आज इस लेख के साथ मृतसञ्जीवनी स्त्रोत्र श्रंखला समाप्त हो रही है। पिछले लेखमें हमने आपको इस महान स्त्रोत्र के ११ से २० श्लोकों का अर्थ बताया था। इस लेख में हम इस स्त्रोत्र के आखिरी १० श्लोकों (२१-३०) को अर्थ सहित बता रहे हैं।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना महादेवेन कीर्तितम्।
सहस्त्रावर्तनं चास्य पुरश्चरणमीरितम्।।२१।।
अर्थात:महादेव ने स्वयं मृतसञ्जीवन नामक इस कवच को कहा है। इस कवच की सहस्त्र आवृत्ति को पुरश्चरण कहा गया है।
य: पठेच्छृणुयानित्यं श्रावयेत्सु समाहित:।
सकालमृत्यु निर्जित्य सदायुष्यं समश्नुते।।२२।।
अर्थात:जो अपने मन को एकाग्र करके नित्य इसका पाठ करता है, सुनता अथावा दूसरों को सुनाता है, वह अकाल मृत्यु को जीतकर पूर्ण आयु का उपयोग करता है।
हस्तेन वा यदा स्पृष्ट्वा मृतं सञ्जीवयत्यसौ।
आधयोव्याधयस्तस्य न भवन्ति कदाचन।।२३।।
अर्थात:जो व्यक्ति अपने हाथ से मरणासन्न व्यक्ति के शरीर का स्पर्श करते हुए इस मृतसञ्जीवन कवच का पाठ करता है, उस आसन्नमृत्यु प्राणी के भीतर चेतनता आ जाती है। फिर उसे कभी आधि-व्याधि नहीं होतीं।
कालमृत्युमपि प्राप्तमसौ जयति सर्वदा।
अणिमादिगुणैश्वर्यं लभते मानवोत्तम:।।२४।।
अर्थात:यह मृतसञ्जीवन कवच काल के गाल में गये हुए व्यक्ति को भी जीवन प्रदान कर देता है और वह मानवोत्तम अणिमा आदि गुणों से युक्त ऐश्वर्य को प्राप्त करता है।
युद्धारम्भे पठित्वेदमष्टाविंशतिवारकम।
युद्धमध्ये स्थित: शत्रु: सद्य: सर्वैर्न दृश्यते।।२५।।
अर्थात:युद्ध आरम्भ होने के पूर्व जो इस मृतसञ्जीवन कवच का २८ बार पाठ करके रणभूमि में उपस्थित होता है, वह उस समय सभी शत्रुओं अदृश्य रहता है।
न ब्रह्मादिनी चास्त्राणि क्षयं कुर्वन्ति तस्य वै।
विजयं लभते देवयुद्धमध्येऽपि सर्वदा।।२६।।
अर्थात:यदि देवताओं के भी साथ युद्ध छिड जाय तो उसमें उसका विनाश ब्रह्मास्त्र भी नही कर सकते, वह विजय प्राप्त करता है।
प्रातरूत्थाय सततं य: पठेत्कवचं शुभम्।
अक्षय्यं लभते सौख्यमिहलोके परत्र च।।२७।।
अर्थात:जो प्रात:काल उठकर इस कल्याणकारी कवच का सदा पाठ करता है, उसे इस लोक तथा परलोक में भी अक्षय सुख प्राप्त होता है।
सर्वव्याधिविनिर्मुक्त: सर्वरोगविवर्जित:।
अजरामरणो भूत्वा सदा षोडशवार्षिक:।।२८।।
अर्थात:वह सम्पूर्ण व्याधियों से मुक्त हो जाता है, सब प्रकार के रोग उसके शरीर से भाग जाते हैं। वह अजर-अमर होकर सदा के लिये सोलह वर्ष वाला व्यक्ति बन जाता है।
विचरत्यखिलान् लोकान् प्राप्य भोगांश्च दुर्लभान्।
तस्मादिदं महागोप्यं कवचं समुदाहृतम्।।२९।।
अर्थात:इस लोक में दुर्लभ भोगों को प्राप्त कर सम्पूर्ण लोकों में विचरण करता रहता है। इसलिये इस महागोपनीय कवच को मृतसञ्जीवन नाम से कहा है।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना दैवतैरपि दुर्लभम्।
इति वसिष्ठकृतं मृतसञ्जीवन स्तोत्रम्।।३०।।
अर्थात:मृतसंजीवनी नामक यह स्त्रोत्र देवतओं के लिय भी दुर्लभ है। ये वशिष्ठ द्वारा रचित मृतसंजीवनी स्त्रोत्र है।