्ष 
    3. रणसिंह: ९ वर्ष 
    4. नरसिंह: ४५ वर्ष 
    5. हरिसिंह: १३ वर्ष 
    6. जीवनसिंह: ८ वर्ष
    पृथ्वीराज चौहान ने जीवनसिंह पर आक्रमण करके तथा उसका वध करके राज्य पर अधिकार प्राप्त कर लिया। पृथ्वीराज चौहान की ५ पीढ़ियों ने ८६ वर्ष २० दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है। 
    1. पृथ्वीराज: १२ वर्ष 
    2. अभयपाल: १४ वर्ष 
    3. दुर्जनपाल: ११ वर्ष 
    4. उदयपाल: ११ वर्ष 
    5. यशपाल: ३६ वर्ष 
    विक्रम संवत १२४९ (1193 AD) में मोहम्मद गोरी ने यशपाल पर आक्रमण कर उसे प्रयाग के कारागार में डाल दिया और उसके राज्य को अधिकार में ले लिया।

    युधिष्ठिर से पहले प्रजापति ब्रम्हा तक के वंशों का वर्णन देखने के लिए यहाँ क्लिक करें.

    साभार www.hindunet.org

    महर्षि भृगु

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    भार्गववंश के मूलपुरुष महर्षि भृगु जिनको जनसामान्य ॠचाओं के रचिता, भृगुसंहिता के रचनाकार, यज्ञों मे ब्रह्मा बनने वाले ब्राह्मण और त्रिदेवों की परीक्षा में भगवान विष्णु की छाती पर लात मारने वाले मुनि के नाते जानता है। महर्षि भृगु का जन्म प्रचेता ब्रह्मा की पत्नी वीरणी के गर्भ से हुआ था। अपनी माता से सहोदर ये दो भाई थे। इनके बडे भाई का नाम अंगिरा था। इनके पिता प्रचेता ब्रह्मा की दो पत्नियां थी। पहली भृगु की माता वीरणी दूसरी स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी जिनके पुत्र वशिष्ठ जी हुए।

    महर्षि भृगु के भी दो विवाह हुए,इनकी पहली पत्नी दैत्यराज हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या थी और दूसरी पत्नी दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी थी। पहली पत्नी दिव्या से भृगु मुनि के दो पुत्र हुए,जिनके नाम शुक्र और त्वष्टा रखे गए। भार्गवों में आगे चलकर आचार्य बनने के बाद शुक्र को शुक्राचार्य के नाम से और त्वष्टा को शिल्पकार बनने के बाद विश्वकर्मा के नाम से जाना गया। इन्ही भृगु मुनि के पुत्रों को उनके मातृवंश अर्थात दैत्यकुल में शुक्र को काव्य एवं त्वष्टा को मय के नाम से जाना गया है। भृगु मुनि की दूसरी पत्नी पौलमी की तीन संताने हुई. दो पुत्र च्यवन और ॠचीक तथा एक पुत्री हुई जिसका नाम रेणुका था। च्यवन ॠषि का विवाह शर्याति की पुत्री सुकन्या के साथ हुआ। ॠचीक का विवाह महर्षि भृगु ने राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ एक हजार श्यामकर्ण घोडे दहेज मे देकर किया। पुत्री रेणुका का विवाह भृगु मुनि उस समय विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य) के साथ किया।

    भृगु मुनि की पहली पत्नी दिव्या देवी के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप और उनकी पुत्री रेणूका के पति भगवान विष्णु मे वर्चस्व की जंग छिड गई. इस लडाई मे महर्षि भृगु ने पत्न्नी के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप का साथ दिया। क्रोधित विष्णु जी ने सौतेली सास दिव्या देवी को मार डाला. इस पारिवारिक झगडे को आगे नही बढ्ने देने से रोकने के लिए महर्षि भृगु के पितामह ॠषि मरीचि ने भृगु मुनि को नगर से बाहर चले जाने की सलाह दिया और वह धर्मारण्य मे आ गए।

    मन्दराचल पर्वत पर हो रहे यज्ञ में महर्षि भृगु को त्रिदेवों की परीक्षा लेने के लिए निर्णायक चुना गया। भगवान शंकर की परीक्षा के लिए भृगु जी जब कैलाश पहुँचे तो उस समय शंकर जी अपनी पत्नी पार्वती के साथ विहार कर रहे थे. शिवगणों ने महर्षि को उनसे मिलने नही दिया, उल्टे अपमानित करके कैलाश से भगा दिया। महर्षि भृगु ने भगवान शिव को तमोगुणी मानते हुए शाप दे दिया कि आज से आपके लिंग की ही पूजा होगी। 

    यहॉ से महर्षि भृगु अपने पिता ब्रह्मा जी के ब्रह्मलोक पहुँचे वहाँ इनके माता-पिता दोनों साथ बैठे थे जिन्होंने सोचा पुत्र ही तो है,मिलने के लिए आया होगा। महर्षि का सत्कार नही हुआ,तब नाराज होकर इन्होने ब्रह्माजी को रजोगुणी घोषित करते हुए शाप दिया कि आपकी कही पूजा ही नही होगी।

    क्रोध मे तमतमाए महर्षि भगवान विष्णु के श्रीनार पहुचे. वहाँ भी विष्णु जी क्षीरसागर मे विश्राम कर रहे थे और उनकी पत्नी उनका पैर दबा रही थी। क्रोधित महर्षि ने उनकी छाती पर पैर से प्रहार किया। भगवान विष्णु ने महर्षि का पैर पकड लिया और कहा कि मेरे कठोर वक्ष से आपके पैर मे चोट तो नही लगी। महर्षि प्रसन्न हो गए और उनको देवताओ मे सर्वश्रेष्ठ घोषित किया।

    महर्षि के परीक्षा के इस ढग से नाराज मरीचि ॠषि ने इनको प्रायश्चित करने के लिए धर्मारण्य मे तपस्या करके दोषमुक्त होने के लिए गंगातट पर जाने का आदेश दिया। इस प्रकार से भृगु मुनि अपनी दूसरी पत्नी पौलमी को लेकर वहाँ आ गए। यहाँ पर उन्होने गुरुकुल खोला. उस समय यहां के लोग खेती करना नही जानते थे. महर्षि भृगु ने उनको खेती करने के लिए जंगल साफ़ कराकर खेती करना सिखाया। यही रहकर उन्होने ज्योतिष के महान ग्रन्थ भृगुसंहिता की रचना की। कालान्तर मे अपनी ज्योतिष गणना से जब उन्हे यह ज्ञात हुआ कि इस समय यहां प्रवाहित हो रही गंगा नदी का पानी कुछ समय बाद सूख जाएगा तब उन्होने अपने शिष्य दर्दर को भेज कर उस समय अयोध्या तक ही प्रवाहित हो रही सरयू नदी की धारा को यहाँ मंगाकर गंगा-सरयू का संगम कराया।

    अति प्राचीन विश्व के नक्शों पर भारत की स्थिति

    विभिन्न व्यूह रचना

    प्रमुख नाग कुल

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    पुराणों के अनुसार महर्षि कश्यप की पत्नी क्रुदु से नाग जाति की उत्पत्ति हुई जिसमे नागों के आठ प्रमुख कुल चले. इनका वर्णन नीचे दिया गया है:
    1. अनंत (शेषनाग):कद्रू के बेटों में सबसे पराक्रमी शेष नाग था। उसने अपनी छली मां और भाइयों का साथ छोड़कर गंधमादन पर्वत पर तपस्या करनी आरंभ की। उसकी इच्छा थी कि वह इस शरीर का त्याग कर दे। भाइयों तथा मां का विमाता (विनता) तथा सौतेले भाइयों अरुण और गरुड़ के प्रति द्वेष भाव ही उसकी सांसारिक विरक्ति का कारण था। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उसे वरदान दिया कि उसकी बुद्धि सदैव धर्म में लगी रहे। साथ ही ब्रह्मा ने उसे आदेश दिया कि वह पृथ्वी को अपने फन पर संभालकर धारण करे, जिससे कि वह हिलना बंद कर दे तथा स्थिर रह सके। शेष नाग ने इस आदेश का पालन किया। उसके पृथ्वी के नीचे जाते ही सर्पों ने उसके छोटे भाई, वासुकि का राज्यतिलक कर दिया।
    2. वासुकी:वासुकी प्रसिद्ध नागराज जिसकी उत्पत्ति प्रजापति कश्यप के औरस और रुद्रु के गर्भ से हुई थी। इसकी पत्नी शतशीर्षा थी। नागधन्वातीर्थ में देवताओं ने इसे नागराज के पद पर अभिषिक्त किया था। शिव का परम भक्त होने के कारण यह उनके शरीर पर निवास था। जब उसे ज्ञात हुआ कि नागकुल का नाश होनेवाला है और उसकी रक्षा इसके भगिनीपुत्र द्वारा ही होगी तब इसने अपनी बहन जरत्कारु को ब्याह दी। जरत्कारु के पुत्र आस्तीक ने जनमेजय के नागयज्ञ के समय सर्पों की रक्षा की, नहीं तो सर्पवंश उसी समय नष्ट हो गया होता। समुद्रमंथन के समय वासुकी ने पर्वत का बाँधने के लिए रस्सी का काम किया था। त्रिपुरदाह के समय वह शिव के धनुष की डोर बना था।
    3. तक्षक:तक्षक पाताल वासी आठ नागों में से एक है। यह माता 'कद्रू'के गर्भ से उत्पन्न हुआ था तथा इसके पिता कश्यप ऋषि थे। तक्षक 'कोशवश'वर्ग का था। यह काद्रवेय नाग है। श्रृंगी ऋषि के शाप के कारण तक्षक ने राजा परीक्षित को डँसा था, जिससे उनकी मृत्यु हो गयी थी। इससे क्रुद्ध होकर बदला लेने की नीयत से परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने सर्पयश किया था, जिससे डरकर तक्षक इंद्र की शरण में गया। इस पर जनमेजय की आज्ञा से ऋत्विजों के मंत्र पढ़ने पर इंद्र भी खिंचने लगे, तब इंद्र ने डरकर तक्षक को छोड़ दिया। जब तक्षक अग्निकुण्ड के समीप पहुँचा, तब आस्तीक ऋषि की प्रार्थना पर यज्ञ बंद हुआ और तक्षक के प्राण बचे। यह नाग ज्येष्ठ मास के अन्य गणों के साथ सूर्य रथ पर अधिष्ठित रहता है। यह शिव की ग्रीवा के चारों ओर लिपटा रहता है। इसका युद्ध राजा परीक्षित से हुआ था, जिसमे परीक्षित मारे गये थे। जनमेजय ने तक्षशिला के समीप इन तक्षकों से युद्ध किया और इन्हें परास्त किया था।
    4. कर्कोटक:कर्कोटक शिव के एक गण थे. पौराणिक कथाओं के अनुसार सर्पों की माँ ने साँपों के द्वारा अपना वचन भंग करने से श्राप दिया कि वे सब जनमेजय के नाग यज्ञ में जल मरेंगे. इससे भयभीत होकर शेष हिमालय पर , कम्बल नाग ब्रह्माजी के लोक में, शंखचूड़ मणिपुर राज्य में, कालिया नाग यमुना में, धृतराष्ट्र नाग प्रयाग में, एलापत्र ब्रह्मलोक में, और अन्य कुरुक्षेत्र में तप करने चले गए. एलापत्र ने ब्रह्म जी से पूछा - भगवान ! माता के शाप से हमारी मुक्ति कैसे होगी ? तब ब्रह्माजी ने कहा आप महाकाल वन में जाकर महामाया के पास सामने स्थित लिंग की पूजा करो. तब कर्कोटक नाग वहां आया और उन्होंने शिवजी की स्तुति की. शिव ने प्रसन्न होकर कहा कि - जो नाग धर्म का आचरण करते हैं उनका विनाश नहीं होगा. इसके उपरांत कर्कोटक नाग वहीँ लिंग में प्रविष्ट हो गया. तब से उस लिंग को कर्कोटेश्वर कहते हैं. मान्यता है कि जो लोग पंचमी, चतुर्दशी और रविवार को कर्कोटेश्वर की पूजा करते हैं उन्हें सर्प पीड़ा नहीं होती.
    5. पद्म:पद्म नागों का गोमती नदी के पास के नेमिश नामक क्षेत्र पर शासन था। बाद में ये मणिपुर में बस गए थे। असम के नागावंशी इन्हीं के वंश से है। ये नागों की सबसे शक्तिशाली जातियों में से एक मानी जाती है.
    6. महापद्म:महर्षि कश्यप की पत्नी कद्रू ने कई महाबली सर्पों को जन्म दिया. इन्हीं सर्पों में एक है महापद्म. यह भी नाग जाति का सर्प है जो वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म आदि के कुल का है. विष्णु पुराण में सर्प के विभिन्न कुलों में महापद्म का नाम भी आया है. पद्म और महापद्म नाग कुल में विशेष प्रीती थी.
    7. शंख:नागों के आठ मुख्य कुलों में से एक. कहा जाता है कि शंखों पर जो धारियां होती है वो दरअसल इसी नाग का चिन्ह है. ये जाती अन्य नाग जातियों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान मानी जाती थी.
    8. कुलिक:कुलिक नाग जाति नागों में ब्राम्हण कुल की मानी जाती है जिसमे अनंत भी आते हैं. ये अन्य नागों की भांति कश्यप ऋषि के पुत्र थे लेकिन इनका सम्बन्ध सीधे परमपिता ब्रम्हा से भी मना जाता है.
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