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मृतसञ्जीवनी स्त्रोत्र - ४

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आज इस लेख के साथ मृतसञ्जीवनी स्त्रोत्र श्रंखला समाप्त हो रही है। पिछले लेखमें हमने आपको इस महान स्त्रोत्र के ११ से २० श्लोकों का अर्थ बताया था। इस लेख में हम इस स्त्रोत्र के आखिरी १० श्लोकों (२१-३०) को अर्थ सहित बता रहे हैं।

मृतसञ्जीवनं नाम्ना महादेवेन कीर्तितम्।
सहस्त्रावर्तनं चास्य पुरश्चरणमीरितम्।।२१।।

अर्थात:महादेव ने स्वयं मृतसञ्जीवन नामक इस कवच को कहा है। इस कवच की सहस्त्र आवृत्ति को पुरश्चरण कहा गया है। 

य: पठेच्छृणुयानित्यं श्रावयेत्सु समाहित:।
सकालमृत्यु निर्जित्य सदायुष्यं समश्नुते।।२२।।

अर्थात:जो अपने मन को एकाग्र करके नित्य इसका पाठ करता है, सुनता अथावा दूसरों को सुनाता है, वह अकाल मृत्यु को जीतकर पूर्ण आयु का उपयोग करता है।

हस्तेन वा यदा स्पृष्ट्वा मृतं सञ्जीवयत्यसौ।
आधयोव्याधयस्तस्य न भवन्ति कदाचन।।२३।।

अर्थात:जो व्यक्ति अपने हाथ से मरणासन्न व्यक्ति के शरीर का स्पर्श करते हुए इस मृतसञ्जीवन कवच का पाठ करता है, उस आसन्नमृत्यु प्राणी के भीतर चेतनता आ जाती है। फिर उसे कभी आधि-व्याधि नहीं होतीं। 

कालमृत्युमपि प्राप्तमसौ जयति सर्वदा।
अणिमादिगुणैश्वर्यं लभते मानवोत्तम:।।२४।।

अर्थात:यह मृतसञ्जीवन कवच काल के गाल में गये हुए व्यक्ति को भी जीवन प्रदान कर ‍देता है और वह मानवोत्तम अणिमा आदि गुणों से युक्त ऐश्वर्य को प्राप्त करता है।

युद्धारम्भे पठित्वेदमष्टाविंशतिवारकम।
युद्धमध्ये स्थित: शत्रु: सद्य: सर्वैर्न दृश्यते।।२५।।

अर्थात:युद्ध आरम्भ होने के पूर्व जो इस मृतसञ्जीवन कवच का २८ बार पाठ करके रणभूमि में उपस्थित होता है, वह उस समय सभी शत्रुओं अदृश्य रहता है।

न ब्रह्मादिनी चास्त्राणि क्षयं कुर्वन्ति तस्य वै।
विजयं लभते देवयुद्धमध्येऽपि सर्वदा।।२६।।

अर्थात:यदि देवताओं के भी साथ युद्ध छिड जाय तो उसमें उसका विनाश ब्रह्मास्त्र भी नही कर सकते, वह विजय प्राप्त करता है।

प्रातरूत्थाय सततं य: पठेत्कवचं शुभम्।
अक्षय्यं लभते सौख्यमिहलोके परत्र च।।२७।।

अर्थात:जो प्रात:काल उठकर इस कल्याणकारी कवच का सदा पाठ करता है, उसे इस लोक तथा परलोक में भी अक्षय सुख प्राप्त होता है।

सर्वव्याधिविनिर्मुक्त: सर्वरोगविवर्जित:।
अजरामरणो भूत्वा सदा षोडशवार्षिक:।।२८।।

अर्थात:वह सम्पूर्ण व्याधियों से मुक्त हो जाता है, सब प्रकार के रोग उसके शरीर से भाग जाते हैं। वह अजर-अमर होकर सदा के लिये सोलह वर्ष वाला व्यक्ति बन जाता है। 

विचरत्यखिलान् लोकान् प्राप्य भोगांश्च दुर्लभान्।
तस्मादिदं महागोप्यं कवचं समुदाहृतम्।।२९।।

अर्थात:इस लोक में दुर्लभ भोगों को प्राप्त कर सम्पूर्ण लोकों में विचरण करता रहता है। इसलिये इस महागोपनीय कवच को मृतसञ्जीवन नाम से कहा है।

मृतसञ्जीवनं नाम्ना दैवतैरपि दुर्लभम्।
इति वसिष्ठकृतं मृतसञ्जीवन स्तोत्रम्।।३०।।

अर्थात:मृतसंजीवनी नामक यह स्त्रोत्र देवतओं के लिय भी दुर्लभ है। ये वशिष्ठ द्वारा रचित मृतसंजीवनी स्त्रोत्र है। 

महावीर हनुमान की नौ निधियाँ

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पवनपुत्र हनुमान को अष्ट सिद्धि और नौ निधियों का स्वामी कहा गया है। पिछले लेखमें आपने बजरंगबली की आठ सिद्धियों के बारे में पढ़ा था। इस लेख में हम आपको उनकी नौ निधियों के बारे में बताएँगे। निधि का अर्थ धन अथवा ऐश्वर्य होता है। ऐसी वस्तुएं जो अत्यंत दुर्लभ होती हैं, बहुत ही कम लोगों के पास रहती हैं और उन्हें प्राप्त करने के लिए घोर तप करना होता हो, उन्हें ही निधि कहा जाता है। वैसे तो ब्रह्माण्ड पुराण एवं वायु पुराण में कई निधियों का उल्लेख किया गया है किन्तु उनमे से नौ निधियाँ मुख्य होती हैं। कहा जाता है कि हनुमानजी को ये नौ निधियाँ माता सीता ने वरदान स्वरुप दी थी।
  1. रत्न-किरीट:किरीट का अर्थ होता है मुकुट। हनुमान का मुकुट अद्भुत और बहुमूल्य रत्नों से जड़ा हुआ है। इसके समान मूल्यवान और ऐश्वर्यशाली मुकुट संसार में किसी के पास भी नहीं है। औरों का क्या कहें, यहाँ तक कि स्वर्ग और देवताओं के राजा इंद्र का भी मुकुट इससे अधिक मूल्यवान नहीं है।
  2. केयूर:केयूर ऐसा आभूषण होता है जो पुरुष अपनी बाँहों में पहनते हैं। इसे ही भुजबंध या बाहुबंध कहते हैं। हनुमानजी दोनों हाथों में बहुमूल्य स्वर्ण के केयूर पहनते हैं। केयूर केवल आभूषण ही नहीं अपितु युद्ध में महाबली हनुमान के लिए सुरक्षा बंधन का भी कार्य करते हैं।
  3. नूपुर:नूपुर पैरों में पहना जाने वाला एक आभूषण है। बजरंगबली रत्नों से जड़े बहुमूल्य और अद्वितीय नूपुर अपने दोनों पैरों में पहनते हैं। हालाँकि नारियों के नूपुर और पुरुषों के नूपुर में अंतर होता है। नारियां सामान्यतः अपने पैरों में जो नूपुर पहनती हैं उसे ही आज हम घुंघरू के नाम से जानते हैं। इसके उलट पुरुषों के नूपुर ठोस स्वर्ण धातु के बने होते हैं। बजरंगबली के नूपुरों से निकलने वाली आभा से उनके शत्रु युद्धक्षेत्र में नेत्रहीनप्रायः हो जाते हैं।
  4. चक्र:जब भी हम चक्र की बात करते हैं तो हमें भगवान विष्णु अथवा श्रीकृष्ण याद आते हैं। किन्तु आप लोगों को ये जानकर आश्चर्य होगा कि पुराणों में हनुमानजी के चक्र का भी वर्णन आता है। कई चित्रों में आपको चक्रधारी हनुमान दिख जायेंगे। राजस्थान के अलवर में चक्रधारी हनुमान का मंदिर है। जगन्नाथपुरी में तो अष्टभुज हनुमान की मूर्ति है जिनमे से ४ भुजाओं में वे चक्र धारण करते हैं।
  5. रथ:रथ योद्धाओं का सर्वश्रेष्ठ शस्त्र माना जाता है और इसी के आधार पर योद्धाओं को रथी, अतिरथी, महारथीइत्यादि श्रेणियों में बांटा जाता है। हनुमान भी दिव्य रथ के स्वामी हैं जिसपर रहकर युद्ध करने पर उन्हें कोई परास्त नहीं कर सकता। हालाँकि रामायण के लंका युद्ध ने हनुमान के रथ के विषय में अधिक जानकारी नहीं दी गयी है क्यूंकि वे भी अन्य वानरों की भांति पदाति ही लड़े थे। इसके अतिरिक्त हनुमान इतने शक्तिशाली हैं कि किसी को परास्त करने के लिए उन्हें किसी रथ की आवश्यकता नहीं है। महाभारत में भी श्रीकृष्ण के अनुरोध पर हनुमान अर्जुन के रथ की ध्वजा पर बैठे थे।
  6. मणि:मणि कई प्रकार की होती है और पुराणों में नागमणि, पद्म, नीलमणि इत्यादि का वर्णन आया है। हनुमान संसार की सबसे बहुमूल्य मणियों के स्वामी हैं। महाभारत में द्युतसभा में युधिष्ठिर ने अपने पास रखे धन का वर्णन किया था किन्तु उस समस्त धन का मूल्य भी हनुमान की मणियों के समक्ष कम है।
  7. भार्या:वैसे तो हनुमानजी को बाल ब्रह्मचारी कहा जाता है किन्तु पुराणों में हनुमान की पत्नी सुवर्चलाका वर्णन आता है। सुवर्चला सूर्यनारायण की पुत्री थी और सूर्यदेव से शिक्षा प्राप्त करने के समय हनुमान ने उनकी पुत्री से विवाह किया था। कुछ ऐसी शिक्षा थी जो केवल गृहस्थ व्यक्ति को ही दी जा सकती थी। जब सूर्यदेव ने हनुमान को उनके ब्रह्मचर्य के कारण उन विद्याओं को प्रदान करने से मना कर दिया, तब विवश होकर हनुमान को विवाह करना पड़ा ताकि वे सूर्यदेव से पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर सकें। इस विषय में विस्तार से पढ़ने के लिए यहाँजाएँ।
  8. गज:गज वैसे तो प्राणी है किन्तु उसकी गिनती दुर्लभ निधियों में भी होती है। श्रीगणेश के धड़ पर महादेव ने गज का मुख लगा कर उन्हें जीवित किया। समुद्र मंथन से प्राप्त हुई दुर्लभ निधियों में एक गजराज ऐरावत भी था। गज को गौ, सर्प और मयूर के साथ हिन्दू धर्म के ४ सबसे पवित्र जीवों में से एक माना जाता है। हनुमान की गज निधि को उनके बल के रूप में देखा जाता है। हनुमान में असंख्य (कहीं-कहीं १००००००का वर्णन है) हाथियों का बल है और उनका बल ही उनकी निधि है और उस निधि में संसार में कोई और उनसे अधिक संपन्न नहीं है।
  9. पद्म:पद्म निधि के लक्षणों से संपन्न मनुष्य सात्विक गुणयुक्त होता है, तो उसकी कमाई गई संपदा भी सात्विक होती है। सात्विक तरीके से कमाई गई संपदा पीढ़ियों को तार देती है। इसका उपयोग साधक के परिवार में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है। सात्विक गुणों से संपन्न व्यक्ति स्वर्ण-चांदी आदि का संग्रह करके दान करता है। यह सात्विक प्रकार की निधि होती है जिसका अस्तित्व साधक के परिवार में पीढ़ी-दर-पीढ़ी बना रहता है।
इसके अतिरिक्त देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर के पास भी नौ निधियाँ हैं जो मूलतः धन मापनके लिए भी इस्तेमाल की जाती थी। इस विषय में विस्तार से आप यहाँपढ़ सकते हैं। तो इस प्रकार हनुमान और कुबेर दोनों नौ निधियों के स्वामी हैं किन्तु उनमे अंतर ये है कि कुबेर वो निधियाँ किसी को प्रदान नहीं कर सकते किन्तु हनुमान इसे योग्य व्यक्ति को प्रदान कर सकते हैं। इसी लिए हनुमान को अष्ट सिद्धि और नौ निधि का दाता कहा गया है। कुबेर की नौ निधियों के विषय में हम किसी और लेख में बताएँगे।

बालखिल्य

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हमारे सप्तर्षि श्रृंखला में आपने महर्षि क्रतुके विषय में पढ़ा। बालखिल्य इन्ही महर्षि क्रतु के पुत्र हैं। प्रजापति दक्ष की पुत्री सन्नति से महर्षि क्रतु ने विवाह किया जिससे इन्हे ६०००० तेजस्वी पुत्र प्राप्त हुए। इन बाल ऋषियों का आकर केवल अंगूठे जितना था। ये सारे ६०००० पुत्र ही सामूहिक रूप से बालखिल्य कहलाते हैं। महर्षि क्रतु के ये तेजस्वी पुत्र गुण और तेज में अपने पिता के समान ही माने जाते हैं। बालखिल्यों और पक्षीराज गरुड़ का सम्बन्ध बहुत पुराना है। 

पक्षीराज गरुड़ महर्षि कश्यप और वनिता के पुत्र थे। कश्यप की दूसरी पत्नी कुद्रू के गर्भ से १००० नागों से जन्म लिया था और उनकी सहायता से कुद्रू ने छल से विनता को अपनी दासी बना लिया। विनता के गर्भ से सबसे पहले अरुण का जन्म हुआ तो भगवान सूर्यनारायण का सारथि बना। उसके दूसरे पुत्र के रूप में गरुड़ का जन्म हुआ जिसने नागों के कहने पर स्वर्गलोक से अमृत लाकर अपनी माता को दासत्व से मुक्त किया। उस श्रम के बाद गरुड़ को भूख लगी। तब उसके पिता कश्यप ने कहा कि सामने पर्वत शिखर पर एक महाविशालकाय हाथी और कछुआ रहते हैं। तुम उन्हें खाकर अपनी भूख मिटा लो।

तब गरुड़ अपने दोनों पैरों से हाथी और कछुए को लेकर उड़े। पर इतने बड़े प्राणियों को खाएं कैसे? तब उनके पिता महर्षि कश्यप ने बताया कि उत्तर दिशा की ओर एक विशाल वृक्ष है। उसी की शाखा पर बैठकर तुम इन्हे खा लेना। किन्तु ध्यान रखना कि उसी शाखा पर ६०००० बालखिल्य तपस्या करते हैं अतः उन्हें कोई कष्ट ना हो। तब गरुड़ उस हाथी और कछुए को लेकर उस वृक्ष की शाखा पर बैठ गए। किन्तु उनके सम्मलित भार से वो शाखा टूटने लगी। तब उसी शाखा पर बैठे बालखिल्य, जिनका आकर अत्यंत छोटा था, गरुड़ को श्राप देने को उद्धत हुआ। ये देख कर गरुड़ ने उनसे क्षमा मांगी और वहाँ से दूर एक पर्वत शिखर पर हाथी और कछुए का भक्षण किया। 

वापस आकर गरुड़ ने महर्षि कश्यप से पूछा कि वो अत्यंत छोटे आकार के इतने सारे ऋषि कौन हैं। तब कश्यप ने कहा कि - "हे पुत्र! वे बालखिल्य मेरे भाई और तुम्हारे तात लगते हैं। वे मेरे  पिता और तुम्हारे पितामह महर्षि मरीचि के भाई महर्षि क्रतु के पुत्र हैं। तुम्हारा जन्म भी उन्ही के आशीर्वाद से हुआ है क्यूंकि तुम्हारे जन्म के लिए उन बालखिल्यों ने अपने आधे तप का दान कर दिया था।" ये जानकार गरुड़ बड़े आश्चर्य से अपने पिता को उस कथा को कहने का निवेदन करने लगे। 

अपने पुत्र के अनुरोध पर महर्षि कश्यप ने बताया कि एक बार इन बालखिल्यों ने अपने पिता महर्षि क्रतु सहित उनके द्वारा संचालित पुत्र-कामना यज्ञ में भाग लिया। उस यज्ञ में देवराज इंद्र देवताओं सहित उनकी सहायता कर रहे थे। तब महर्षि कश्यप ने देवताओं और बालखिल्यों को समिधा लाने का कार्य सौंपा। इंद्र तो महाबलशाली थे इसीलिए उन्होंने अपने पिता के आगे समिधा का ढेर लगा दिया। किन्तु बालखिल्य तो अंगूठे के आकार के थे इसीलिए एक टहनी लाने में भी सबको बड़ा समय लग रहा था। ये देख कर इंद्र हँसते हुए उन बालखिल्यों का परिहास उड़ाने लगे।

अपना ये अपमान देखकर बालखिल्य अत्यंत रुष्ट होकर उसी यञशाला में एक दूसरे इंद्र की उत्पत्ति हेतु यज्ञ करने लगे। वे इंद्र से भी १०० गुणा अधिक शक्तिशाली और पराक्रमी इंद्र की उत्पत्ति की कामना करते हुए विधिपूर्वक यज्ञाहुति देने लगे। अब इंद्र घबराये और अपने पिता महर्षि कश्यप के पास पहुँचे। तब महर्षि कश्यप ने इंद्र से कहा कि तुमंने बहुत बड़ा अपराध कर दिया है। अब उन्हें केवल उनके पिता महर्षि क्रतु ही समझा सकते हैं। ये कहकर वे महर्षि क्रतु और इंद्र को लेकर साधना में रत बालखिल्यों के पास पहुँचे। 

वहाँ पहुँच कर महर्षि कश्यप ने उन बालखिल्यों से कहा - "हे भ्राता! मेरे पुत्र इंद्र ने अज्ञानतावश आपका अपमान किया है उसके लिए उसे क्षमा करें। आप उसका तेज हरने के लिए जो ये यज्ञ कर रहे हैं उससे मेरा पुत्र संतप्त होगा। ये भी ना भूलिए कि इंद्र आपके भी पुत्र के ही समान है। अतः उसे अज्ञानी समझ कर उसके अपराधों को क्षमा कर दीजिये।" उसी प्रकार बालखिल्यों के पिता महर्षि क्रतुने भी अपने पुत्रों को समझाया और उन्हें इंद्र को क्षमा कर देने के लिए कहा। 

अपने पिता और भाई द्वारा समझाए जाने पर और इंद्र के बारम्बार क्षमा माँगने पर बालखिल्यों ने कहा - "हे भ्राता कश्यप! हम मुनियों की तपस्या व्यर्थ नहीं जा सकती। इसीलिए जिस पुत्र की हमने कामना की है उसका जन्म तो अवश्य होगा। आप भी पुत्र की कामना हेतु ही ये यज्ञ कर रहे थे अतः वो महापराक्रमी आपके ही पुत्र के रूप जन्म लेगा। जिस प्रकार आपका पुत्र इंद्र की पदवी पर विराजमान है, वो पक्षियों का इंद्र होगा और सारे संसार में पूजनीय होगा।" "हे पुत्र!उसी वरदान के कारण तुम्हारा जन्म मेरे पुत्र के रूप में हुआ है।" ये सुनकर गरुड़ बड़े प्रसन्न हुए और पुनः उस वृक्ष के पास जाकर उन बालखिल्यों की पूजा की।

बालखिल्यों को सूर्यनारायण का सबसे बड़ा आराधक बताया गया है। कहा जाता है कि सभी बालखिल्य सूर्यदेव की ओर अपना मुख करके उनके रथ के आगे-आगे उनकी स्तुति करते हुए चलते हैं। इस प्रकार इन ६०००० ऋषियों के तप की शक्ति भगवान सूर्यनारायण को प्राप्त होती रहती है और इसी शक्ति के बल पर सूर्यदेव संसार का पोषण करते हैं।

जब महर्षि भृगु ने त्रिदेवों की परीक्षा ली - १: ब्रह्मदेव

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बहुत काल के बाद महान ऋषियों द्वारा पृथ्वी पर एक महान यज्ञ किया गया। तब उस समय प्रश्न उठा कि इसका पुण्यफल त्रिदेवों में सर्वप्रथम किसे प्रदान किया जाये। तब महर्षि अंगिरा ने सुझाव दिया कि इन तीनों में जो कोई भी "त्रिगुणातीत", अर्थात सत, राज और तम गुणों के अधीन ना हो उसे ही सर्वश्रेष्ठ मान कर यज्ञ का पुण्य सबसे पहले प्रदान किया जाये। किन्तु अब त्रिदेवों की परीक्षा कौन ले? वे तो त्रिकालदर्शी हैं। जो कोई भी उनकी परीक्षा लेने का प्रयास करेगा उसे उनके कोप का भाजन भी बनना पड़ सकता है। तब सप्तर्षियों ने महर्षि भृगु का नाम सुझाया। उनके अनुमोदन पर भृगु त्रिदेवों की परीक्षा लेने को तैयार हो गए। त्रिदेवों से क्या छुपा है, वे भी इस लीला में भाग लेने के लिए सज्ज हो गए।

सबसे पहले महर्षि भृगु अपने पिता ब्रह्मा के पास पहुँचे। वहाँ पहुँच कर उन्होंने ब्रह्मदेव और माता सरस्वती को प्रणाम नहीं किया। इससे ब्रह्मदेव को क्रोध तो बहुत आया किन्तु पुत्र की नासमझी समझ कर उन्होंने कुछ कहा नहीं। तब भृगु ऋषि ने कठोर स्वर में ब्रह्मदेव से कहा - "हे पिताश्री! क्या आप अपने लोक में आने वालों का यही आथित्य करते हैं? आपने तो मुझे आसन ग्रहण करने को भी नही पूछा।" तब परमपिता ब्रह्मा ने हँसते हुए कहा - "पुत्र! तुम अथिति कब से हो गए? तुम तो हमारे पुत्र हो अतः कभी भी यहाँ आ सकते हो। क्या पुत्रों को भी आसन ग्रहण करने के लिए कहने की आवश्यकता है? अतः निःसंकोच आसन ग्रहण करो।" 

लेकिन तब तक भृगु ऋषि के क्रोध का पारा आसमान पर चढ़ गया। उन्होंने बड़े ही कठोर स्वर में अपने पिता से कहा - "हे वृद्ध! आपको तो अपने अतिथि और पुत्र का सम्मान करना भी नहीं आता। क्या आपको ये ज्ञात नहीं कि मैं कितना बड़ा महर्षि हूँ और मेरा तपोबल क्या है? मुझे तो सप्तर्षियों में भी सम्मलित होने का सम्मान प्राप्त है और आपको इतनी भी समझ नहीं है कि इतने सम्माननीय व्यक्ति का स्वागत कैसे करना चाहिए।"

ब्रह्माजी तो सब कुछ जानते ही थे इसीलिए अपने पुत्र की दम्भ भरी बातें सुनकर मुस्कुराते रहे। महर्षि भृगु ने अपनी परीक्षा और कठिन की और खुलकर अपने पिता को अपशब्द बोलने लगे। अपने माता पिता के समक्ष इस प्रकार अपने पुत्र को अपशब्द बोलते देख कर अंततः ब्रह्मदेव को क्रोध आ ही गया। उन्होंने क्रोधित होते हुए कहा - "रे धृष्ट! क्या तुम्हारे यही संस्कार हैं जो अपने पिता से इस स्वर में बात कर रहे हो? तुमने तो ना प्रवेश से पहले आज्ञा ली और ना ही अपने माता पिता को प्रणाम किया। उसपर भी मैंने तुम्हे क्षमा कर दिया किन्तु तुम तो सीमा से परे चले गए हो। अतः अब मैं अवश्य तुम्हे श्राप दे दूंगा।"

ब्रह्माजी को इतना क्रोध में देख कर महर्षि भृगु ने हाथ जोड़ कर उनसे क्षमा मांगी और कहा - "हे परमपिता! मुझे क्षमा कर दें। आपसे क्या छुपा है? आप तो जानते ही हैं कि सप्तर्षियों के कहने पर मैं त्रिदेवों की परीक्षा लेने निकला हूँ। उसी उद्देश्य से मैं यहाँ आया था किन्तु मैंने देखा कि आप भी मेरे अपशब्द कहने पर क्रोधित हो गए। अतः आप त्रिगुणातीत नहीं हो सकते।"

तब ब्रह्मदेव ने कहा - "हे पुत्र! इसमें इतना प्रहसन करने की क्या आवश्यकता थी? अगर तुम मुझसे सीधे भी पूछते तो मैं तुम्हे बता देता कि मैं त्रिगुणातीत नहीं हूँ। मुझमे रजोगुण की अधिकता है और ये सृष्टि के निर्माण के लिए भी आवश्यक है। अतः तुम महादेव और श्रीहरि के पास जा कर उन्हें परखो।"

तब भृगु ऋषि ने कहा - "हे प्रभु! आपको तो अवश्य ही ज्ञात होगा कि आप तीनों में त्रिगुणातीत कौन है। तो आप ही मुझे क्यों नहीं बता देते? आपने तो फिर भी मुझे पुत्र समझ कर क्षमा कर दिया किन्तु महादेव का रौद्र रूप कौन नहीं जानता? मुझे तो उनके समक्ष जाने में ही भय लगता है। अगर आपकी तरह वो भी मुझपर रुष्ट हो गए तब तो मेरी रक्षा त्रिलोक में कोई नहीं करेगा। अतः आप ही मुझे इस प्रश्न का उत्तर दे दीजिये।"

तब ब्रह्मदेव ने हँसते हुए कहा - "वत्स! इसका उत्तर तो मैं अवश्य जनता हूँ किन्तु तुम्हे बताऊंगा नहीं। ऐसा इसलिए क्यूंकि लीलाओं का अपना आनंद है। ये कैसे संभव है कि तुमने मेरी लीला देख ली किन्तु महादेव और श्रीहरि की लीला देखने से वंचित रह जाओ। तुम निःसंकोच होकर महादेव के पास जाओ। वो तो सर्वज्ञ हैं अतः तुम्हारी प्राणहानि नहीं करेंगे। तुम बहुत भाग्यशाली हो कि तुम्हे त्रिदेवों की लीला को देखने का अवसर मिला है।" अपने पिता से ये वचन सुनकर महर्षि भृगु उन्हें प्रणाम कर कैलाश की ओर प्रस्थान कर गए।

...शेष

हनुमानजी की दस गौण सिद्धियां

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पिछले लेखों में आपने महाबली हनुमान की अष्ट सिद्धियोंऔर नौ निधियोंके विषय में पढ़ा। इसके अतिरिक्त पवनपुत्र के पास १० गौण सिद्धियों के होने का भी वर्णन है। ये गोपनीय और रहस्य्मयी १० गौण सिद्धियां जिस किसी के पास भी होती हैं वो अजेय हो जाता है। भागवत पुराण में श्रीकृष्ण ने भी इन १० गौण सिद्धियों के महत्त्व का वर्णन किया है। ये सिद्धियां चमत्कारी हैं और देवों तथा दानवों के लिए भी दुर्लभ हैं। आइये इन १० गौण सिद्धियों के बारे में कुछ जानते हैं: 
  1. अनूर्मिमत्वम्:इस सिद्धि को प्राप्त करने के बाद साधक का मन शांत हो जाता है और उसे किसी भी चीज की इच्छा नहीं रहती। उसके मन पर कोई भी वासना अधिकार नहीं कर सकती। उनकी सभी इन्द्रियां उनके वश में रहती हैं और उसका कोई उलंघन नहीं कर सकता। ऐसा व्यक्ति मनुष्य होते हुए भी देवता तुल्य हो जाता है। महाबली हनुमान भी सदैव अपनी इन्द्रियों को अपने वश में रखते थे। वे प्रसन्नता, क्रोध, दुःख इत्यादि मन के सभी विकारों से परे थे।
  2. दूरश्रवण:जिस साधक को ये सिद्धि प्राप्त होती है वो धीमी से धीमी आवाज भी बड़ी दूर से सुन लेता है। कहा जाता है कि इस सिद्धि को प्राप्त करने पर साधक १ योजन दूर से भी की गयी बात को सुन सकता है। १ योजन करीब ७६ मील या १२३ किलोमीटर के बराबर की दुरी मानी जाती है। 
  3. दूरदर्शनम्:इस सिद्धि को प्राप्त करने के बाद साधक अत्यंत दुरी तक देखने में सफल हो पाता है। इस के साथ ही साधक अदृश्य चीजों को भी देख सकता है। गरुड़ जाति में ये सिद्धि जन्मजात होती है। इसी सिद्धि के बल पर जटायु के बड़े भाई सम्पाती ने १०० योजन बड़े समुद्र के पार देख कर वानरों को माता सीता का पता बता दिया था। अपने विराट स्वरुप में हनुमान भी योजनों दूर की चीजों को देख सकते थे। 
  4. मनोजवः: इस सिद्धि को प्राप्त करने के बाद साधक किसी के भी मन की बात जान सकता है। अगर साधक के सामने कोई कुछ सोच रहा हो तो साधक केवल उसके नेत्रों में देख कर ये जान सकता है कि वो व्यक्ति क्या सोच रहा है। इस सिद्धि से आप आने वाले शत्रु से अपनी रक्षा कर सकते हैं और कोई आपके साथ छल नहीं कर सकता।
  5. कामरूपम्:इस सिद्धि को प्राप्त करने वाला साधक अपनी इच्छा अनुसार कोई भी रूप धारण कर सकता है। हमनुमनजी ने अपनी इस सिद्धि के कारण कई रूप धारण किये। श्रीराम और लक्ष्मण से पहली बार मिलते समय हनुमान एक ब्राह्मण का रूप बनाते हैं। वहीँ माता सीता से वो एक वानर के रूप में मिलते हैं।
  6. परकायाप्रवेशनम्:ये बहुत प्रसिद्ध सिद्धि है। इस सिद्धि को प्राप्त करने के बाद साधक अपना शरीर त्याग कर किसी अन्य के शरीर में प्रवेश कर सकता है। इस सिद्धि में साधक अपनी आत्मा को किसी मृत शरीर में प्रवेश करवा कर उसे जीवित भी कर सकता है। हालाँकि इस सिद्धि में बड़े सावधानी की आवश्यकता है क्यूंकि जब साधक की आत्मा किसी और शरीर में हो तब साधक के अचेत शरीर को कोई जला दे तो वो पुनः अपने शरीर को प्राप्त नहीं कर सकता। अतः ऐसा कहा गया है कि साधक को अत्यंत गोपनीय स्थान पर अपना शरीर त्यागना चाहिए या किसी विश्वासपात्र को अपने शरीर की रक्षा को नियुक्त करना चाहिए।
  7. स्वछन्द मृत्युःइसे इच्छा मृत्यु भी कहा जाता है। इस सिद्धि को प्राप्त साधक अपनी इच्छा अनुसार ही मृत्यु का वरण कर सकता है। अगर वो ना चाहे तो उसकी इच्छा के बिना स्वयं काल भी उसके प्राण नहीं ले सकते। हनुमानजी सप्त चिरंजीवियों में से एक हैं अर्थात कल्प के अंत तक जीवित रहने वाले हैं। महाभारत में भी पितामह भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था।
  8. देवानां सह क्रीडा अनुदर्शनम्:इस सिद्धि को प्राप्त करने पर साधक को देवताओं की कृपा स्वतः ही प्राप्त हो जाती है। उसे देवताओं के दर्शन और सानिध्य प्राप्त होता है। इस सिद्धि को प्राप्त साधक स्वयं देवताओं के समान ही तेजस्वी और शक्तिशाली बन जाता है और उसकी गिनती भी देवताओं में होने लगती है। पवनपुत्र को भी अपनी इच्छा से देवों के दर्शन करने की स्वच्छंदता प्राप्त थी।
  9. यथासंकल्पसंसिद्धिः:इस सिद्धि को प्राप्त करने पर साधक की समस्त इच्छाएं पूर्ण होती है। वो जो भी संकल्प लेता है वो अवश्य पूर्ण होता है। यदि साधक के संकल्प पूर्ति में कोई बाधा हो तो स्वयं देवता साधक की सहायता करते हैं। ऐसा कोई संकल्प नहीं था जो महाबली हनुमान पूर्ण नहीं कर सकते थे। इसी सिद्धि के कारण वे एक ही रात में हिमालय शिखर उखाड़ कर लंका ले आये थे।
  10. आज्ञा अप्रतिहता गतिःइस सिद्धि को प्राप्त साधक को कही भी स्वछन्द आने जाने की स्वतंत्रता होती है। उनकी गति में कुछ बाधक नहीं बनता। बजरंगबली का वेग भी स्वयं पवन के सामान ही था। उनकी गति उनकी आज्ञा अनुसार ही कम अथवा अधिक होती थी और कोई भी उनके वेग को रोक नहीं सकता था। इसी सिद्धि के कारण हनुमान एक ही छलांग में १०० योजन चौड़ा समुद्र लाँघ गए थे।

जब महर्षि भृगु ने त्रिदेवों की परीक्षा ली - २: महादेव

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पिछले लेखमें आपने पढ़ा कि किस प्रकार सप्तर्षियों के अनुरोध पर महर्षि भृगु त्रिदेवों की परीक्षा लेने निकले, ये जानने के लिए कि तीनों में त्रिगुणातीत कौन है? सबसे पहले वे अपने पिता ब्रह्मदेव की परीक्षा लेने पहुँचे किन्तु परमपिता ब्रह्मा ने उन्हें बताया कि वे त्रिगुणातीत नहीं हैं क्यूंकि उनमे रजोगुण की अधिकता है। सृष्टि की रचना के लिए ये गुण होना भी आवश्यक है। तब ब्रह्मदेव ने उन्हें महादेव के पास जाने को कहा। अब आगे...

जब महर्षि भृगु महादेव के पास चले तो वे ये सोच कर चिंतित थे कि त्रिलोक के स्वामी महादेव की किस प्रकार परीक्षा ली जाये? दूसरे, वे तो संहार के स्वामी थे और उनका प्रचंड क्रोध तो जगत में विख्यात था। वे इस बात से भी भयभीत थे कि कही उन्हें महारुद्र के कोप का भाजन ना बनना पड़ जाये। किन्तु महादेव आशुतोष भी थे। वे जितनी जल्दी क्रोधित होते थे उतनी ही जल्दी प्रसन्न भी हो जाते थे। यह सोच कर उन्हें कुछ धीरज बंधा और वे कैलाश पहुँचे। 

वहाँ पहुँचने पर नंदी के नेतृत्व में सभी शिवगणों ने उनका स्वागत किया और उन्हें सूचित किया कि अभी महादेव तपस्या में लीन हैं। जब वे तपस्यारत होते हैं तो किसी को उनसे मिलने की आज्ञा नहीं होती अतः आपको उनके समाधि से बाहर आने तक प्रतीक्षा करनी होगी।

तब उनकी ऐसी बातें सुनकर महर्षि भृगु ने उनसे बिगड़ते हुए कहा - "रे शिव के सेवक! क्या तू मेरे विषय में नहीं जानता? जिस परमपिता ब्रह्मा ने ये समस्त सृष्टि बनाई है, मैं उन्ही ब्रह्मा का पुत्र हूँ। मुझे अपने दर्शनों के लिए तो स्वयं ब्रह्मा और विष्णु भी नहीं रोकते फिर तुम मुझे रोकने का साहस कैसे कर रहा है? तुझे मेरे क्रोध के बारे में ज्ञात नहीं है इसी कारण तू मेरे साथ ऐसी धृष्ट्ता कर रहा है। मुझे रोकने का प्रयास ना कर अन्यथा मैं तुझे अवश्य ही श्राप दे दूंगा।"

महर्षि भृगु की ऐसी बात सुनकर भी नंदी क्रोधित ना होते हुए उनसे बोले - "हे महर्षि! मुझे आपके प्रताप के विषय में सब कुछ पता है और आपका अपमान करना मेरा आशय नहीं था। किन्तु जब महादेव की आज्ञा ना हो तो मैं किस प्रकार आपको भीतर आने दे सकता हूँ। यदि स्वयं ब्रह्मदेव आये होते तो कदाचित मैं उनका मार्ग नहीं रोकता किन्तु उनके और श्रीहरि के अतिरिक्त महादेव की समाधि के समय कोई और कैलाश में प्रवेश नहीं कर सकता। अतः आप अपना क्रोध शांत करें।

अब महर्षि भृगु अत्यंत क्रोध में भरकर बलात कैलाश में प्रवेश करने का प्रयत्न करने लगे। उन्हें रोकने के लिए शिवगणों अहिंसात्मक रूप से प्रयत्न करने लगे। किन्तु इस प्रयास में वहाँ कोलाहल का वातावरण उपस्थित हो गया। इस कोलाहल को सुनकर भगवती पार्वती अपने अंतःपुर से निकल कर वहाँ आ गयी। किन्तु तब तक उस कोलाहल से महादेव की समाधि भंग हो गयी। अब आगे क्या होने वाला है, ये देखने के लिए सारे देवता और सप्तर्षिगण महादेव की लीला को देखने के लिए आकाश में स्थित हो गए।

महादेव ने देखा कि भृगु के कारण ही उनकी समाधि भंग हुई है किन्तु भृगु ब्रह्मा के पुत्र थे इसी कारण उन्होंने अपने क्रोध पर नियंत्रण रखा। उधर शिवगण भृगु को कैलाश में प्रवेश करने से रोक रहे थे तभी महादेव ने उन्हें रोका और भृगु को अपने पास बुलाया और प्रसन्नतापूर्वक उन्हें आलिंगन करने को अपने स्थान से उठे। अब महर्षि भृगु को सही मौका मिला और उन्होंने उनके आलिंगन को अस्वीकार करते हुए कहा - "हे महादेव! आप अनार्यों की भांति भूत-प्रेतों से घिरे रहते हैं और अपने शरीर पर चिता की भस्म लगाए रहते हैं। मैं तो पवित्र ब्राह्मण हूँ अतः मैं आपसे आलिंगन कैसे कर सकता हूँ?"

महादेव अपनी समाधि टूटने से वैसे ही दुखी थे और अब भृगु द्वारा इस प्रकार अपमान करने पर उन्हें बड़ा क्रोध आया। उन्होंने अपना त्रिशूल उठाया और भृगु की ओर बढे। अब भृगु ने सोचा कि अब तो प्राण गए। किन्तु महादेव से उन्हें त्रिलोक में कौन बचा सकता है? तभी उनकी दृष्टि माता पार्वती पर पड़ी। उन्होंने तुरंत माता के चरण पकड़ लिए और उनसे अपनी रक्षा करने की गुहार लगाई। 

अब माता पार्वती आगे आयी और महादेव से प्रार्थना की कि भृगु तो उनके पुत्र की भांति हैं अतः उन्हें प्राणदान दें। उनके ऐसा कहने पर महादेव का क्रोध थोड़ा शांत हुआ। उन्हें शांत देख कर भृगु ने उनके चरण पकड़ते हुए परीक्षा के बारे में बताया। ये सुनकर महादेव हँसते हुए बोले - "महर्षि! आप तो स्वयं ज्ञानी हैं फिर आपने ऐसा कैसे सोचा कि सृष्टि के संहार का जो भार मुझपर है वो बिना तमोगुण के पूर्ण हो सकता है। मुझमे तमोगुण की अधिकता है क्यूंकि संहार के लिए ये आवश्यक है। इसके अतिरिक्त यज्ञ के जिस पुण्य के लिए आप ये परीक्षा ले रहे हैं उसे तो मैंने दक्ष के यज्ञ में ही त्याग दिया था।"

तब भृगु भगवान शिव की स्तुति करते हुए बोले - "हे महादेव! मुझे ये ज्ञात है। आप तो समस्त यज्ञ और पुण्य से परे हैं किन्तु फिर भी इसी बहाने मुझे आपकी इस लीला में भाग लेने का अवसर मिला। इससे मैं कृतार्थ हो गया। अब मेरे लिए क्या आज्ञा है? अब केवल नारायण ही बचे हैं किन्तु सृष्टि के पालनहार की परीक्षा लेने में मुझे संकोच हो रहा है।"

तब महादेव ने कहा - "महर्षि! ये तो कार्य आपने किया है वो नारायण की परीक्षा के बिना अधूरा है। उनकी परीक्षा लेने के बाद ही आपको ज्ञात होगा कि त्रिगुणातीत कौन है। अतः आप निःसंदेह वैकुण्ठ को प्रस्थान करें।" महादेव की ऐसी आज्ञा सुनकर महर्षि भृगु उन्हें प्रणाम कर क्षीरसागर की और बढे।

...शेष

राघवयादवीयम् - विश्व की सबसे अद्भुत रचना

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क्या आप किसी ऐसे ग्रन्थ के विषय में सोच सकते हैं जिसे आप सीधे पढ़े तो कुछ और अर्थ निकले और अगर उल्टा पढ़ें तो कोई और अर्थ? ग्रन्थ को तो छोड़िये, ऐसा केवल एक श्लोक भी बनाना अत्यंत कठिन है। लेकिन क्या आपको पता है कि एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें एक नहीं बल्कि ३० ऐसे श्लोक हैं जिसे अगर आप सीधा पढ़ें तो रामकथा बनती है और उसी को अगर आप उल्टा पढ़ें तो कृष्णकथा। जी हाँ, ऐसा अद्भुत ग्रन्थ हमारे भारत में ही है।

उस ग्रन्थ का नाम है राघवयादवीयम्जिसे १७वीं सदी में कांचीपुरम के महान विद्वान् कवि श्री वेंकटाध्वरिने रचा था। ये ऐसी अद्भुत रचना है जिसमें ३०श्लोक इस निपुणता के साथ रचे गए हैं कि सीधा पढ़ने पर वो रामकथा और उल्टा पढ़ने पर कृष्णकथा बन जाते हैं। इस ग्रन्थ का नाम राघवयादवीयम् भी राघव (श्रीराम) और यादव (श्रीकृष्ण) के योग से बना है। इसे "अनुलोम-विलोम काव्य" भी कहा जाता है जिसका अर्थ होता है ऐसा काव्य जिसके दो अर्थ हों।

वैसे तो इस ग्रन्थ में केवल ३० श्लोक हैं किन्तु अगर हम श्रीराम और श्रीकृष्ण की कथाओं का अलग अलग वर्णन करें तो श्लोकों की कुल संख्या ६०हो जाती है। तो ३० श्लोकों को इस प्रकार से लिखना कि उनमे श्रीराम और श्रीकृष्ण का भाव पूर्ण रूप से रहे, अपने आप में ही एक आश्चर्य है। ये ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखा गया है। शब्दों का ऐसा अद्भुत ताना बाना केवल संस्कृत में ही बुना जा सकता है।

इस कथा के निर्माता श्री वेंकटाध्वरि का जन्म कांचीपुरम के एक गाँव अरसनीपलै में हुआ था। इन्होने कुल १४ रचनाएँ लिखी हैं जिनमे से "राघवयादवीयम्"और "लक्ष्मीसहस्त्रम्"सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। ऐसी किवदंती है कि वेंकटाध्वरि नेत्रहीन थे किन्तु जैसे ही इन्होने लक्ष्मीसहस्त्रम् रचना समाप्त की, माँ लक्ष्मी की कृपा से इन्हे इनकी नेत्रों की ज्योति पुनः प्राप्त हो गयी।

वेंकटाध्वरि श्री वेदांत देशिक के शिष्य थे जिन्होंने इन्हे शास्त्रों की शिक्षा दी। वेदांत देशिक ने ही श्री रामनुजमाचार्य द्वारा स्थापित रामानुज सम्प्रदाय को वेडगलई गुट के द्वारा आगे बढ़ाया। उन्ही के ज्ञान को वेंकटाध्वरि ने अपनी रचनाओं के रूप में आगे बढ़ाया। राघवयादवीयम् में रामकथा बहुत हद तक वाल्मीकि रामायण से मिलती जुलती है किन्तु कृष्णकथा में थोड़ा सा भेद है जो श्लोकों के साथ ही समझ में आता है।

इस रचना के सन्दर्भ में एक आश्चर्यजनक बात ये है कि अगर हम श्रीराम और श्रीकृष्ण के जीवन को देखें तो उन दोनों के जीवन भी एक दूसरे से बिलकुल उलटे हैं। श्रीराम भगवान विष्णु की १२ कलाओं के साथ जन्मे तो श्रीकृष्ण १६, श्रीराम क्षत्रिय कुल में जन्में तो श्रीकृष्ण यादव कुल में, श्रीराम को जीवन भर कष्ट भोगना पड़ा तो श्रीकृष्ण जीवन भर ऐश्वर्य में रहे, श्रीराम को पत्नी का वियोग सहना पड़ा तो श्रीकृष्ण को १६१०८ पत्नियों का सुख प्राप्त हुआ, श्रीराम ने धर्म के लिए कभी छल नहीं किया तो श्रीकृष्ण ने धर्म के लिए छल भी किया।

अगले लेख में हम आपको राघवयादवीयम् के सभी ६० (३० + ३०) श्लोकों का वर्णन हिंदी अर्थ के साथ बताएँगे। इस रचना में एक श्लोक के दो अर्थ हैं इसी लिए इसे कुल ६ भागों में प्रकाशित किया जाएगा। एक भाग में ५ श्लोकों अर्थात रामकथा और कृष्णकथा को मिला कर कुल १० श्लोकों का अर्थ बताया जाएगा। आप भी इस अद्भुत रचना को पढ़ें और उसपर गौरव का अनुभव करें। जय श्रीराम। जय श्रीकृष्ण।।

...शेष

राघवयादवीयम् (श्लोक १ - ५)

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श्लोक १
अनुलोम (रामकथा)

वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः। 
रामः रामाधीः आप्यागः लीलाम् आर अयोध्ये वासे ॥ १॥

अर्थात:मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के संधान में मलय और सहयाद्री की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा अयोध्या वापस लौट दीर्घ काल तक सीता संग वैभव विलास संग वास किया।

विलोम (कृष्णकथा)


सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी मारामोराः।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

अर्थात:मैं भगवान श्रीकृष्ण, जो तपस्वी व त्यागी हैं, रूक्मिणी तथा गोपियों संग क्रीड़ारत रहते हैं, गोपियों के पूज्य हैं, के चरणों में प्रणाम करता हूं। जिनके ह्रदय में मां लक्ष्मी विराजमान हैं तथा जो शुभ्र आभूषणों से मंडित हैं।

श्लोक २

अनुलोम (रामकथा)

साकेताख्या ज्यायामासीत् या विप्रादीप्ता आर्याधारा।
पूः आजीत अदेवाद्याविश्वासा अग्र्या सावाशारावा ॥ २॥

अर्थात:पृथ्वी पर साकेत अर्थात अयोध्या नामक एक नगर था जो वेदों में निपुण ब्राह्मणों तथा वणिको के लिए प्रसिद्द था।  ये अज के पुत्र दशरथ का धाम था एवं यहाँ होने वाले यज्ञों में अर्पण को स्वीकार करने के लिए देवता भी सदा आतुर रहते थे। यह विश्व के सर्वोत्तम नगरों में श्रेष्ठ था।

विलोम (कृष्णकथा)

वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरा पूः।
राधार्यप्ता दीप्रा विद्यासीमा या ज्याख्याता के सा ॥ २॥

अर्थात:समुद्र के मध्य में अवस्थित, विश्व के स्मरणीय नगरों में से एक द्वारका नगर था जहाँ अनगिनत हाथी-घोड़े थे। ये अनेकों विद्वानों के वाद-विवाद की प्रतियोगिता स्थली थी, ये आध्यात्मिक ज्ञान का प्रसिद्द केंद्र था एवं जहाँ राधास्वामी श्रीकृष्ण का निवास था।

श्लोक ३

अनुलोम (रामकथा)

कामभारस्स्थलसारश्रीसौधा असौ घन्वापिका।
सारसारवपीना सरागाकारसुभूररिभूः ॥ ३॥

अर्थात:सर्वकामनापूरक, भवन-बहुल, वैभवशाली धनिकों का निवास, सारस पक्षियों के कूँ-कूँ से गुंजायमान एवं गहरे कूपों (कुओं) से भरा यह स्वर्णिम अयोध्या नगर था।

विलोम (कृष्णकथा)

भूरिभूसुरकागारासना पीवरसारसा।
का अपि व अनघसौध असौ श्रीरसालस्थभामका ॥ ३॥

अर्थात:मकानों में निर्मित पूजा वेदी के चंहुओर ब्राह्मणों का जमावड़ा इस बड़े कमलों वाले नगर द्वारका में है। निर्मल भवनों वाले इस नगर में ऊंचे आम्रवृक्षों के ऊपर सूर्य की छटा निखर रही है।

श्लोक ४

अनुलोम (रामकथा)

रामधाम समानेनम् आगोरोधनम् आस ताम्।
नामहाम् अक्षररसं ताराभाः तु न वेद या ॥ ४॥

अर्थात: श्रीराम की अलौकिक आभा जो सूर्यतुल्य है एवं जिससे समस्त पापों का नाश होता है, उससे पूरा नगर प्रकाशित था। उत्सवों में कमी ना रखने वाला यह नगर अनन्त सुखों का स्रोत तथा ऊंचे भवन एवं वृक्षों के कारण नक्षत्रों की आभा से अनभिज्ञ था।

विलोम (कृष्णकथा)

यादवेनः तु भाराता संररक्ष महामनाः।
तां सः मानधरः गोमान् अनेमासमधामराः ॥ ४॥

अर्थात:यादवों के सूर्य, सबों को प्रकाश देने वाले, विनम्र, दयालु, गऊओं के स्वामी, अतुल शक्तिशाली श्रीकृष्ण के द्वारा की रक्षा भली-भांति की जाती थी।

श्लोक ५

अनुलोम (रामकथा)

यन् गाधेयः योगी रागी वैताने सौम्ये सौख्ये असौ।
तं ख्यातं शीतं स्फीतं भीमान् आम अश्रीहाता त्रातम् ॥ ५॥

अर्थात:गाधीपुत्र गाधेय (ऋषि विश्वामित्र) एक निर्विघ्न, सुखी एवं आनददायक यज्ञ करने को इक्षुक थे पर आसुरी शक्तियों से आक्रान्त थे। उन्होंने शांत, शीतल, गरिमामय त्राता श्रीराम का संरक्षण प्राप्त किया था।

विलोम (कृष्णकथा)

तं त्राता हा श्रीमान् आम अभीतं स्फीतं शीतं ख्यातं।
सौख्ये सौम्ये असौ नेता वै गीरागी यः योधे गायन ॥ ५॥

अर्थात: नारद मुनि, जो दैदीप्यमान, अपनी संगीत से योद्धाओं में शक्ति संचारक, त्राता, सद्गुणों से पूर्ण एवं ब्राह्मणों के नेतृत्वकर्ता के रूप में विख्यात थे, उन्होंने विश्व के कल्याण के लिए गायन करते हुए श्रीकृष्ण से याचना की जिनकी ख्याति में दयावान, शांत, एवं परोपकार को इक्षुक होने के कारण दिनोदिन वृद्धि हो रही थी।

...शेष

जब महर्षि भृगु ने त्रिदेवों की परीक्षा ली - ३: नारायण

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पिछले लेखों में आपने पढ़ा कि किस प्रकार महर्षि भृगु ब्रह्मदेवएवं महादेवकी परीक्षा लेते हैं और दोनों ये बताते हैं कि वे त्रिगुणातीत नहीं हैं। अब महर्षि भृगु अंतिम त्रिदेव श्रीहरि विष्णु की परीक्षा लेने के लिए क्षीरसागर पहुँचते हैं। जब महर्षि भृगु वहाँ पहुँचे तो नारायण के पार्षद जय-विजय ने उन्हें रोका। तब महर्षि भृगु ने उन्हें अपने वहाँ आने का कारण बताया। कोई भगवान नारायण की भी परीक्षा ले सकता है ये सोच कर जय-विजय को बड़ा कौतुहल हुआ और उन्होंने भृगु को प्रवेश की आज्ञा दे दी।

जब भृगु ऋषि अंदर गए तो वहाँ का अलौकिक दृश्य देख कर एक क्षण को मंत्रमुग्ध हो गए। अनंत तक फैले क्षीरसागर में स्वयं देव अनंत (शेषनाग) की शैय्या पर नारायण विश्राम कर रहे थे। त्रिलोक में जिनके रूप का कोई जोड़ नहीं था, वो देवी लक्ष्मी, जो स्वयं महर्षि भृगु और दक्षपुत्री ख्याति की पुत्री थी, नारायण की पाद सेवा कर रही थी। अपनी पुत्री और जमाता का ऐसा अलौकिक रूप देख कर महर्षि भृगु एक क्षण के लिए खो से गए।

जब उनकी चेतना लौटी तब उन्होंने सोचा कि श्रीहरि तो इस जगत के स्वामी है हीं किन्तु उसके साथ-साथ वे उनके जमाता भी लगते हैं। फिर किस प्रकार वे उनकी परीक्षा लें? जमाता को तो लोग अपने शीश पर बिठाते हैं और इसी कारण वे किस प्रकार श्रीहरि को कटु शब्द बोलेंगे? उनकी समझ में कुछ नहीं आया कि वे किस प्रकार भगवान विष्णु की परीक्षा लें। वे उसी प्रकार द्वार पर खड़े रह गए। 

उसी समय अचानक माता लक्ष्मी की दृष्टि द्वार पर खड़े अपने पिता पर पड़ी। उन्होंने उन्हें प्रणाम किया और श्रीहरि के समक्ष बुलाया। महर्षि भृगु अब नारायण की शेष शैय्या तक पहुँचे और देवी लक्ष्मी से कहा कि वे अपने पति को सूचित करे कि उनके पिता वहाँ उपस्थित हैं। ये सुनकर देवी लक्ष्मी ने कहा कि अभी उनके स्वामी योग निद्रा में हैं अतः उन्हें जगाया नहीं जा सकता। उन्हें उनके जागने की प्रतीक्षा करनी होगी।

अब यहाँ प्रभु की माया आरम्भ हुई। अभी तक भृगु त्रिदेवों की परीक्षा ले रहे थे अब उनकी परीक्षा आरम्भ हुई। उन्हें ये पता भी नहीं चला कि कब प्रभु ने उनकी परीक्षा आरम्भ कर दी है। उसी माया के कारण अकस्मात् उन्हें माता लक्ष्मी अपनी एक साधारण पुत्री प्रतीत होने लगी। उस कारण देवी लक्ष्मी के ऐसा करने से उनमें क्रोध का भाव उत्पन्न हो गया। त्रिगुणातीत की खोज करते-करते महर्षि भृगु ये भूल गए कि वे स्वयं त्रिगुणातीत नहीं हैं।

प्रभु की माया से वशीभूत महर्षि भृगु ने क्रोधपूर्वक देवी लक्ष्मी से कहा - "पुत्री! तुम्हे तो अपने पिता से वार्तालाप करने का शिष्टाचार भी नहीं पता। क्या तुम्हे ये ज्ञात नहीं कि पिता की आज्ञा अन्य सभी की आज्ञा से ऊपर होती है। और अगर तुम्हे ये ज्ञात है तो तुम अपने पति को मेरे स्वागत हेतु क्यों नहीं उठा रही। जान पड़ता है कि इस छलिये के साथ रहते-रहते तुम अपने पिता का सम्मान करना भी भूल गयी हो।"

देवी लक्ष्मी ने भृगु की दम्भ भरी बातें सुनी किन्तु ये जानकार कि ये प्रभु की माया से ग्रसित हैं, उन्होंने कुछ नहीं कहा। अब भृगु भगवान विष्णु की ओर मुड़े और ऊँचे स्वर में कहा - "हे नारायण! क्या आपको ये भी नहीं पता कि अपने अतिथि का स्वागत सत्कार कैसे करना चाहिए? मैं ब्रह्मपुत्र भृगु जो महान सप्तर्षिओं में से एक है, स्वयं आपके सामने खड़ा है किन्तु आप समाधि का ढोंग कर मेरा अपमान कर रहे हैं। ये ना भूलिए कि मैं आपका स्वसुर भी हूँ और उस नाते आपको मेरे सम्मान हेतु अपने आसन से उठना चाहिए।"

महर्षि भृगु के इतना कहने पर भी जब नारायण योगनिद्रा से नहीं जागे तो उन्हें लगा कि प्रभु जान बूझ कर उनकी अवहेलना कर रहे हैं। योगमाया से घिरे भृगु को उचित-अनुचित का ध्यान ना रहा और उन्होंने क्रोध में आकर भगवान विष्णु के वक्ष पर पाद-प्रहार कर दिया। त्रिलोक ये देख कर कांप उठा कि इस जगत के पालनहार के वक्ष पर एक मनुष्य ने अपने पैरों से प्रहार किया। देवता और सप्तर्षि ये सोच कर चिंतित हो उठे कि अब पता नहीं भृगु को इस अपराध का क्या दंड मिले।

नारायण पर प्रहार करते ही महर्षि भृगु उनकी माया से बाहर निकल आये। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि उन्होंने कितना बड़ा पाप कर दिया है तो लज्जा के मारे उनके नेत्र ना उठे। उसी समय भृगु के पाद प्रहार के कारण नारायण जागे और इससे पहले भृगु कुछ समझ पाते, भगवान विष्णु ने शेषशैय्या से उतर कर उनके पैर पकड़ लिए। उन्होंने कहा - "हे महर्षि! आपने मेरे वज्र समान वक्ष पर प्रहार किया। कही उससे आपके पैरों में कोई आघात तो नहीं पहुँचा? मैं अत्यंत लज्जित हूँ कि मेरे कारण आपको ऐसा कष्ट उठाना पड़ा।"

अब क्या था? महर्षि भृगु नारायण के चरणों में गिर गए और अपने अश्रुओं से उनके चरण पखारने लगे। आत्मग्लानि के कारण उनके अश्रु रुक ही नहीं पा रहे थे। अंततः नारायण ने स्वयं उन्हें उठाया और उनके अश्रु पोंछे। तब उनकी इस विनम्रता से अभिभूत महर्षि भृगु ने समस्त जगत में घोषणा की - "ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों का महत्त्व एक सामान ही है किन्तु इन तीनों में केवल भगवान् विष्णु ही त्रिगुणातीत हैं।"जय श्रीहरि!

क्या श्रीकृष्ण माँ काली के अवतार हैं? - १

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अगर आपसे कोई पूछे कि श्रीकृष्ण किसके अवतार थे तो १००० में से ९९९ लोग बिना संकोच के कहेंगे कि श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के अवतार थे। हमारे धार्मिक ग्रंथों में भी इस बात की स्पष्ट व्याख्या है कि भगवान श्रीकृष्ण के रूप में श्रीहरि ने अपना ८वां अवतारलिया। कहीं-कहीं उन्हें भगवान विष्णु का नवां अवतार भी कहा जाता है क्यूंकि गौतम बुद्ध को विष्णु अवतार के रूप में मान्यता मिलने में मतभेद है। दशावतार के बारे में आप विस्तार से यहाँपढ़ सकते हैं। लेकिन इसका एक दूसरा पहलु भी है।

जब आप उत्तर प्रदेश में भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली वृन्दावन जायेंगे तो यहाँ का एक विशेष आकर्षण "कृष्ण-काली" मंदिर है। इस मंदिर की विशेषता ये है कि यहाँ पर श्रीकृष्ण की पूजा माँ काली के रूप में होती है। अब आप पूछेंगे कि ये कैसे संभव है? इसका उत्तर ये है कि बहुत कम, लेकिन कुछ जगह श्रीकृष्ण को माँ काली का अवतार ही माना जाता है। विशेषकर "देवी पुराण" में इस बात का वर्णन है कि स्वयं माँ काली ने श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया था। इसके पीछे एक बड़ी रोचक कथा है।

एक बार भगवान शंकर और माता पार्वती भ्रमण कर रहे थे। वातावरण ऐसा था कि महादेव के मन में काम की भावना उत्पन्न हुई। उनकी इच्छा जानकर माता पार्वती उनके समक्ष उपस्थित हुई। किन्तु तब महादेव ने अपनी एक बड़ी ही विचित्र इच्छा बताई। उन्होंने कहा कि उनकी ऐसी इच्छा है कि वे नारी रूप में और माता पार्वती पुरुष के रूप में रमण करें। जब माता पार्वती ने उनकी ऐसी इच्छा सुनी तो उन्होंने कहा कि भविष्य में वे अवश्य ही उनकी ये इच्छा पूर्ण करेंगी।

उस समय पृथ्वी पर दुष्टों का आतंक बहुत बढ़ गया था। जरासंध और कंस के अत्याचारों से पृथ्वी त्राहि-त्राहि कर रही थी। पृथ्वी मनुष्यों के भार को सहन करने में असमर्थ हो रही थी। जब देवताओं ने ये सूचना महादेव को दी तब देवी पार्वती ने उचित समय जानकर पृथ्वी पर अवतार लेने के विषय में सोचा। उन्होंने अपने अंश से महाकाली को उत्पन्न किया और उन्हें पृथ्वी पर अवतरित होने को कहा। साथ ही उन्हें महादेव को दिया गया अपना वचन भी याद था इसी कारण उन्होंने भगवान शंकर से भी नारी रूप में अवतरित होने का अनुरोध किया। इस प्रकार धर्म की रक्षा भी हो जाती और महादेव की इच्छा भी पूर्ण हो जाती।

तब महाकाली ने भगवान श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के आठवें पुत्र के रूप में कंस के कारागार में जन्म लिया और भगवान शंकर ने वृषभानु की पुत्री राधा के रूप में ब्रज में जन्म लिया। हालाँकि हमारे पौराणिक ग्रंथों में इस बात का वर्णन है कि राधा श्रीकृष्ण से आयु में बहुत बड़ी थी। इसके साथ ही महादेव के अंश से श्रीकृष्ण की आठ मुख्य रानियों (कहीं-कहीं १०८ रानियों का भी वर्णन है) - रुक्मिणी, सत्यभामा, जांबवंती, सत्या, कालिंदी, लक्ष्मणा, मित्रवृन्दा एवं भद्रा ने जन्म लिया। यही नहीं, देवी पुराण के अनुसार देवी पार्वती को श्रीकृष्ण के रूप में अवतरित होते देख कर उनकी मुख्य सखियों जया और विजया ने श्रीदामा और वसुदामा नामक गोपों के रूप में जन्म लिया जो श्रीकृष्ण के घनिष्ट मित्र थे।

देवी पुराण के अनुसार भगवान विष्णु ने बलराम और अर्जुन के रूप में अवतार लिया। अधिकांश स्थान पर बलराम को भगवान विष्णु का आठवां अवतार बताया जाता है। अर्जुन अपने भाइयों के साथ वनवास के समय महान कामाख्या शक्तिपीठ पहुँचे जहाँ पर माँ काली ने उन्हें आशीर्वाद दिया और श्रीकृष्ण के रूप में उनकी सहायता करने का वचन दिया। महाभारत युद्ध से पूर्व पांडवों ने सर्वप्रथम माँ भगवती की ही पूजा की जिससे उन्हें विजयश्री प्राप्त हुई। देवी पुराण के अनुसार श्रीकृष्ण ने कंस का वध भी माँ काली के रूप में ही किया।

देवी पुराण के अनुसार जब श्रीकृष्ण के निर्वाण का समय हुआ तो वे समुद्र तट पर पहुँचे। उन्हें वहाँ आया देख कर वहाँ एक रत्नजड़ित रथ आया जिसे स्वयं शिलादपुत्र नंदी खींच रहे थे। उस रथ पर जब श्रीकृष्ण विराजित हुए तो देवताओं ने आकाश से पुष्पवर्षा की। फिर उस रथ को नंदी खींच कर वापस उन्हें अपने धाम कैलाश ले गया। श्रीकृष्ण और माँ काली में कई समानताएं भी हैं। साथ ही एक ऐसा वर्णन आता है कि एक बार माँ काली ने शंकर के अंश से जन्मी राधा के मान की रक्षा भी की थी। इसके बारे में इस लेख के दूसरे भाग में बताया जायेगा। जय श्रीकृष्ण। जय माँ काली।।

...शेष

क्या श्रीकृष्ण माँ काली के अवतार हैं? - २

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पिछले लेखमें आपने पढ़ा कि किस प्रकार देवी पुराण में श्रीकृष्ण को माँ काली का और राधा को भगवान शंकर का अवतार माना गया है। इसका साक्ष्य है वृन्दावन में स्थित श्रीकृष्ण-काली मंदिर। आज के इस लेख में हम मुख्यतः दो बातों का जिक्र करेंगे - पहली एक घटना जिसमे माँ काली ने राधा रूपी भगवान शंकर के मान की रक्षा की। और दूसरी कि माँ काली और श्रीकृष्ण में क्या-क्या समानताएं हैं। तो चलिए आरम्भ करते हैं।

जब कृष्ण १६ वर्ष के हुए तब तक उनकी और बलराम की प्रसिद्धि सम्पूर्ण विश्व में फ़ैल चुकी थी। तब कंस के अंत का समय निकट जानकर उसके मंत्री अक्रूर ने कृष्ण-बलराम को ब्रज से मथुरा ले जाने की ठानी। कंस का अंत तो कृष्ण को ही करना था और यही नियति जानकर श्रीकृष्ण और बलराम ब्रज छोड़ कर मथुरा चले गए। वहाँ प्रथम उन्होंने कंस का वध किया, तत्पश्चात जरासंध के बार-बार के आक्रमण से बचने के लिए एक नयी नगरी द्वारिका बसा कर सभी यादवों सहित वे वहाँ बस गए।

राधा, जो देवी पुराण के अनुसार वास्तव में भगवान शंकर का अवतार थी, श्रीकृष्ण के जाने के बाद ब्रज में अकेली रह गयी। कृष्ण से मिलने की कोई सम्भावना ना देख कर उसके घर वालों ने उसका विवाह "अयन"नामक एक वीर गोप से करवा दिया। कहते हैं इस विवाह का सारा प्रबंध कृष्ण के दत्तक पिता नन्द ने ही करवाया था। राधा का विवाह तो अयन से हो गया किन्तु वो तो अपना तन-मन श्रीकृष्ण को सौंप चुकी थी। इसी कारण राधा सदा ही एकांत में श्रीकृष्ण का ही जाप करती रहती थी।

अयन स्वयं माँ काली का बहुत बड़ा भक्त था और राधा से अत्यंत प्रेम करता था। किन्तु राधा के इस व्यहवार से उसकी ननद को उसपर सदा संदेह रहता था। वो अयन को इस बारे में बताना तो चाहती थी किन्तु बिना साक्ष्य को अयन से क्या कहती? एक दिन उसने राधा को अपने कक्ष में कृष्ण का जाप करते हुए देख लिया। ये देखकर वो तुरंत अपने भाई अयन के पास पहुँची और उससे कहा कि तुम्हारी पत्नी किसी कृष्ण के नाम का जाप कर रही है। ये सुनकर अयन अत्यंत क्रोध में अपनी बहन के साथ घर वापस आया। 

जब वो अपने कक्ष में गया तो देखा कि राधा के मुँह से माँ काली का जाप निकल रहा है। अपनी पत्नी द्वारा अपनी आराध्या के नाम का जाप सुनकर अयन बड़ा प्रसन्न हुआ और अपनी बहन को खूब सुनाया। उसकी बहन को ये रहस्य समझ नहीं आया कि पहले तो राधा कृष्ण के नाम का जाप कर रही थी किन्तु उसके भाई के आते ही वो जाप माँ काली के नाम का कैसा हो गया? 

दरअसल अगर अयन राधा को कृष्ण के नाम का जाप करते देख लेता तो अनर्थ हो जाता। इसी कारण माँ काली ने उसकी लाज बचाने के लिए उसके शब्दों को बदल दिया। जब राधा को ये पता चला तो उसने माँ काली का बहुत धन्यवाद किया और वो भी माँ काली की भक्त बन गयी। तब से ही कृष्ण को "काली" के रूप में एक और नाम मिल गया और राधा के लिए कृष्ण और काली में कोई भेद नहीं रहा। तब से कृष्ण को माँ काली का ही स्वरुप समझा जाता है। आज भी अगर आप बंगाल जायेंगे तो भक्तों को "जय माँ श्यामा काली" और "जय माँ कृष्ण काली" का जयकारा लगाते देख सकते हैं। 

अब जानते हैं कि श्रीकृष्ण और माँ काली में क्या समानताएं हैं:
  • श्रीकृष्ण के दो बाएं हाथों में शंख और पद्म (कमल का फूल) है तो मां काली के दाहिनी ओर के दोनों हाथ भक्तों को अभय दान और वरदान दे रहे हैं। 
  • श्रीकृष्ण के दोनों दाएं हाथों में चक्र और गदा है तो मां काली के दोनों बाएं हाथों में नरमुंड और खड्ग है।
  • अर्थात दो हाथों में दुष्ट शक्तियों के संहार के साधन और दो हाथों में भक्तों की रक्षा और वरदान, यह संकेत श्रीकृष्ण और माँ काली दोनों के चित्र से मिलता है।
  • श्रीकृष्ण को योगेश्वर कहा गया है और माँ काली भी योगमुद्रा में रहती हैं।
  • श्रीकृष्ण के पास दिव्य दृष्टि है तो माँ काली के पास दिव्य तीसरा नेत्र है। 
  • माँ काली अनंत रूपा हैं और श्रीकृष्ण भी अर्जुन को गीता ज्ञान देते हुए अपने अनंत रूप के दर्शन करवाते हैं। अर्थात दोनों के रूप अनंत हैं। 
  • श्रीकृष्ण युद्ध में धर्म अधर्म का ध्यान ना करते हुए दुष्टों को दंड देते हैं। धर्मयुद्ध महाभारत जीतने के लिए वो छल का भी सहारा लेते हैं। माँ काली का क्रोध तो सब जानते ही हैं। क्रोध में उन्होंने उचित-अनुचित का विचार छोड़ सबका नाश आरम्भ कर दिया था। 
  • श्रीकृष्ण और माँ काली दोनों महादेव को समर्पित हैं। 
  • श्रीकृष्ण पुरुष हैं तो माँ काली प्रकृति। वास्तव में दोनों एक ही परमात्मा के दो स्वरुप हैं। जो कृष्ण है वह काली है और जो काली है वही कृष्ण है।
जय माँ काली। जय श्रीकृष्ण।।

राघवयादवीयम् (श्लोक ६ - १०)

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श्लोक ६

अनुलोम (रामकथा)

मारमं सुकुमाराभं रसाज आप नृताश्रितं। 
काविरामदलाप गोसम अवामतरा नते ॥ ६॥

अर्थात:लक्ष्मीपति नारायण के सुन्दर, सलोने एवं तेजस्वी मानव अवतार श्रीराम का वरण रसाजा (भूमिपुत्री), धरातुल्य धैर्यशील, निज वाणी से असीम आनन्द प्रदाता एवं सुधि सत्यवादी सीता – ने किया था।

विलोम (कृष्णकथा)

तेन रातम् अवाम अस गोपालात् अमराविक।
तं श्रित नृपजा सारभं रामा कुसुमं रमा ॥ ६॥

अर्थात:नारद द्वारा लाए गए, देवताओं के रक्षक, सत्यवादी, सत्य द्वारा प्रेषित, तत्वतः (वास्तव में) उज्जवल पारिजात पुष्प के सामान श्रीकृष्ण को नृपजा (नरेश-पुत्री) रमा (रुक्मिणी) ने निज पति के रूप में प्राप्त किया।

श्लोक ७

अनुलोम (रामकथा)

रामनामा सदा खेदभावे दयावान् अतापीनतेजाः रिपौ आनते।
कादिमोदासहाता स्वभासा रसामे सुगः रेणुकागात्रजे भूरुमे ॥ ७॥

अर्थात:श्री राम दुःखियों के प्रति सदैव दयालु, सूर्य की तरह तेजस्वी मगर सहज प्राप्य, देवताओं के सुख में विघ्न डालने वाले राक्षसों के विनाशक, अपने बैरी एवं समस्त भूमि के विजेता, भ्रमणशील रेणुका-पुत्र परशुराम को पराजित कर जिन्होंने अपने तेज-प्रताप से शीतल शांत किया था।

विलोम (श्रीकृष्ण कथा)

मेरुभूजेत्रगा काणुरे गोसुमे सा अरसा भास्वता हा सदा मोदिका।
तेन वा पारिजातेन पीता नवा यादवे अभात् अखेदा समानामर ॥ ७॥

अर्थात:अपराजेय मेरु (सुमेरु) पर्वत से भी सुन्दर रैवतक पर्वत पर निवास करते समय रुक्मिणी को स्वर्णिम चमकीले पारिजात पुष्पों की प्राप्ति उपरांत धरती के अन्य पुष्प कम सुगन्धित एवं अप्रिय लगने लगे। उन्हें कृष्ण की संगत में ओजस्वी, नवकलेवर एवं दैवीय रूप प्राप्त करने की अनुभूति होने लगी।

श्लोक ८

अनुलोम (रामकथा)

सारसासमधात अक्षिभूम्ना धामसु सीतया।
साधु असौ इह रेमे क्षेमे अरम् आसुरसारहा ॥ ८॥

अर्थात:समस्त आसुरी सेना के विनाशक, सौम्यता के प्रतीक एवं प्रभावशाली नेत्रधारी रक्षक राम अपने अयोध्या निवास में सीता संग सानंद रह रहे है थे।

विलोम (कृष्णकथा)

हारसारसुमा रम्यक्षेमेर इह विसाध्वसा।
य अतसीसुमधाम्ना भूक्षिता धाम ससार सा ॥ ८॥

अर्थात:अपने गले में मोतियों के हार जैसे पारिजात पुष्पों को धारण किए हुए, प्रसन्नता व परोपकार की अधिष्ठात्री, निर्भीक रुक्मिणी आतशी पुष्पधारी कृष्ण संग निज गृह को प्रस्थान कर गयी।

श्लोक ९

अनुलोम (रामकथा)

सागसा भरताय इभमाभाता मन्युमत्तया।
स अत्र मध्यमय तापे पोताय अधिगता रसा ॥ ९॥

अर्थात:पाप से परिपूर्ण कैकेयी अपने पुत्र भरत के लिए क्रोधाग्नि से विक्षिप्त हो तप रही थी। लक्ष्मी की कान्ति से उज्जवलित धरती (अयोध्या) को उस मध्यमा (मझली पत्नी) ने पापी विधि से अपने पुत्र भरत के लिए ले लिया।

विलोम (कृष्णकथा)

सारतागधिया तापोपेता या मध्यमत्रसा।
यात्तमन्युमता भामा भयेता रभसागसा ॥ ९॥

अर्थात: सूक्ष्मकटि (पतले कमर वाली), अति विदुषी सत्यभामा, श्रीकृष्ण द्वारा उतावलेपन में पारिजात पुष्प रुक्मिणी को देने से उसे भेदभावपूर्वक जानकर आहत होकर क्रोध और घृणा से भर गई।

श्लोक १०

अनुलोम (रामकथा)

तानवात् अपका उमाभा रामे काननद आस सा।
या लता अवृद्धसेवाका कैकेयी महद अहह ॥ १०॥

अर्थात:क्षीणता के कारण लता जैसी पीतवर्णी और समस्त आनन्दों से परे कैकेयी, श्रीराम के वनगमन का कारण बन उनके अभिषेक को अस्वीकारते हुए वृद्ध राजा की सेवा से विमुख हो गयी।

विलोम (कृष्णकथा)

हह दाहमयी केकैकावासेद्धवृतालया।
सा सदाननका आमेरा भामा कोपदवानता ॥ १०॥

अर्थात:सुमुखी (सुन्दर चहरे वाली) सत्यभामा ने अत्यंत विचलित और अशांत होकर दावाग्नि (जंगल की आग) की तरह क्रोध से लाल हो अपने भवन, जो मयूरों का वास और क्रीडास्थल था, उनके कपाटों को बंद कर दिया ताकि सेविकाओं का प्रवेश अवरुद्ध हो जाए।

...शेष

राघवयादवीयम् (श्लोक ११ - १५)

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श्लोक ११

अनुलोम (रामकथा)

वरमानदसत्यासह्रीतपित्रादरात् अहो।
भास्वरः स्थिरधीरः अपहारोराः वनगामी असौ ॥ ११॥

अर्थात:विनम्र, आदरणीय, सत्य के त्याग से और वचन पालन ना करने से लज्जित होने वाले, अद्भुत, तेजोमय, मुक्ताहारधारी, वीर एवं साहसी श्रीराम वन को प्रस्थान किए।

विलोम (कृष्णकथा)

सौम्यगानवरारोहापरः धीरः स्स्थिरस्वभाः।
हो दरात् अत्र आपितह्री सत्यासदनम् आर वा ॥ ११॥

अर्थात:संगीत की धनी सत्यभामा के प्रति समर्पित वीर, दृढ़चित्त श्रीकृष्ण कदाचित भय व लज्जा से आक्रांत हो सत्यभामा के निवास पंहुचे।

श्लोक १२

अनुलोम (रामकथा)

या नयानघधीतादा रसायाः तनया दवे।
सा गता हि वियाता ह्रीसतापा न किल ऊनाभा ॥ १२॥

अर्थात:अपने शरणागतों को शास्त्रोचित सद्बुद्धि देने वाली, धरती की पुत्री सीता, इस लज्जाजनक कार्य से आहत हो किन्तु अपनी कान्ति को बिना गँवाए वन गमन करने का साहस कर गईं।

विलोम (कृष्णकथा)

भान् अलोकि न पाता सः ह्रीता या विहितागसा।
वेदयानः तया सारदात धीघनया अनया ॥ १२॥

अर्थात:गूढ़ ज्ञान से परिपूर्ण सत्यभामा ने स्वयं को नीचा दिखाने से अपमानित होकर (देवी रुक्मिणी को पुष्प देने के कारण) तेजस्वी रक्षक कृष्ण, जो वैभवदाता हैं और जिनका वाहन गरुड़ है, उनकी ओर देखा ही नहीं।

श्लोक १३

अनुलोम (रामकथा)

रागिराधुतिगर्वादारदाहः महसा हह।
यान् अगात भरद्वाजम् आयासी दमगाहिनः ॥ १३॥

अर्थात:तामसी, उपद्रवी, दम्भी एवं अनियंत्रित शत्रुदल को अपने तेज से दहन करने वाले शूरवीर राम के निकट भारद्वाज आदि संयमी ऋषिगण थकान एवं क्लांत रूप में पँहुच कर याचना की।

विलोम (कृष्णकथा)

नो हि गाम् अदसीयामाजत् व आरभत गा; न या।
हह सा आह महोदारदार्वागतिधुरा गिरा ॥ १३॥

अर्थात:सत्यभामा ने पुष्पधारी श्रीकृष्ण के शब्दों पर ना तो ध्यान दिया और ना ही कुछ बोली जब तक कि श्रीकृष्ण ने पारिजात वृक्ष को लाने का संकल्प नहीं कर लिया।

श्लोक १४

अनुलोम (रामकथा)

यातुराजिदभाभारं द्यां व मारुतगन्धगम्।
सः अगम् आर पदं यक्षतुंगाभः अनघयात्रया ॥ १४॥

अर्थात: अपने तेज एवं प्रताप से असंख्य राक्षसों का नाश करने वाले श्रीराम स्वर्गतुल्य सुगन्धित पवन संचारित स्थल (चित्रकूट) पर यक्षराज कुबेर तुल्य वैभव व आभा संग लिए पंहुचे।

विलोम (कृष्णकथा)

यात्रया घनभः गातुं क्षयदं परमागसः।
गन्धगं तरुम् आव द्यां रंभाभादजिरा तु या ॥ १४॥

अर्थात:मेघवर्ण के श्रीकृष्ण सत्यभामा को उनके द्वारा किये गए अन्याय द्वारा जन्में घोर उपेक्षा को शांत करने हेतु अप्सराओं द्वारा शोभायमान एवं रम्भा जैसी सुंदरियों से जगमगाते स्वर्ग को गए ताकि वे सुगन्धित पारिजात वृक्ष तक पहुँच सकें।

श्लोक १५

अनुलोम रामकथा)

दण्डकां प्रदमो राजाल्या हतामयकारिहा।
सः समानवतानेनोभोग्याभः न तदा आस न ॥ १५॥

अर्थात:दंडकवन में संयमी, स्वस्थ नरेशों के शत्रु भगवान परशुराम को पराजित करने वाले, मनुष्यों को अपने निष्कलंक कीर्ति से आनन्दित करनेवाले श्रीराम ने प्रवेश किया।

विलोम (कृष्णकथा)

न सदातनभोग्याभः नो नेता वनम् आस सः।
हारिकायमताहल्याजारामोदप्रकाण्डदम् ॥ १५॥

अर्थात:सदा आनंददायी जननायक श्रीकृष्ण उस नन्दनवन को जा पहुंचे जो देवराज इंद्र के अतिआनंद का श्रोत था। ये वही इंद्र था जो आकर्षक काया वाली अहिल्या का प्रेमी था एवं जिसने छलपूर्वक अहिल्या की सहमति पा ली थी।

...शेष

शिवलिंग पर क्या अर्पण करना चाहिए?

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*ये चित्र इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से लिए गए हैं। 

क्यों महाभारत के युद्ध को टालना असंभव था?

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कौरवों ने छल से द्युत जीतकर पांडवों को १२ वर्ष के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास पर भेज दिया। पांडवों ने अपना वनवास और अज्ञातवास नियमपूर्वक पूर्ण किया। विराट के युद्ध के पश्चात स्वयं पितामह भीष्म ने कहा कि पांडवों ने सफलतापूर्वक अपना अज्ञातवास पूर्ण कर लिया था किन्तु दुर्योधन अपने हठ पर अड़ा रहा। पांडवों ने धृतराष्ट्र से विनम्रतापूर्वक अपने हिस्से का राज्य माँगा पर पुत्रमोह में पड़ कर धृतराष्ट्र अच्छे-बुरे का विवेक खो बैठे। जब हस्तिनपुर दूत बनकर गए श्रीकृष्ण स्वयं संधि करवाने में असफल रहे तब अंततः महाभारत का युद्ध निश्चित हो गया।


अब पितामह भीष्म और अन्य वृद्धों ने श्रीकृष्ण से एक ऐसी भूमि खोजने का अनुरोध किया जो युद्ध के लिए उपयुक्त हो। श्रीकृष्ण जानते थे कि ये युद्ध मानवता के लिए अत्यंत ही आवश्यक था। वे ये भी जानते थे कि संधि करने के उनके सारे प्रयत्न विफल होंगे। तो अब जब युद्ध की ठन ही गयी तो उन्होंने बहुत सावधानीपूर्वक युद्धभूमि की खोज आरम्भ की। उन्हें इस बात का भय था कि चूँकि दोनों ओर सम्बन्धी ही युद्ध कर रहे हैं, इसीलिए कही ऐसा ना हो कि युद्ध आरम्भ होने के बाद एक दूसरे को आमने सामने देख कर कौरव और पांडव संधि कर लें और इस महायुद्ध का आयोजन विफल हो जाये।

यही कारण था कि वो युद्ध के लिए एक ऐसी भूमि की खोज कर रहे थे जिसका इतिहास अत्यंत भयावह और कठोर रहा हो। ऐसा इस लिए कि वे जानते थे कि इस युद्ध में भाई भाई से, पिता पुत्र से और गुरु शिष्य से युद्ध करने वाले हैं और इसी लिए उनके मन में एक दूसरे के प्रति कठोरता का भाव शिखर पर रहना चाहिए। यही सोच कर उन्होंने अपने गप्तचरों को चारों दिशाओं में भेजा ताकि वो ऐसी भूमि का पता लगा सकें जो सर्वाधिक भयावह एवं कठोर हो।

वापस आकर उनके गुप्तचरों ने अपनी-अपनी दिशा के सर्वाधिक भयावह अनुभव उन्हें बताये किन्तु जो गुप्तचर उत्तर दिशा की ओर गया था उसने वासुदेव से कहा कि उसने कुछ ऐसा देखा है जिससे उसे ये विश्वास है कि समस्त संसार में उससे अधिक भयावह भूमि और कोई नहीं है। श्रीकृष्ण ने आश्चर्य से उससे पूछा कि उसने ऐसा क्या देख लिया जिससे वो ऐसी बात कर रहा है। 

तब उस गुप्तचर ने श्रीकृष्ण को बताया - "हे माधव! मैं कठोर भूमि की खोज में कुरुक्षेत्र तक जा पहुँचा। वहां मैंने देखा कि दो भाई साथ मिलकर खेती कर रहे थे। तभी वर्षा होने लगी और बड़े भाई ने अपने छोटे भाई से कहा कि वो तुरंत एक मेड़ बनाये ताकि पानी उनके खेतों में घुसने से रुक सके। इसपर छोटे भाई ने कहा कि मैं आपका दास नहीं हूँ। आप स्वयं मेंड़ बना लें। ये सुनकर बड़े भाई को इतना क्रोध आया कि उसने अपने छुरे से अपने छोटे भाई की हत्या कर दी और उसके शव को कुचलते हुए मेंड़ के स्थान पर लगा दिया जिससे जल का प्रवाह रुक गया।"

ये सुनकर श्रीकृष्ण भी हतप्रभ रह गए। ऐसी भूमि जहाँ भाई-भाई की हत्या इस नृशंशता से कर दे, वही भूमि उन्हें युद्ध के लिए उचित जान पड़ी। वे ये भी जानते थे कि कुरुक्षेत्र की भूमि पर ही कभी भगवान परशुराम ने २१ बार क्षत्रियों को मार कर उनके रक्त से ५ सरोवर बना दिए थे। कदाचित उसी भीषण हिंसा के प्रभाव से आज भी वहां का वातावरण ऐसा था जहाँ मित्रता और संधि पनप नहीं सकती थी। यही कारण था कि श्रीकृष्ण ने उसी कुरुक्षेत्र की भूमि को महाभारत के युद्ध के लिए चुना। उसी भूमि के प्रभाव से संधि के कई अवसर होते हुए भी वो महायुद्ध रुका नहीं और लाखों लोगों की बलि के साथ ही समाप्त हुआ।

राघवयादवीयम् (श्लोक १६ - २०)

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श्लोक १६

अनुलोम (रामकथा)

सः अरम् आरत् अनज्ञाननः वेदेराकण्ठकुंभजम्।
तं द्रुसारपटः अनागाः नानादोषविराधहा ॥ १६॥

अर्थात: श्रीराम जो महाज्ञानी हैं, जिनकी वाणी वेद है, जिन्हें वेद कंठस्थ है, वो कुम्भज (महर्षि अगस्त्य, जिन्हे ये नाम मटके में जन्म लेने के कारण मिला) के निकट जा पंहुचे। वे निर्मल वृक्ष वल्कल (छाल) परिधानधारी हैं जो अनेक पाप करने वाले विराध के संहारक हैं।

विलोम (कृष्णकथा)

हा धराविषदह नानागानाटोपरसात् द्रुतम्।
जम्भकुण्ठकराः देवेनः अज्ञानदरम् आर सः ॥ १६॥

अर्थात:हाय! उस इंद्र ने जो पृथ्वी को जलप्रदान करने वाले, किन्नरों-गन्धर्वों के सुरीले संगीत रस का आनंद लेने वाले और देवाधिपति हैं, उन्होंने जैसे ही जम्बासुर संहारक श्रीकृष्ण का आगमन सुना, वे अनजाने भय से ग्रसित हो गए।

श्लोक १७

अनुलोम (रामकथा)

सागमाकरपाता हाकंकेनावनतः हि सः।
न समानर्द मा अरामा लंकाराजस्वसा रतम् ॥ १७॥

अर्थात:वेदों में निपुण एवं सन्तों के रक्षक श्रीराम को गरुड़ (जटायु) ने झुक कर नमन किया। वो श्रीराम जिनके प्रति स्वयं लंकेश की बहन (शूर्पणखा) ने भी काम याचना की थी।

विलोम (कृष्णकथा)

तं रसासु अजराकालं म आरामार्दनम् आस न।
स हितः अनवनाकेकं हाता अपारकम् आगसा ॥ १७॥

अर्थात:वे (श्रीकृष्ण), जो वृद्धावस्था व मृत्यु से परे थे, पारिजात वृक्ष की प्राप्ति की इच्छा से स्वर्ग गए। तब इंद्र जो कृष्ण के हितैषी थे, उन्हें स्वर्ग में रहते हुए भी अपार दुःख प्राप्त हुआ।

श्लोक १८

अनुलोम (रामकथा)

तां सः गोरमदोश्रीदः विग्राम् असदरः अतत।
वैरम् आस पलाहारा विनासा रविवंशके ॥ १८॥

अर्थात:पृथ्वी को प्रिय श्रीराम की दाहिनी भुजा एवं उन्हें गौरव प्रदान करने वाले उनके भाई निडर लक्ष्मण द्वारा नाक काटे जाने पर उस मांसभक्षी (शूर्पणखा) ने सूर्यवंशी (श्रीराम) के प्रति बैर पाल लिया।

विलोम (कृष्णकथा)

केशवं विरसानाविः आह आलापसमारवैः।
ततरोदसम् अग्राविदः अश्रीदः अमरगः असताम् ॥ १८॥

अर्थात:उल्लास, जीवनीशक्ति और तेज के ह्रास का भान होने पर केशव (श्रीकृष्ण) से मित्रवत वाणी में इंद्र, जिसने उन्नत पर्वतों को (अपने वज्र से) परास्त कर महत्वहीन किया था, तथा जिसने अमर देवों के नायक के रूप में दुष्ट असुरों को श्रीविहीन किया, उन्होंने धरा व नभ के रचयिता (कृष्ण) से कहा।

श्लोक १९

अनुलोम (रामकथा)

गोद्युगोमः स्वमायः अभूत् अश्रीगखरसेनया।
सह साहवधारः अविकलः अराजत् अरातिहा ॥ १९॥

अर्थात:पृथ्वी व स्वर्ग के सुदूर कोने तक व्याप्त कीर्ति के स्वामी श्रीराम द्वारा खर की सेना को परास्त करने से उनकी छवि एक गौरवशाली, निडर, शत्रु संहारक एवं शालीन योद्धा के रूप में चमक उठी।

विलोम (कृष्णकथा)

हा अतिरादजरालोक विरोधावहसाहस।
यानसेरखग श्रीद भूयः म स्वम् अगः द्युगः ॥ १९॥

अर्थात:हे कृष्ण! सर्वकामनापूर्ति करने वाले देवों के गर्व का शमन करने वाले, जिनका वाहन वेदात्मा गरुड़ है, जो वैभव प्रदाता श्रीपति हैं तथा जिन्हें स्वयं कुछ ना चाहिए, आप इस दिव्य वृक्ष को धरती पर ना ले जाएँ।

श्लोक २०

अनुलोम (रामकथा)

हतपापचये हेयः लंकेशः अयम् असारधीः।
रजिराविरतेरापः हा हा अहम् ग्रहम् आर घः ॥ २०॥

अर्थात:पापी राक्षसों का संहार करनेवाले श्रीराम पर निम्न विचार नीच एवं विकृत लंकेश (रावण) जिनके साथ सदैव मदिरापान करनेवाले क्रूर राक्षसगण विद्यमान रहते थे हैं, उसने आक्रमण करने का विचार किया।

विलोम (कृष्णकथा)

घोरम् आह ग्रहं हाहापः अरातेः रविराजिराः।
धीरसामयशोके अलं यः हेये च पपात हः ॥ २०॥

अर्थात:व्यथाग्रसित हो एवं शत्रु के शक्ति को भूल कर सूर्य की तरह शुभ्र स्वर्णाभूषण द्वारा अलंकृत किन्तु कुत्सित बुद्धि वाले देवराज इंद्र ने उन्हें (श्रीकृष्ण को) बंदी बनाने का आदेश दे दिया।

...शेष

तिरुपति बालाजी - १

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शायद ही कोई ऐसा हो जिसने तिरुपति बालाजी का नाम ना सुना हो। इसे दक्षिण भारत के सब बड़े और प्रसिद्ध मंदिर के रूप में मान्यता प्राप्त है। दक्षिण भारत के अतिरिक्त अन्य राज्यों में भी इस मंदिर की बहुत मान्यता है। यह एक ऐसा मंदिर है जहाँ भगवान विष्णु मनुष्य रूप में  विद्यमान हैं जिन्हे "वेंकटेश" कहा जाता है। इसी कारण इसे "वेंकटेश्वर बालाजी" भी कहते हैं। ये मंदिर विश्व का सबसे अमीर मंदिर है जहाँ की अनुमानित धनराशि ५०००० करोड़ से भी अधिक है। इसके पीछे का कारण बड़ा विचित्र है।

बात तब की है जब देवों और दैत्यों ने मिलकर समुद्र मंथन किया। उस मंथन से अनेक रत्न प्राप्त हुए और उनमे से सबसे दुर्लभ देवी लक्ष्मी की उत्पत्ति हुई। उनका सौंदर्य ऐसा था कि देव और दैत्य दोनों उन्हें प्राप्त करना चाहते थे। किन्तु माता लक्ष्मी ने स्वयं श्रीहरि विष्णु को अपना वर चुन लिया। स्वयं ब्रह्मदेव ने दोनों का विवाह करवाया। विवाह के पश्चात देवी लक्ष्मी ने पूछा कि उनका स्थान कहाँ होगा? तब नारायण ने कहा कि उनका स्थान उनके वक्षस्थल में होगा।

ये सुनकर देवी लक्ष्मी थोड़ा रुष्ट होते हुए बोली - "प्रभु! सभी पुरुष अपनी पत्नियों को अपने ह्रदय में स्थान देते हैं फिर क्या कारण है कि आपने मुझे अपने हृदय के स्थान पर अपने वक्षस्थल में स्थान दिया?" तब श्रीहरि हँसते हुए बोले - "देवी! जिस प्रकार भगवान शिव के ह्रदय में सदैव मेरा ही ध्यान रहता है, उसी प्रकार मेरे ह्रदय में भी महादेव का स्थाई निवास है। यही कारण है कि मैंने आपको अपने वक्षस्थल में स्थान दिया है।"

कुछ काल के बाद सप्तर्षियों द्वारा एक महान यज्ञ किया गया और उसका पुण्यफल सबसे पहले किसे दिया जाये इस विषय में शंका उत्पन्न हो गयी। तब सप्तर्षियों ने निर्णय लिया कि त्रिदेवों में जो त्रिगुणातीत, अर्थात सत, तम एवं राज गुण से परे हो, उन्हें ही सबसे पहले यज्ञ का भाव प्रदान किया जाये। लेकिन त्रिदेवों की परीक्षा कौन ले? तब महर्षि अंगिराने ब्रह्माजी के पुत्र महर्षि भृगु को मनाया। तब महर्षि भृगु ने ब्रह्मा, विष्णुएवं महादेवकी परीक्षा ली। इसके बारे में आप तीन भागों में यहाँपढ़ सकते हैं।

सप्तर्षियों के अनुरोध पर महर्षि भृगु ने पहले ब्रह्मदेवऔर फिर महादेव की परीक्षा ली। उसके बाद अंत में वे भगवान विष्णु की परीक्षा लेने पहुँचे। क्रोध में आकर महर्षि भृगु ने भगवान विष्णु के वक्षस्थल पर अपने पैर से प्रहार किया। इसपर भगवान विष्णु ने उनके चरण पकड़ लिए और पूछा - "हे महर्षि! वज्र के सामान कठोर मेरे वक्ष पर प्रहार करने के कारण आपको चोट तो नहीं आयी?" तब उनकी इस विनम्रता से प्रसन्न होकर महर्षि भृगु ने उन्हें त्रिगुणातीत माना और उन्हें ही यज्ञ के पुण्य का प्रथम अधिकारी माना।

परीक्षा के बाद महर्षि भृगु तो चले गए किन्तु इससे देवी लक्ष्मी बड़ी रुष्ट हुई। प्रभु का वक्षस्थल तो माता लक्ष्मी का निवास स्थान था फिर भृगु ऋषि ने उसपर पाद प्रहार करने का कैसे साहस किया? किन्तु उससे भी अधिक उन्हें भगवान विष्णु पर क्रोध आया कि उन्होंने महर्षि भृगु को दंड देने के स्थान पर उनके चरण पकड़ लिए। उन्हें लगा कि भगवान विष्णु को उनसे प्रेम नहीं है और उसी क्रोध में वे उन्हें त्याग कर चली गयी।

...शेष

राघवयादवीयम् (श्लोक २१ - २५)

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श्लोक २१

अनुलोम (रामकथा)

ताटकेयलवादत् एनोहारी हारिगिर आस सः।
हा असहायजना सीता अनाप्तेना अदमनाः भुवि ॥ २१॥

अर्थात:ताड़कापुत्र मारीच के वध से प्रसिद्द, अपनी वाणी से पाप का नाश करने वाले तथा जो अत्यंत मनभावन है, उनकी हाय सुनकर (मृगरूपी मारीच द्वारा श्रीराम के स्वर में सीता को पुकारने पर) असहाय सीता अपने उस स्वामी श्रीराम के बिना व्याकुल हो गईं।

विलोम (कृष्णकथा)

विभुना मदनाप्तेन आत आसीनाजयहासहा।
सः सराः गिरिहारी ह नो देवालयके अटता ॥ २१॥

अर्थात:प्रद्युम्न संग देवलोक में विचरण कर रहे कृष्ण को रोकने में जयंत के पिता, अथाह संपत्ति के स्वामी एवं पर्वतों को अपनी शक्ति से झुका देने वाले इंद्र असमर्थ हो गए।

श्लोक २२

अनुलोम (रामकथा)

भारमा कुदशाकेन आशराधीकुहकेन हा।
चारुधीवनपालोक्या वैदेही महिता हृता ॥ २२ ॥

अर्थात:लक्ष्मी जैसी तेजस्विता उस सर्वपूजिता सीता का अंत समय आसन्न होने के कारण नीच दुष्ट छली नीच राक्षस (रावण) द्वारा उच्च विचारों वाले वनदेवताओं के सामने ही अपहरण कर लिया गया।

विलोम (कृष्णकथा)

ताः हृताः हि महीदेव ऐक्य अलोपन धीरुचा।
हानकेह कुधीराशा नाकेशा अदकुमारभाः ॥ २२॥

अर्थात: तब एक ब्राह्मण की मैत्री से उस लुप्त अविनाशी, चिरस्थायी ज्ञान व तेज को पुनर्प्राप्त कर नाकेश (इंद्र), जिनकी इच्छा पलायन करने वाले देवताओं की रक्षा करने की थी, उन्होंने आकुल कुमार प्रद्युम्न का प्रताप हर लिया।

श्लोक २३

अनुलोम (रामकथा)

हारितोयदभः रामावियोगे अनघवायुजः।
तं रुमामहितः अपेतामोदाः असारज्ञः आम यः ॥ २३॥

अर्थात:मनोहारी एवं मेघवर्णीय श्रीराम को सीता से वियोग के पश्चात निर्विकार हनुमान और सुग्रीव का सहयोग मिला जो अपनी पत्नी रुमा के श्रद्धेय थे और अपने भाई बाली द्वारा सताए जाने के कारण अपना सुख गवां कर, विचारहीन एवं शक्तिहीन हो श्रीराम के शरणागत हो गए।

विलोम (कृष्णकथा)

यः अमराज्ञः असादोमः अतापेतः हिममारुतम्।
जः युवा घनगेयः विम् आर आभोदयतः अरिहा ॥ २३॥

अर्थात: तब देवताओं से युद्ध का परित्याग कर चुके अतुल्य साहसी प्रद्युम्न, आकाश में संचारित शीतल पवन से पुनर्जीवित हो अपने गुरुजनों का गुणगान किया और तब उनके द्वारा शत्रुओं को पराजित कर उनपर विजय प्राप्त किया गया।

श्लोक २४

अनुलोम  (रामकथा)

भानुभानुतभाः वामा सदामोदपरः हतं।
तं ह तामरसाभक्क्षः अतिराता अकृत वासविम् ॥ २४॥

अर्थात:सूर्य से भी अधिक तेजस्वी, रमणीक पत्नी (सीता) को निरंतर अतुल आनंद प्रदान करने वाले तथा  नयन कमल की भांति उज्जवल हैं, उन श्रीराम ने इंद्र के पुत्र बाली का संहार किया।

विलोम (कृष्णकथा)

विं सः वातकृतारातिक्षोभासारमताहतं।
तं हरोपदमः दासम् आव आभातनुभानुभाः ॥ २४॥

अर्थात:उस कृष्ण ने, जिनके तेज के समक्ष सूर्य भी गौण है, जिसने अपने उत्तेजित सेवक उस गरुड़ की रक्षा की जिसने अपने पंखों की फड़फड़ाहट मात्र से शत्रुओं की शक्ति और गर्व को क्षीण किया था और उन्होंने कभी भगवान शंकर से भी युद्ध किया था। 

श्लोक २५

अनुलोम (रामकथा)

हंसजारुद्धबलजा परोदारसुभा अजनि।
राजि रावण रक्षोरविघाताय रमा आर यम् ॥ २५॥

अर्थात:हंसज (सूर्यपुत्र सुग्रीव) के अपराजेय सैन्यबल की महती भूमिका ने श्रीराम के गौरव में वृद्धि कर उनके द्वारा रावण वध करवा कर उन्हें विजयश्री दिलाई।

विलोम (कृष्णकथा)

यं रमा आर यताघ विरक्षोरणवराजिर।
निजभा सुरद रोपजालबद्ध रुजासहम् ॥ २५॥

अर्थात:उस श्रीकृष्ण के हिस्से में निर्मल विजयश्री की ख्याति आई जो बाणों की वर्षा सहने में समर्थ हैं, जिनका तेज युद्धभूमि को असुर-विहीन करने से चमकता है एवं जिनका स्वाभाविक तेज देवताओं पर विजय से दमक उठा।

...शेष

कुबेर की नौ निधियाँ - १

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कुछ समय पहले हमने आपको पवनपुत्र हनुमान की नौ निधियोंके बारे में बताया था। हनुमानजी को अष्ट सिद्धिऔर नौ निधि का दाता कहा जाता है। जिस प्रकार हनुमान के पास नौ निधियाँ हैं, ठीक उसी प्रकार देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर के पास भी नौ निधियाँ हैं। अंतर केवल इतना है कि हनुमान अपनी नौ निधियों को किसी अन्य को प्रदान कर सकते हैं जबकि कुबेर ऐसा नहीं कर सकते।

निधि का अर्थ होता ऐसा धन जो अत्यंत दुर्लभ हो। इनमे से कई का वर्णन युधिष्ठिर ने भी महाभारत में किया है जिसे आप यहाँदेख सकते हैं। कुबेर को इन निधियों की प्राप्ति महादेव से हुई है। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ना केवल भगवान शंकर ने उन्हें इन निधियों का दान दिया अपितु उन्हें देवताओं के कोषाध्यक्ष का पद भी प्रदान किया।
  1. पद्म:जिस व्यक्ति के पास पद्म निधि होती है वो सात्विक गुणों से युक्त होता है। ये भी कहा जा सकता है कि पद्म निधि को प्राप्त करने के लिए मनुष्य में सात्विक वृत्ति होना आवश्यक है। चूँकि ये निधि सात्विक तरीके से ही प्राप्त की जा सकती है इसी कारण इसका अस्तित्व बहुत समय तक रहता है। कहा जाता है कि पद्म निधि मनुष्य के कई पीढ़ियों को तार देती है और उन्हें कभी धन की कमी नहीं रहती। ये धन इतना अधिक होता है कि मनुष्य उसे पीढ़ी दर पीढ़ी इस्तेमाल करता रहता है किन्तु तब भी ये समाप्त नहीं होती। सात्विक गुणों से संपन्न व्यक्ति इस धन का संग्रह तो करता ही है किन्तु साथ ही साथ उसी उन्मुक्त भाव से उसका दान भी करता है। वैसे इस निधि के उपयोग के लिए पीढ़ी का वर्णन तो नहीं दिया गया है किन्तु फिर भी कहा जाता है कि पद्म निधि मनुष्य की २१ पीढ़ियोंतक चलता रहता है।
  2. महापद्म:ये निधि भी पद्म निधि के सामान ही होती है किन्तु इसका प्रभाव ७ पीढ़ियों तक रहता है। उसके बाद की पीढ़ियाँ इस निधि का लाभ नहीं ले सकती। पद्म की तरह महापद्म निधि भी सात्विक मानी जाती है और जिस मनुष्य के पास ये निधि होती है वो अपने संग्रह किये हुए धन का दान धार्मिक कार्यों में करता है। कुल मिलकर ये कहा जा सकता है कि महापद्म निधि प्राप्त मनुष्य दानी तो होता है किन्तु उसकी ये निधि केवल ७ पीढ़ियोंतक उसके परिवार में रहती है। किन्तु इन सब के पश्चात भी ये निधि या धन इतना अधिक होता है कि अगर मनुष्य दोनों हांथों से भी इसे व्यय करे तो भी पीढ़ी दर पीढ़ी (सात) तक चलता रहता है। इस निधि को प्राप्त व्यक्ति में रजोगुण अत्यंत ही कम मात्रा में रहता है इसी कारण धारक धर्मानुसार इसे व्यय करता है। 
  3. नील:नील निधि को भी सात्विक निधि माना जाता है और इसे प्राप्त व्यक्ति सात्विक तेज से युक्त होता है किन्तु उसमे रजगुण की भी मात्रा रहती है। हालाँकि सत एवं रज गुणों में सतगुण की अधिकता होती है इसी कारण इस निधि को प्राप्त करने वाला व्यक्ति सतोगुणी ही कहलाता है। ये निधि मनुष्य की तीन पीढ़ियों तक उसके पास रहती है। उसके बाद की पीढ़ियों को इसका फल नहीं मिल पाता। सामान्यतः ऐसी निधि व्यापार के माध्यम से ही प्राप्त होती है इसीलिए इसे रजोगुणी संपत्ति भी कहा जाता है। लेकिन चूँकि साधक इस संपत्ति का प्रयोग जनहित में करता है इसीलिए इसे मधुर स्वाभाव वाली निधि भी कहा गया है। रजोगुण की प्रधानता भी होने के कारण ये निधि ३ पीढ़ीसे आगे नहीं बढ़ सकती। इसे प्राप्त करने वाले साधक में दान की वैसी भावना नहीं होती जैसी पद्म एवं महापद्म के धारकों में होती है। किन्तु फिर भी नील निधि का धारक धर्म के लिए कुछ दान तो अवश्य करता है।
  4. मुकुंद:ये निधि रजोगुण से संपन्न होती है और इसे प्राप्त करने वाला मनुष्य भी रजोगुण से समपन्न होता है। ऐसा व्यक्ति सदा केवल धन के संचय करने में लगा रहता है। यही कारण है कि इसे राजसी स्वाभाव वाली निधि कहा गया है। इस निधि को प्राप्त साधक अधिकतर भोग-विलास में लिप्त होता है। हालाँकि वो सम्पूर्णतः राजसी स्वाभाव का नहीं होता और उसने सतगुण का भी योग होता है किन्तु दोनों गुणों में रजगुण की अत्यधिक प्रधानता रहती है। ये निधि १ पीढ़ीतक ही रहती है, अर्थात उस व्यक्ति के बाद केवल उसकी संतान ही उस निधि का उपयोग कर सकती है। उसके पश्चात आने वाली पीढ़ी के लिए ये निधि किसी काम की नहीं रहती। इस निधि को प्राप्त करने वाले धारक में दान की भावना नहीं होती। हालाँकि उसे बार-बार धर्म का स्मरण दिलाने पर वो साधक भी दान करता है।
...शेष

रक्षा बंधन

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आप सभी को रक्षाबंधन एवं स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें। रक्षाबंधन एक अति प्राचीन पर्व है जो हर वर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाता है। इस पर्व में बहनें अपने भाइयों के हाथ में रेशम के धागों का एक सूत्र बाँधती है और उसकी रक्षा की कामना करती है। बदले में भाई भी सदैव अपनी बहन की रक्षा का वचन देता है। ये साधारण सा बंधन भाई एवं बहन की रक्षा की कड़ी है और इसी कारण इसे रक्षा बंधन के नाम से जाना जाता है। सांस्कृतिक रूप से तो इसका बहुत महत्त्व है पर आज हम इसके धार्मिक महत्त्व को जानेंगे।
  • आज भले ही रक्षाबंधन भाई और बहन के पवित्र सम्बन्ध का द्योतक है किन्तु आपको ये जानकर हैरानी होगी कि सर्वप्रथम रक्षाबंधन का प्रसंग पति और पत्नी के सन्दर्भ में आता है। जब प्रथम देवासुर संग्राम में दैत्य देवों पर भारी पड़ने लगे और देवों की पराजय सामने थी तब देवराज इंद्र अपने गुरु बृहस्पति के पास पहुँचे और उन्हें अपनी व्यथा बताई। उनकी पत्नी इन्द्राणी भी वही बैठी थी। उन्होंने अपने वस्त्र से रेशम का एक धागा अलग किया और उसे अभिमंत्रित कर इंद्र की रक्षा हेतु उनकी कलाई पर बांध दिया। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा थी। उस रक्षा कवच के कारण इंद्र उस संग्राम में विजय हुए। तब से ही रक्षाबंधन के इस पवित्र पर्व का आरम्भ हुआ।
  • प्राचीन काल में जब हयग्रीव नामक राक्षस ने वेदों का अपहरण कर लिया तब आज ही के दिन भगवान विष्णु ने हयग्रीव अवतार लेकर उसका वध किया और वेदों की रक्षा की। तब से आज के दिन को रक्षा दिवस के नाम से जाना जाता है।
  • सूर्यदेव की पुत्री यमुना द्वारा भी यमराज को राखी बांधने का प्रसंग हमें पुराणों में मिलता है। भाईदूज की शुरुआत भी यही से हुई।
  • भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर दैत्यराज बलि का मान मर्दन किया और उन्हें पाताल का राज्य दे दिया। उनकी आज्ञा का पालन करते हुए दैत्यराज बलि पाताल तो चले गए किन्तु वहाँ जाकर उन्होंने नारायण की घोर तपस्या की। जब श्रीहरि प्रसन्न हुए तब बलि ने वरदान माँगा कि वे वही पाताल में रहें। तब भगवान विष्णु वहीँ पाताललोक में स्थित हो गए। जब माँ लक्ष्मी को इस बात की जानकारी हुई तब वे घबरा कर पाताललोक पहुँची और दैत्यराज बलि की कलाई में रेशम की डोर बांध कर अपनी रक्षा की गुहार लगाई। इससे बलि ने देवी लक्ष्मी को अपनी भगिनी मानते हुए उन्हें उनकी रक्षा का वचन दिया। तब देवी लक्ष्मी ने दैत्यराज बलि से अपने पति को वापस मांग लिया। तब से भाइयों द्वारा बहनों को वचन के साथ-साथ कुछ उपहार देने की प्रथा भी चली और दैत्यराज बलि के नाम पर इस पर्व का एक नाम "बलेव"भी पड़ा। यही कारण है कि रक्षासूत्र बांधते हुए हम इस मन्त्र का उच्चारण करते हैं: येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबल:। तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥ - अर्थात: जिस सूत्र से महान दानवेन्द्र बलि को बाँधा गया था, उसी रक्षासूत्र से मैं तुम्हे बांधता हूँ। अतः हे रक्षे (राखी) तुम अपने संकल्प से कभी विचलित ना होना। तभी से आज तक ये मन्त्र किसी भी प्रकार के सूत्र को बाँधते समय बोला जाता है।
  • एक बार श्रीगणेश के पुत्रों शुभ एवं लाभ ने अपने पिता को कहा कि उनकी कोई बहन नही है। उन्होंने अपने पिता से उन्हें एक बहन देने का अनुरोध किया। तब श्रीगणेश ने अपनी पत्नी रिद्धि एवं सिद्धि की सतीत्व के ताप से "संतोषी माता"को प्रकट किया। तब संतोषी माँ द्वारा शुभ एवं लाभ को राखी बांधने का प्रसंग आता है।
  • रक्षाबंधन का एक प्रसंग महाभारत में तब आता है जब राजसु यज्ञ में शिशुपाल का वध करने के पश्चात सुदर्शन की धार से श्रीकृष्ण का रक्त बह निकला। तब द्रौपदी ने अपनी रेशमी साड़ी को चीर कर श्रीकृष्ण के घाव पर बाँधा। तब श्रीकृष्ण ने सदैव द्रौपदी की रक्षा का वचन दिया और चीरहरण के समय अपने इस वचन का पालन भी किया। 
  • महाभारत में ही जब युधिष्ठिर जब श्रीकृष्ण से संकटों से बचने का उपाय पूछते हैं तो श्रीकृष्ण उन्हें राखी का पर्व मानाने की सलाह देते हैं। यशोदा की पुत्री एकानंगा एवं सुभद्रा द्वारा श्रीकृष्ण एवं बलराम को रक्षासूत्र बाँधने का प्रसंग भी आता है। इसके अतिरिक्त एक प्रसंग आता है जब युद्ध से पहले कुंती अभिमन्यु की कलाई पर रक्षासूत्र बांधती है।
  • अमरनाथ की महान यात्रा भी गुरु पूर्णिमा से आरम्भ होकर आज के ही दिन समाप्त होती है। यही नहीं, समय के साथ बढ़ता महादेव का बर्फानी शिवलिंग भी आज के ही दिन अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है।
  • कम्ब एवं तमिल भाषा में रचित रामायण में भी ऋष्यश्रृंग की पत्नी और श्रीराम की बड़ी बहन शांता द्वारा चारों भाइयों को रक्षासूत्र बांधने का वर्णन भी है।
  • प्राचीन काल में जब विद्यार्थी अपनी पढाई पूरी कर गुरुकुल से निकलता था तब उसके गुरु उसकी कलाई पर रक्षासूत्र बांधते थे ताकि वो उनके द्वारा प्राप्त की गयी विद्या का सदुपयोग कर सके।
  • जैन धर्म में भी रक्षाबंधन का वर्णन है। कहा जाता है कि इसी दिन विष्णुकुमार नामक मुनिराज ने ७०० जैन मुनियों की रक्षा की थी।
इसके अतिरक्त राखी का ऐतिहासिक महत्त्व भी है। जब राजपूत युद्ध को जाते थे तब स्त्रियां उन्हें कुमकुम लगाने के साथ उनकी कलाई पर रेशमी रक्षासूत्र भी बांधती थी। मेवाड़ की रानी कर्णावती ने अपने राज्य की रक्षा के लिए हुमांयू को राखी भेजी थी। उनकी राखी पाकर हुमांयू मुसलमान होते हुए भी उनकी रक्षा हेतु सेना सहित मेवाड़ आये और बहादुरशाह की सेना को खदेड़ दिया। एक ऐसा वर्णन है कि सिकंदर की पत्नी ने पोरस को अपनी पति की रक्षा के लिए राखी बंधी थी। यही कारण था कि पोरस सिकंदर पर प्रहार नहीं कर सका और पराजित हुआ। बाद में उसी रक्षासूत्र के कारण सिकंदर ने पोरस को सम्मानसहित उसका राज्य लौटा दिया।
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