Quantcast
Channel: धर्म संसार | भारत का पहला धार्मिक ब्लॉग
Viewing all 664 articles
Browse latest View live

सप्तर्षि श्रंखला ९ - महर्षि पुलस्त्य

$
0
0
महर्षि पुलस्त्य भी परमपिता ब्रह्मा के मानस पुत्रों एवं प्रजापतियों में से एक हैं। महाभारत और पुराणों में इनके विषय में बहुत कुछ लिखा गया है। कहते हैं कि जगत में जो कुछ भी शांति और सुख का अनुभव होता है, उसमे महर्षि पुलस्त्य की बहुत बड़ी भूमिका है। इनका स्वाभाव अत्यंत दयालु बताया गया है जो देव, दानव, मानव में कोई भेद-भाव नहीं करते। महाभारत में इस बात का उल्लेख है कि अपने पिता ब्रह्मा की आज्ञा से महर्षि पुलस्त्य ने पितामह भीष्म को ज्ञान प्रदान किया था।

अपने पिता भगवान ब्रह्मा की आज्ञा से महर्षि पुलस्त्य ने प्रजापति दक्ष की कन्या प्रीतीऔर प्रजापति कर्दम की कन्या हविर्भुवा (मानिनी) से विवाह किया। इनके कई पुत्र थे किन्तु दो पुत्रों ऐसे रहे जिन्होंने अपने तप से देवत्व को प्राप्त किया। इनके पहले पुत्र थे दत्तोलिजो आगे चलकर स्वयंभू मन्वन्तर में महर्षि अगस्त्यके नाम से प्रसिद्ध हुए। महर्षि अगस्त्य के विषय में कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है क्यूंकि वे अपने पिता के सामान ही तेजस्वी थे और हिन्दू धर्म के सर्वाधिक प्रभावशाली ऋषियों में उनका नाम सर्वोपरि है। 

कर्दम प्रजापति की कन्या हविर्भुवा से इन्हे विश्रवानाम का एक पुत्र प्राप्त हुआ। यही विश्रवा यक्ष एवं रक्ष (राक्षस) जाति के जनक थे। विश्रवा का विवाह महर्षि भारद्वाज की पुत्री और महर्षि गर्ग की बहन इडविला से हुआ जिससे उन्हें कुबेर नाम का पुत्र प्राप्त हुआ। यही कुबेर यक्षों सम्राट बनें। आगे चल कर विश्रवा ने राक्षसराज माली की पुत्री कैकसी से विवाह किया जिससे उन्हें रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण नामक तीन पुत्र और शूर्पनखा नामक एक पुत्री की प्राप्ति हुई। इसी रावण ने रक्षाओं के प्रताप को अपने शिखर पर पहुँचाया। राक्षसों के वंश के विषय में विस्तार से यहाँपढ़ें।

इसके अतिरिक्त विष्णु पुराण में इनके एक पुत्र निदाघ का भी वर्णन आता है जिसने महर्षि ऋभु से तत्वज्ञान प्राप्त किया था। इस प्रकार महर्षि पुलस्त्य यक्षों और राक्षसों, दोनों के आदि पुरुष थे। कहा जाता है कि दक्ष के यज्ञ ध्वंस के समय अन्य लोगों के साथ महर्षि पुलस्त्य भी जलकर मृत्यु को प्राप्त हो गए थे। वैवस्वत मन्वंतर में ब्रह्मा के सभी मानस पुत्रों के साथ पुलस्त्य का भी पुनर्जन्म हुआ था। इन्होने महादेव को तप से प्रसन्न किया और उनसे लंका में अपने तप हेतु एक स्थाई स्थान प्राप्त किया।

महर्षि पुलस्त्य के विवाह के विषय में पुराणों में एक रोचक कथा भी है। कथा के अनुसार एक बार वे मेरु पर्वत पर तपस्या कर रहे थे। वहाँ रहने वाली अप्सराएँ बार-बार वहाँ आकर हास-परिहास करती थी जिससे उनके तप में विघ्न पड़ता था। इससे क्रोधित होकर उन्होंने श्राप दे दिया कि जो कोई भी कन्या उनके सामने आएगी वो गर्भवती हो जाएगी। इस श्राप से घबराकर अप्सराओं ने वहाँ आना बंद कर दिया। किन्तु एक दिन वैशाली की राजा की कन्या, जिसे इस श्राप के बारे में पता नहीं था, भूलवश महर्षि के समक्ष आ गयी जिससे वो गर्भवती हो गयी। तब बाद में महर्षि पुलस्त्य ने उससे भी विवाह किया।

महर्षि पुलस्त्य ने अपने पिता ब्रह्मा से विष्णु पुराण सुना और फिर उसे अपने शिष्य महर्षि पराशर को सुनाया। तब उनकी आज्ञा से महर्षि पराशर ने इस पुराण का ज्ञान अन्य मनुष्यों को प्रदान किया। एक कथा के अनुसार मरुतवंशी चक्रवर्ती सम्राट तृणबिन्दु ने महर्षि पुलस्त्य को अपने यज्ञ में ब्रह्मा का स्थान लेने का अनुरोध किया। उन्होंने यज्ञ में केवल स्वर्ण का ही उपयोग किया और उसका परिमाण इतना था कि महर्षि पुलस्त्य दक्षिणा में कुछ स्वर्ण लेकर बाँकी को वही छोड़ कर वापस चले गए। उसके बाद बहुत काल बीतने के बाद उसी बचे हुए स्वर्ण का भाग युधिष्ठिर को प्राप्त हुआ जिससे उन्होंने इंद्रप्रस्थ नगरी बसाई और राजसू यज्ञ किया।

महर्षि पुलस्त्य और गोवर्धन पर्वत की कथा भी बहुत रोचक है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में ये पर्वत ३०००० हाथ (मीटर) ऊँचा हुआ करता था। एक बार महर्षि पुलस्त्य वहाँ आये और गोवर्धन की सुंदरता देख कर मंत्रमुग्ध हो गए। उन्होंने गोवर्धन के पिता द्रोणाचल से गोवर्धन को काशी ले जाने की बात कही। द्रोणाचल तो मान गए किन्तु गोवर्धन ने कहा कि अगर आप मुझे बीच मार्ग में कही भी रख देंगे तो मैं वही स्थापित हो जाऊंगा। महर्षि पुलस्त्य ने इस शर्त को मान लिया। 

जब वे गोवर्धन को उठाकर ब्रजमंडल पहुंचे तो उन्हें लघुशंका लगी और इस कारण उन्हें गोवर्धन को वही रखना पड़ा। जब वे वापस आये तो उन्होंने गोवर्धन को उठाने का बहुत प्रयास किया किन्तु अपनी शर्त के अनुसार गोवर्धन वही अड़ गए। तब क्रोधित होकर महर्षि पुलस्त्य ने उसे श्राप दिया कि वो रोज १ मुट्ठी कम होता चला जाएगा। इस पर्वत को श्रीकृष्ण ने अपनी छोटी अँगुली पर उठा लिया था। कहते हैं आज भी ये लगातार कम होता जा रहा है। ये पर्वत मथुरा से करीब २२ किलोमीटर पर स्थित है। 

जब महर्षि पुलस्त्य के पोते रावण ने सहस्त्रार्जुन से युद्ध किया तो उसने उसे परास्त कर बंदी बना लिया और उसे मृत्युदंड देने का निश्चय किया। तब महर्षि पुलस्त्य सहस्त्रार्जुन की राजधानी महिष्मति पहुँचे। इन्हे आया देख कर कर्त्यवीर्यअर्जुन ने उनकी अभ्यर्थना की और उनसे वहाँ आने का कारण पूछा। तब महर्षि पुलस्त्य ने उसे रावण को मुक्त करने को कहा। ये जानकर कि रावण उनका पौत्र है, सहस्त्रार्जुन ने तत्काल महर्षि की आज्ञा का पालन करते हुए रावण को मुक्त कर दिया। इस प्रकार महर्षि पुलस्त्य ने अपने पौत्र के प्राणों की रक्षा की। 

महर्षि पुलस्त्य का वर्णन जैन धर्म में भी आया है। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने बहुत दिनों तक राज्यपालन करने के पश्चात् अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को राज्य सौंप दिया। उसके बाद जब वो वनगमन को निकले तब मुक्ति की प्राप्ति हेतु उन्होंने महर्षि पुलस्त्य को ही अपना गुरु बनाया और उनकी के आश्रम पर उन्होंने तपस्या की। कहते हैं आज भी विश्व कल्याण हेतु महर्षि पुलस्त्य तपस्यारत रहते हैं। 

भीष्मक

$
0
0
महाराज भीष्मक विदर्भ के सम्राट थे। ये महाराज जरासंध और शिशुपाल के मित्र थे और मगध सदैव इनके राज्य की सुरक्षा के लिए तत्पर रहता था। इनके रुक्मी, रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश एवं रुक्ममाली नामक एक पुत्र और रुक्मिणी नामक एक पुत्री थी। उनकी पुत्री रुक्मिणी का विवाह श्रीकृष्ण से हुआ। इस प्रकार भीष्मक यदुवंश के भी सम्बन्धी बन गए। हालाँकि रुक्मिणी हरण के समय श्रीकृष्ण से पराजित होने के बाद रुक्मी ने विदर्भ छोड़ दिया और भोजकट में अपना राज्य बसाया। इस विषय में आप यहाँपर पढ़ सकते हैं। 

जब युधिष्ठिर ने राजसू यज्ञ किया और उनके भाई अलग-अलग दिशाओं में दिग्विजय के लिए निकले तब सहदेव अपनी यात्रा के दौरान विदर्भ पहुँचे। तब तक भीम ने जरासंध का वध कर दिया था इसी कारण विदर्भ के ऊपर से मगध का छत्र उठ चुका था। किन्तु उस स्थिति में भी जब सहदेव ने भीष्मक को युधिष्ठिर के समक्ष समर्पण करने को कहा तो भीष्मक ने मना कर दिया। तब सहदेव और भीष्मक में युद्ध हुआ और दो दिन के घोर युद्ध के पश्चात अंततः सहदेव ने उन्हें परास्त कर दिया। 

भीष्मक के जन्म के विषय में एक कथा हमें पुराणों में मिलती है। बहुत काल पहले एक पुजारी थे जो एक शिव मंदिर में रोज पूजा करते थे। जब पूजा के पश्चात वे प्रसाद लेकर बाहर निकलते थे तो एक कुत्ता सबसे पहले उन्हें वहाँ खड़ा दीखता था। इसी कारण वो रोज प्रसाद सबसे पहले पहले उस कुत्ते को ही देते थे। ऐसे करते-करते वर्षों बीत गए और हर बार वो पुजारी मंदिर का प्रसाद बाहर खड़े उस कुत्ते को खिलते रहे। इतने वर्षों के साथ के कारण उनके मन में उस कुत्ते के प्रति प्रेम और करुणा जाग गयी और वो कुत्ता भी उनके प्रति समर्पित हो गया। 

एक दिन अमावस्या की अँधेरी रात थी। हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। उसी समय पुजारी प्रसाद लेकर बाहर निकले किन्तु उन्हें कुछ दिख नहीं रहा था। वहीँ दूसरी ओर वो कुत्ता भी मंदिर के बाहर बैठा था किन्तु अंधरे के कारण वो भी पुजारी को देखने में असमर्थ था। जब पुजारी को सदा की तरह वो कुत्ता नहीं दिखा तब वो थोड़ा आगे बढे और गलती से उनका पैर कुत्ते के मुँह पर पड़ गया। कुत्ते को पता नहीं था कि ये वही पुजारी हैं जो उसे रोज भोजन देते हैं इसी कारण उसने भी असावधानी में उस पुजारी को काट लिया।

उस कुत्ते के द्वारा काटे जाने के बाद भी उन पुजारी को कोई शोक नहीं हुआ। उलटे वो खुश हो गए कि आज भी उनका मित्र वो कुत्ता प्रसाद लेने आया है। ये सोच कर उन्होंने सदा की भांति उस कुत्ते को प्रसाद दिया। लेकिन दूसरी ओर जब उसे कुत्ते को ये पता चला कि उसने गलती से उसी पुजारी को काट लिया है जो इतने वर्षों तक उसे खाना खिलाते रहे तो वह आत्मग्लानि से भर उठा और दुखी होकर वहाँ से चला गया। 

अगले दिन जब पुजारी प्रसाद लेकर बाहर आये तो वो कुत्ता उन्हें नहीं दिखा। इतने वर्षों में ये पहली बार हुआ था कि वो कुत्ता वहाँ नहीं आया। इससे दुखी होकर उन्होंने उस कुत्ते को बहुत खोजा पर वो नहीं मिला। दूसरी ओर उस घटना के बाद वेदना में उस कुत्ते ने अन्न-जल त्याग दिया और अंततः उसी शिव मंदिर के समक्ष आकर मृत्यु को प्राप्त हुआ। उधर पुजारी को जब ये पता चला कि वो कुत्ता अब नहीं रहा तो उसके वियोग में उन्होंने भी अन्न-जल त्याग कर वहीँ अपने जीवन का अंत कर लिया। 

जब उन दोनों ने महादेव के समक्ष अपने प्राण त्यागे तो दोनों का आपस में इतना सौहार्द्य देख कर महादेव बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने दोनों को मृत्यु पर्यन्त दर्शन दिए और उस कुत्ते को विस्ववान (सूर्य) का पद दे प्रदान किया। और उस पुजारी पुजारी को भी अगले जन्म में राजा बनने का वरदान दिया। और साथ ही उन्होंने उस पुजारी को ये भी वरदान दिया कि अगले जन्म में उन्हें भगवान श्रीहरि के अवतार रूप के दर्शन होने का भी वरदान दिया। वही पुजारी अगले जन्म में भीष्मक के रूप में विदर्भ नरेश के यहाँ जन्मे।

महाराज भीष्मक के राजा बनने के बाद वो कुत्ता जिसे महादेव ने सूर्य का पद दिया था, भीष्मक से मिलने आये। उन्होंने एक ऋषि का रूप धरा और विदर्भ की राजधानी कुण्डिनपुर पहुँचे। तब उनका स्वागत करते हुए महाराज भीष्मक ने अपनी पुत्री रुक्मिणी से उनकी सेवा करने को कहा। रुक्मिणी ने ऋषि रूपी सूर्यदेव की बड़े मन से सेवा की। इससे प्रसन्न होकर उन्होंने रुक्मिणी को भगवान शिव के चरणों की पूजा करने को कहा। 

उनकी आज्ञा मान कर रुक्मिणी ने महादेव के श्रीकमलों की पूजा की। उनकी पूजा से महादेव प्रसन्न हुए और उन्हें वरदान माँगने को कहा। तब रुक्मिणी ने महादेव से नारायण के समान वर प्राप्त करने का वरदान माँगा। ये सुनकर महादेव ने उन्हें श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने का वरदान दिया। इनके वरदान स्वरुप ही जब रुक्मी ने रुक्मिणी का विवाह उसकी इच्छा के विरुद्ध शिशुपाल से तय कर दिया तब श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी हरण कर उससे विवाह किया। महाभारत युद्ध में भीष्मक और रुक्मी का युद्ध में भाग लेने का विवरण नहीं है। इस विषय में आप यहाँपढ़ सकते हैं। 

सप्तर्षि श्रंखला १०.१ - महर्षि वशिष्ठ

$
0
0
महर्षि वशिष्ठ परमपिता ब्रह्मा के पुत्र एवं सातवें सप्तर्षि हैं। इनकी उत्पत्ति ब्रह्मदेव की प्राण वायु से हुई बताई जाती है।  महर्षि वशिष्ठ को ऋग्वेद के ७वें मण्डल का लेखक और अधिपति माना जाता है। ऋग्वेद में कई जगह, विशेषकर १०वें मण्डल में महर्षि वशिष्ठ एवं उनके परिवार के विषय में बहुत कुछ लिखा गया है। इसके अतिरिक्त अग्नि पुराण एवं पुराण में भी उनका विस्तृत वर्णन है। महर्षि वशिष्ठ ही ३२००० श्लोकों वाले योगवशिष्ठ रामायण, वशिष्ठ धर्मसूत्र, वशिष्ठ संहिता और वशिष्ठ पुराण के जनक हैं। स्वयं श्री आदिशंकराचार्य ने महर्षि वशिष्ठ को वेदांत के आदिऋषियों में प्रथम स्थान प्रदान किया है। 'वशिष्ठ' का अर्थ भी सर्वश्रेष्ठ ही होता है।

ब्रह्मा के मानसपुत्रों में जिन्होंने गृहस्थ धर्म को अपनाया उनमे से एक ये भी हैं। अपनी पत्नी अरुंधति के साथ महर्षि वशिष्ठ एक आदर्श, श्रेष्ठ एवं उत्तम गृहस्थ जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। गऊओं में श्रेष्ठ कामधेनु एवं उनकी पुत्री नंदिनी इन्ही की क्षत्रछाया में सुखपूर्वक रहती हैं। इसी कामधेनु गाय के लिए इनमे और महर्षि विश्वामित्र में विवाद हुआ और विश्वामित्र महर्षि वशिष्ठ के चिर प्रतिद्वंदी बन गए। किन्तु अंततः महर्षि वशिष्ठ की महानता के आगे राजर्षि विश्वामित्र को झुकना पड़ा। 

ऋग्वेद के ७वें अध्याय में ये बताया गया है कि सर्वप्रथम महर्षि वशिष्ठ ने अपना आश्रम सिंधु नदी के किनारे बसाया था। बाद में इन्होने गंगा और सरयू के किनारे भी अपने आश्रम की स्थापना की। बौद्ध धर्म में भी जिन १० महान ऋषियों का वर्णन है, उनमे से एक महर्षि वशिष्ठ हैं। अन्य सप्तर्षियों की तरह ये चिरजीवी हैं और इसी कारण इनका विवरण सतयुग, त्रेता और द्वापर सभी युग में मिलता है। सतयुग में जहाँ ये प्रथम स्वयंभू मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक कहलाते हैं वहीँ त्रेतायुग में ये भगवान श्रीराम के गुरु भी हैं। साथ ही द्वापर युग में महाभारत के समय ये महर्षि व्यास को तत्वज्ञान भी देते हैं और पितामह भीष्म के भी गुरु बनते हैं। 

महर्षि वशिष्ठ की ख्याति विशेषकर इक्षवाकु कुल के कुलगुरु के रूप में है। वे महाराज इक्षवाकु को राजधर्म की शिक्षा देते हैं और आगे चलकर उनकी कई पीढ़ियों बाद महाराज दशरथ और उनके पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के भी गुरु बनते हैं। पुरुवंश में दुष्यन्तपुत्र भरत भी इनके शिष्यों में से एक माने जाते हैं। कहा जाता है कि महर्षि वशिष्ठ के आशीर्वाद से ही भरत चक्रवर्ती सम्राट बनते हैं। आगे चलकर वे देवव्रत भीष्म के गुरु भी बनते हैं और जब वे मृत्यु-शैय्या पर पड़े होते हैं तो अन्य सप्तर्षियों के साथ महर्षि वशिष्ठ भी उनसे मिलने जाते हैं। महर्षि वशिष्ठ ही मनु को अपनी संपत्ति और राज्य अपने दो पुत्रों प्रियव्रत एवं उत्तानपाद में बाँटने का निर्देश देते हैं। 

इसी विषय में एक वर्णन आता है जब परमपिता ब्रह्मा महर्षि वशिष्ठ को सूर्यवंश के पुरोहित का दायित्व सँभालने के लिए कहते हैं। अपने पिता की ऐसी आज्ञा सुनकर महर्षि वशिष्ठ सूर्यवंश का कुलगुरु बनने में अपनी असमर्थता बतलाते हैं। तब भगवान ब्रह्मा उन्हें बताते हैं कि इसी कुल में आगे जाकर भगवान विष्णु अपने श्रीराम अवतार में जन्म लेंगे और उन्हें उनका गुरु बनने का सौभाग्य प्राप्त होगा। उनकी ये बात सुनकर महर्षि वशिष्ठ सहर्ष सूर्यवंश के कुलगुरु का स्थान स्वीकार कर लेते हैं। आगे चलकर वे महाराज इक्षवाकु की राजधानी अयोध्या में ही जाकर बस जाते हैं। 

राजस्थान के अग्रवाल समाज में महर्षि वशिष्ठ का बहुत महत्त्व है और वे इन्हे अपना अग्रपुरुष मानते हैं। उनकी एक लोक कथाओं के अनुसार, एक बार सृष्टि का कष्ट देख कर महर्षि वशिष्ठ आत्महत्या करने के लिए सरस्वती नदी के किनारे जाते हैं। किन्तु जैसे ही वो उसमे छलाँग लगाते हैं, उनकी रक्षा के लिए सरस्वती नदी स्वयं २०० छोटी धाराओं में विभक्त हो जाती है और इस प्रकार महर्षि वशिष्ठ के प्राण बच जाते हैं। ये प्रसंग स्वयं ही उनकी महत्ता को सिद्ध करता है। 

पुराणों में महर्षि वशिष्ठ की दो पत्नियों का वर्णन आता है। उनका पहला विवाह प्रजापति दक्ष की कन्या 'ऊर्जा' से हुआ। ऊर्जा से महर्षि वशिष्ठ को कुकुण्डिहि, कुरूण्डी, दलय, शंख, प्रवाहित, मित और सम्मित नामक ७ पुत्र प्राप्त हुए और इन्ही सात पुत्रों ने तीसरे उत्तम मनु के मन्वन्तर में सप्तर्षि का पद ग्रहण किया। फिर उन्होंने महर्षि कर्दम और देवहुति की कन्या 'अरुंधति'से विवाह किया। अरुंधति देवी अनुसूया की छोटी बहन और महर्षि कपिल की बड़ी बहन थी। अरुंधति से इन्हे चित्रकेतु, सुरोचि, विरत्रा, मित्र, उल्वण, वसु, भृद्यान और द्युतमान नामक पुत्र हुए।

असम राज्य के गुवाहाटी में असम और मेघालय की सीमा पर महर्षि वशिष्ठ का एक भव्य मंदिर है जो गुवाहाटी के मुख्य आकर्षण केंद्रों में से एक है। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में एक गाँव का नाम ही महर्षि वशिष्ठ के नाम पर है। इस वशिष्ठ गाँव में भी उनका एक बहुत सुन्दर मंदिर स्थापित है। ऋषिकेश से १८ किलोमीटर दूर शिवपुरी में वशिष्ठ और अरुंधति गुफाएँ भी स्थित हैं जिनके अंदर भगवान शिव की कई प्राचीन मूर्तियाँ स्थापित हैं। केरल के त्रिसूर जिले में स्थित अरट्टुपुझा मंदिर के मुख्य देवता भी महर्षि वशिष्ठ ही हैं। प्रत्येक वर्ष त्रिसूर के ही प्रसिद्ध त्रिप्रायर मंदिर से श्रीराम को इस मंदिर में महर्षि वशिष्ठ के सानिध्य में लाया जाता है। 

...शेष

जब श्रीराम पारिजात और कल्पवृक्ष को पृथ्वी पर ले आये

$
0
0
महर्षि दुर्वासा के विषय में हम सभी जानते हैं। वे महर्षि अत्रि और माता अनुसूया के पुत्र थे जो भगवान शिव के अंश से जन्मे थे। इनकी गणना सर्वाधिक क्रोधी ऋषि के रूप में की जाती है। श्राप तो जैसे इनकी जिह्वा की नोक पर रखा रहता था। इन्ही महर्षि दुर्वासा ने एक बार श्रीराम की परीक्षा लेने की ठानी। उन्हें पता था कि श्रीराम भगवान विष्णु के अवतार हैं किन्तु फिर भी सामान्य जन को उनका महत्त्व और महानता दिखाने के लिए वे श्रीराम की परीक्षा लेने अयोध्या पहुँचे। उस समय तक लंका युद्ध समाप्त हो गया था और श्रीराम सुखपूर्वक अयोध्या पर राज्य कर रहे थे।

वे सीधे श्रीराम के भवन के ८ चौंकों को पार कर सीधे माता सीता के द्वार पर पहुँच गए। जब श्रीराम को पता चला कि महर्षि दुर्वासा अपने ६०००० शिष्यों के साथ अयोध्या पधारे हैं तो वे स्वयं अपने भाइयों के साथ द्वार पर उन्हें लिवाने चले आये। उन्होंने महर्षि दुर्वासा की अभ्यर्थना की और उनके चरण प्रक्षालन कर उन्हें ऊँचे आसन पर बिठाया। फिर उन्हें अर्ध्यपान देने के बाद उन्होंने कहा - 'हे महर्षि! आप अपने तेजस्वी शिष्यों के साथ अयोध्या पधारे ये हमारे लिए बहुत सम्मान की बात है। मुझे वनवास समय में अपनी पत्नी और भाई के साथ आपके माता-पिता महर्षि अत्रि और माता अनुसूया के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। आज आपके भी दर्शन प्राप्त कर मैं अपने आपको धन्य मान रहा हूँ। कृपया कहें कि मेरे लिए क्या आज्ञा है।"

तब महर्षि दुर्वासा ने कहा - 'हे कौशल्यानंदन राम! मुझे भी तुम्हारे दर्शन कर बड़ा हर्ष हो रहा है। मैं पिछले १०० वर्षों से उपवास पर था और आज ही मेरा उपवास पूर्ण हुआ है। इसी कारण भोजन करने की इच्छा से मैं अपने शिष्यों सहित तुम्हारे द्वार पर आया हूँ।'

तब श्रीराम ने प्रसन्नता से कहा - 'हे भगवन! मेरे लिए इससे प्रसन्नता की और क्या बात होगी कि आपको भोजन कराने के सौभाग्य मुझे प्राप्त होगा।'

तब महर्षि दुर्वासा ने आगे कहा - 'हे राम! किन्तु मेरा संकल्प है कि तुम मुझे ऐसा भोजन कराओ जो जल, धेनु या अग्नि की सहायता से ना पका हो। इसके अतिरिक्त भोजन करने से पूर्व मेरी शिव पूजा के लिए तुम मुझे ऐसे अद्भुत पुष्प मँगवा दो जैसे आज तक किसी ने ना देखे हों। इस सब के लिए मैं तुम्हे केवल एक प्रहर का समय देता हूँ। अगर ये तुमसे ना हो सके तो मुझे स्पष्ट कह दो ताकि मैं यहाँ से चला जाऊँ।'

तब महर्षि की इस बात को सुनकर श्रीराम ने मुस्कराते हुए नम्रता से कहा - 'भगवान् ! मुझे आपकी यह सब आज्ञा स्वीकार है।' 

ये सुनकर महर्षि दुर्वासा प्रसन्न होकर बोले - 'ठीक है। मैं अपने शिष्यों के साथ सरयू में स्नान करके आता हूँ। तब तक हमारे लिए सभी सामग्रियों की व्यवस्था कर दो।' ये कह कर महर्षि दुर्वासा अपने शिष्यों के साथ स्नान करने को चले गए। 

उनके जाने के बाद देवी सीता, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न आश्चर्य से उनकी ओर देखने लगे कि किस प्रकार श्रीराम केवल एक प्रहर ऐसी दुर्लभ चीजों को प्राप्त कर पाएंगे। तब श्रीराम ने लक्ष्मण से एक पत्र लिखने को कहा और फिर उसे अपने बाण पर बांध कर स्वर्गलोक की ओर छोड़ दिया। वह बाण वायु वेग से उड़कर अमरावती में इन्द्र की सुधर्मा नामक सभा में जाकर उनके सामने गिर पड़ा। 

उस बाण को देखते ही देवराज इंद्र पहचान गए कि ये श्रीराम का बाण है। उन्होंने तुरंत उसपर बंधे पत्र को खोलकर पढ़ा तो उसमे लिखा था - 'हे देवराज! आप सुखी रहें। मैं सदैव आपका स्मरण करता हूँ किन्तु आज आपकी एक सहायता के लिए आपको पत्र लिख रहा हूँ। अयोध्या में इस समय महर्षि दुर्वासा अपने ६०००० शिष्यों के साथ उपस्थित हैं और वो ऐसा भोजन चाहते हैं, जो गऊ, जल अथवा अग्नि के द्वारा सिद्ध न किया हो। साथ ही उन्होंने शिव पूजन के लिए ऐसे पुष्प माँगे हैं जिन्हें कि अब तक मनुष्यों ने न देखा हो। अतः आप अतिशीघ्र कल्पवृक्ष और पारिजात, जो क्षीरसागर से निकले हैं, मेरे पास भेज दें। इसके लिए रावण के संहारक मेरे बाणों की प्रतीक्षा मत कीजियेगा।'

वो पत्र मिलते ही इंद्रदेव उठे और कल्पवृक्ष तथा पारिजात को साथ ले देवताओं सहित विमान में बैठकर अयोध्या में आ पहुँचे। वहाँ श्रीराम ने इंद्र का स्वागत किया उधर सरयू तट पर महर्षि दुर्वासा ने अपने एक शिष्य से कहा कि वे भवन जाकर देख आएं कि वहाँ का क्या हाल है। जब वो शिष्य राजभवन पहुँचा तो इन्द्रादि देवताओं से घिरे श्रीराम को देखा। उसने वापस आकर महर्षि को सारा हाल सुनाया। 

ये सुनकर महर्षि आश्चर्य करते हुए श्रीराम के पास पहुँचे। उन्हें आया देख कर श्रीराम ने देवताओं सहित उठकर उन्हें प्रणाम किया और फिर उन्होंने महर्षि को किसी के द्वारा ना देखे गए पारिजात के पुष्प शिव पूजा के लिए अर्पण किये। महर्षि दुर्वासा ने प्रसन्नतापूर्वक उन अद्भुत पुष्पों द्वारा श्रीराम और देवताओं सहित भगवान महाकाल की पूजा की। 

पूजा समाप्त होने के बाद श्रीराम ने देवी सीता को भोजन परोसने के लिए कहा। तब सीता ने कल्पवृक्ष के नीचे असंख्य पत्रों को रखवा कर प्राथना की - 'हे कपलवृक्ष! आप सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। कृपया महर्षि दुर्वासा और उनके सभी शिष्यों को संतुष्ट करें।' देवी सीता के ऐसा कहते ही वो सारे पात्र कल्पवृक्ष द्वारा ऐसे व्यंजनों से भर गए जो अग्नि, दूध अथवा जल से नहीं बने थे। ये देख कर महर्षि दुर्वासा ने श्रीराम की भूरि-भूरि प्रशंसा की और आकंठ भोजन कर वहाँ से प्रस्थान किया। जय श्रीराम।

सप्तर्षि श्रंखला १०.२ - महर्षि वशिष्ठ

$
0
0
महर्षि वशिष्ठ एवं राजर्षि विश्वामित्र की प्रतिद्वंदिता बहुत प्रसिद्ध है। प्राचीन काल में एक महान राजा हुए गाधि। उनके पुत्र थे कौशिक जो आगे चलकर विश्वामित्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। एक बार विश्वामित्र अपने १०० पुत्रों और एक अक्षौहिणी सेना लेकर वन से गुजर रहे थे। वहीँ उन्हें पता चला कि पास में ही महर्षि वशिष्ठ का आश्रम है। तो उनका आशीर्वाद लेने के लिए विश्वामित्र उनके आश्रम पहुँचे। राज्य के राजा को अपने आश्रम में आया हुआ देख कर महर्षि वशिष्ठ बड़े प्रसन्न हुए और उनसे कहा कि वे कुछ दिन अपनी सेना के साथ उनका आथित्य ग्रहण करें।

ये सुनकर विश्वामित्र ने कहा - 'हे महर्षि! मैं तो यहाँ केवल आपके दर्शनों के लिए आया था। किन्तु मेरे साथ मेरी एक अक्षौहिणी सेना है। आप किस प्रकार उनके खान-पान की व्यवस्था करेंगे? इसी कारण मैं आपको कष्ट नहीं देना चाहता।' तब महर्षि वशिष्ठ ने कहा - 'राजन! आप उसकी चिंता ना करें। मेरे पास गौमाता कामधेनु की पुत्री नंदिनी है जो सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाली है। इसके रहते आपको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा।' ये सुनकर विश्वामित्र कौतूहलवश महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में रुक गए। 

उन्हें ये देख कर आश्चर्य हुआ कि गउओं में श्रेष्ठ नंदिनी उनकी सेना द्वारा इच्छित हर सामग्री क्षणों में उपस्थित कर देती थी। तब उन्होंने सोचा कि ऐसी गाय की अधिक आवश्यकता तो उन्हें है। इस आश्रम में उसका क्या काम? यही सोच कर विश्वामित्र ने लौटते समय उनसे नंदिनी गाय को माँगा किन्तु महर्षि वशिष्ठ ने ये कहकर उन्हें मना कर दिया कि ये गाय उन्हें उनके प्राणों से भी अधिक प्रिय है। ये देख कर विश्वामित्र ने नंदिनी को जबरन अपने साथ ले जाने की ठानी। उनकी आज्ञा से उसकी सेना बलात नंदिनी को ले जाने लगी। 

तब नंदिनी ने महर्षि वशिष्ठ से कहा - 'हे महर्षि! आप क्यों मुझे जाने से नहीं रोकते?' तब महर्षि वशिष्ठ ने कहा - 'पुत्री! विश्वामित्र मेरे अथिति हैं और फिर उनके साथ इतनी सेना है। उनका विरोध कर मुझे तुम्हे रोकना उचित नहीं लग रहा।' तब नंदिनी ने कहा - 'कृपया आप मुझे आत्मरक्षा की आज्ञा दें।' ये सुनकर महर्षि वशिष्ठ ने उसे अपनी रक्षा करने की आज्ञा दे दी। उनकी गया पाते ही नंदिनी ने अपने खुरों से विशाल सेना उत्पन्न की जो भांति-भांति के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थी। उन्होंने बात ही बात में विश्वामित्र की पूरी सेना का नाश कर दिया।

ये देख कर विश्वामित्र के १०० पुत्र महर्षि वशिष्ठ का वध करने को उनकी ओर दौड़े किन्तु महर्षि वशिष्ठ ने केवल अपने एक दृष्टिपात से उनके एक पुत्र को छोड़ कर शेष ९९ पुत्रों को भस्म कर दिया। अपनी पूरी सेना और पुत्रों को खो कर विश्वामित्र घोर शोक में घिर गए और तब उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से प्रतिशोध लेने की ठानी। उनका मन राज-काज और मोह माया से उठ गया और फिर उन्होंने अपने उस एक पुत्र को राज-पाठ सौंपा और वही से तपस्या करने सीधे हिमालय की ओर प्रस्थान कर गए। 

उन्होंने हिमालय में घोर तपस्या की और महादेव को प्रसन्न किया। वरदान स्वरुप उन्होंने महादेव से सम्पूर्ण धर्नुविद्या का ज्ञान और सभी प्रकार के दिव्यास्त्र कर उससे भी ऊपर ब्रह्मास्त्र प्राप्त कर लिया। वो दिव्यास्त्र किस लिए प्राप्त कर रहे थे ये तो महादेव को पता ही था इसीलिए उन्होंने विश्वामित्र को कहा कि इन दिव्यास्त्रों का दुरुपयोग ना करें अन्यथा इतनी विद्या होने के बाद भी उन्हें पराजय ही प्राप्त होगी।' उस समय तो विश्वामित्र ने हामी भर दी किन्तु भीतर से वो प्रतिशोध की आग में जल रहे थे। 

धनुर्विद्या और दिव्यास्त्रों का पूर्ण ज्ञान होने पर विश्वामित्र प्रतिशोध लेने महर्षि वशिष्ठ के आश्रम पहुँचे और उन्होंने महर्षि वशिष्ठ को युद्ध के लिए ललकारा। उन्होंने एक-एक कर महर्षि वशिष्ठ पर अपने सारे दिव्यास्त्रों का प्रयोग कर लिया किन्तु उन्हें परास्त नहीं कर पाए। एक-एक कर उन्होंने व्यवयास्त्र, आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, पर्वतास्त्र, पर्जन्यास्त्र, गंधर्वास्त्र, मोहनास्त्र इत्यादि सभी अस्त्र-शस्त्र उनपर चला दिए किन्तु महर्षि वशिष्ठ ने उन सभी दिव्यास्त्रों को बीच में ही रोक लिया। अंत में कोई और उपाय ना देखकर विश्वामित्र ने महर्षि वशिष्ठ पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया।

जब महर्षि वशिष्ठ ने ब्रह्मास्त्र को अपनी ओर आता देखा तो उन्होंने महाविनाशकारी 'ब्रह्माण्ड अस्त्र' (ब्रह्माण्ड अस्त्र ब्रह्मास्त्र से ५ गुणा अधिक शक्तिशाली माना जाता है)को प्रकट किया जो विश्वामित्र के ब्रह्मास्त्र को पी गया। इतने पर भी महर्षि वशिष्ठ ने विश्वामित्र का वध नहीं किया और उन्हें सम्मानपूर्वक वापस लौटा दिया। इससे और भी अपमानित होकर विश्वामित्र पुनः घोर तपस्या करने चले गए। 


...शेष

सप्तर्षि श्रंखला १०.३ - महर्षि वशिष्ठ

$
0
0
पिछले लेख में आपने पढ़ा कि किस प्रकार राजा कौशिक (विश्वामित्र) महर्षि वशिष्ठ की गाय नंदिनी को ले जाने का प्रयास करते हैं और फिर महर्षि वशिष्ठ द्वारा पराजित होते हैं। उनसे प्रतिशोध लेने के लिए विश्वामित्र महादेव की तपस्या करते हैं और उनसे समस्त प्रकार के अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करते हैं। इसके बाद वे पुनः महर्षि वशिष्ठ को ललकारते हैं किन्तु वशिष्ठ अपने ब्रह्माण्ड अस्त्र की शक्ति से उन्हें पुनः परास्त कर देते हैं। इससे निराश होकर विश्वामित्र पुनः तपस्या करने को चले जाते हैं। अब आगे... 

विश्वामित्र अपमान की अग्नि में जलते हुए पुनः ब्रह्मदेव की तपस्या करते हैं। उनकी घोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मदेव प्रकट होते हैं और उन्हें 'राजर्षि' कहकर सम्बोधित करते हैं। ये सोच कर विश्वामित्र ब्रह्मदेव से कहते हैं - 'हे प्रभु! मुझे भी वशिष्ठ की तरह ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त करना है।' तब ब्रह्मदेव उनसे कहते हैं - 'वत्स! तुम्हे ब्रह्मर्षि का पद तभी प्राप्त हो सकता है जब स्वयं वशिष्ठ तुम्हे ब्रह्मर्षि मान लें।' ये सुनकर विश्वामित्र ब्रह्माजी की आज्ञा से वशिष्ठ से मिलने जाते हैं। 

मार्ग में विश्वामित्र के मन में ये विचार आया कि मैं छिपकर वशिष्ठ पर ब्रह्मास्त्र का प्रहार करूँगा जिससे उनकी मृत्यु हो जाएगी। जब वो नहीं रहेंगे तो सारा जगत मुझे ही ब्रह्मर्षि मानेगा। ये कुत्सित विचार लेकर विश्वामित्र वशिष्ठ के आश्रम पहुँचे और उन्होंने द्वार पर से ही ब्रह्मास्त्र का संधान किया। तभी उनके कानों में महर्षि वशिष्ठ और उनकी पत्नी देवी अरुंधति का संवाद पड़ा। 

देवी अरुंधति कह रही थी - 'हे स्वामी! आज की चाँदनी रात कितनी सुहानी है। इस जगत में इसके अतिरिक्त ऐसा प्रकाश और कहाँ प्राप्त हो सकता है?' तब महर्षि वशिष्ठ ने कहा - 'प्रिये! निश्चय ही ये शीतलता और प्रकाश अद्भुत है किन्तु इससे भी अधिक शीतलता और प्रकाश राजर्षि विश्वामित्र के तप में है।' 

अपने प्रति महर्षि वशिष्ठ का ये कोमल भाव देख कर विश्वामित्र के हाथ से ब्रह्मास्त्र छूट गया और पश्चाताप के मारे वे वहीँ रुदन करने लगे। उनका रुदन सुनकर जब वशिष्ठ बाहर आये तब विश्वामित्र ने उनके चरण पकड़ते हुए उनसे अपने सभी अपराधों की क्षमा माँगी। अपनी इस ग्लानि को लेकर विश्वामित्र एक बार फिर घोर तपस्या में लीन हुए और तब अंततः अपने पिता ब्रह्मा की आज्ञा से स्वयं वशिष्ठ वहाँ आये और उन्होंने विश्वामित्र को 'ब्रह्मर्षि' कहकर सम्बोधित किया। 

पुराणों में कुल १२ वशिष्ठ ऋषियों का वर्णन है। एक ब्रह्मर्षि वशिष्ठब्रह्मा के पुत्र हैं, दूसरे इक्क्षवाकुवंशी त्रिशंकु के काल में हुए जिन्हें वशिष्ठ देवराजकहते थे। तीसरे कार्तवीर्य सहस्रबाहु के समय में हुए जिन्हें वशिष्ठ अपवकहते थे। चौथे अयोध्या के राजा बाहु के समय में हुए जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (प्रथम) कहा जाता था। पांचवें राजा सौदास के समय में हुए थे जिनका नाम वशिष्ठ श्रेष्ठभाज था। कहते हैं कि सौदास ही सौदास ही आगे जाकर राजा कल्माषपाद कहलाये। छठे वशिष्ठ राजा दिलीप के समय हुए जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (द्वितीय) कहा जाता था। इसके बाद सातवें भगवान राम के समय में हुए जिन्हें महर्षि वशिष्ठकहते थे और आठवें श्रेष्ठ वशिष्ठ महाभारत के काल में हुए जिनके पुत्र का नाम शक्ति और पौत्र का नाम पराशर था। इनके अलावा वशिष्ठ मैत्रावरुण, वशिष्ठ शक्ति, वशिष्ठ सुवर्चसजैसे दूसरे वशिष्ठों का भी जिक्र आता है। वेदव्यास की तरह वशिष्ठ भी एक पद हुआ करता था।

महाराज इक्ष्वाकु ने १०० वर्षों तक कठोर तप करके सूर्य देवता की सिद्धि प्राप्त की। उन्होंने महर्षि वशिष्ठ को अपना गुरु बनाया और उनके मार्गदर्शन में अपना पृथक राज्य और राजधानी अयोध्यापुरी स्थापित कराया और फिर वे वहीँ बस गए। प्रथम वशिष्‍ठ ही पुष्कर में प्रजापति ब्रह्मा के यज्ञ के आचार्य रहे थे। इसके अतिरिक्त श्रीराम के काल में वशिष्ठ ने ही दशरथ का पुत्रेष्ठि यज्ञ कराया, श्रीरामजी का जातकर्म, यज्ञोपवीत, विवाह और उनका राज्याभिषेक करवाया। उन्होंने ही महाराज दशरथ को मनाया कि वे श्रीराम और लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ वन में भेज दें। 

नक्षत्रमण्डल में दो चमकदार तारे हैं जो सदैव एक दूसरे के इर्द-गिर्द चक्कर लगते रहते हैं। इस युग्म तारे को नासा ने हाल में खोजा है किन्तु आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व हमारे विद्वानों ने इन दोनों का पता लगा लिया था। इन्होने उसे 'अरुंधति-वशिष्ठ'का नाम दिया और आज पूरी दुनिया उसे इसी नाम से जानती है। महर्षि वशिष्ठ सदैव शांत रहते हैं। सुख-दुःख, प्रसन्नता-क्रोध, मान-अपमान, लाभ-हानि सभी उनके लिए एक सामान थी। यहाँ तक कि जब सुदास ने विश्वामित्र के श्राप के कारण राक्षस बन महर्षि वशिष्ठ के पुत्रों की हत्या कर दी, तब भी उन्होंने सुदास और विश्वामित्र को क्षमा कर दिया। यही कारण था कि स्वयं श्रीराम भी उन्हें अपने गुरु के रूप में पाकर गर्व का अनुभव करते थे।

आज के लेख के साथ ही सप्तर्षि श्रंखला समाप्त होती है। 

श्रीराम का वंश वर्णन

$
0
0
श्रीराम के वंश के विषय में विस्तार से यहाँपढ़ें। 


अप्सराएँ

$
0
0
हिन्दू धर्म में अप्सराएँ सौंदर्य का प्रतीक मानी जाती है और बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखती है। अप्सराओं से अधिक सुन्दर रचना और किसी की भी नहीं मानी जाती। पृथ्वी पर जो कोई भी स्त्री अत्यंत सुन्दर होती है उसे भी अप्सरा कह कर उनके सौंदर्य को सम्मान दिया जाता है। कहा जाता है कि देवराज इंद्र ने अप्सराओं का निर्माण किया था। कई अप्सराओं की उत्पत्ति परमपिता ब्रह्मा ने भी की थी जिनमे से तिलोत्तमा प्रमुख है। इसके अतिरिक्त कई अप्सराएं महान ऋषिओं की पुत्रियां भी थी। भागवत पुराण के अनुसार अप्सराओं का जन्म महर्षि कश्यप और दक्षपुत्री मुनि से हुआ था। कामदेव और रति से भी कई अप्सराओं की उत्पत्ति बताई जाती है।

अप्सराओं का मुख्य कार्य इंद्र एवं अन्य देवताओं को प्रसन्न रखना था। विशेषकर गंधर्वों और अप्सराओं का सहचर्य बहुत घनिष्ठ माना गया है। गंधर्वों का संगीत और अप्सराओं का नृत्य स्वर्ग की शान मानी जाती है। अप्सराएँ पवित्र और अत्यंत सम्माननीय मानी जाती है। अप्सराओं को देवराज इंद्र यदा-कड़ा महान तपस्वियों की तपस्या भंग करने को भेजते रहते थे। पुराणों में ऐसी कई कथाएं हैं जब किसी तपस्वी की तपस्या से घबराकर, कि कहीं वो त्रिदेवों से स्वर्गलोक ही ना मांग लें, देवराज इंद्र ने कई अप्सराओं को पृथ्वी पर उनकी तपस्या भंग करने को भेजा।

अप्सराओं का सौंदर्य ऐसा था कि वे सामान्य तपस्वियों की तपस्या को तो खेल-खेल में भंग कर देती थी। हालाँकि ऐसे भी महान ऋषि हुए हैं जिनकी तपस्या को अप्सरा भंग ना कर पायी और उन्हें उनके श्राप का भाजन करना पड़ा। महान ऋषियों में से एक महर्षि विश्वामित्र की तपस्या को रम्भा भंग ना कर पायी और उसे महर्षि के श्राप को झेलना पड़ा किन्तु बाद में वही विश्वामित्र मेनका के सौंदर्य के आगे हार गए। उर्वशी ने भी कई महान ऋषियों की तपस्या भंग की किन्तु मार्कण्डेय ऋषि के समक्ष पराजित हुई। 

अप्सराओं को उपदेवियों की श्रेणी का माना जाता है। वे मनचाहा रूप बदल सकती हैं और वरदान एवं श्राप देने में भी सक्षम मानी जाती है। कई अप्सराओं ने अनेक असुरों और दैत्यों के नाश में भी उल्लेखनीय योगदान दिया है। इसमें से तिलोत्तमा का नाम उल्लेखनीय है जो सुन्द-उपसुन्द की मृत्यु का कारण बनी। रम्भा को कुबेर के पुत्र नलकुबेर के पास जाने से जब रावण रोकता है और उसके साथ दुर्व्यहवार करता है तब वो रावण को श्राप देती है कि यदि वो किसी स्त्री को उसकी इच्छा के बिना स्पर्श करेगा तो उसकी मृत्यु हो जाएगी। उसी श्राप के कारण रावण देवी सीता को उनकी इच्छा के विरुद्ध स्पर्श ना कर सका। उर्वशी ने अर्जुन को १ वर्ष तक नपुंसक रहने का श्राप दिया था। 

पुराणों में कुल १००८ अप्सराओं का वर्णन है जिनमे से १०८ प्रमुख अप्सराओं की उत्पत्ति देवराज इंद्र ने की थी। उन १०८ अप्सराओं में भी ११ अप्सराओं को प्रमुख माना जाता है। उन ११ अप्सराओं में भी ४ अप्सराओं का सौंदर्य अद्वितीय माना गया है। ये हैं - रम्भा, उर्वशी, मेनका और तिलोत्तमा। रम्भा सभी अप्सराओं की प्रधान और रानी है। कई अप्सराएं ऐसी भी हैं जिन्हे पृथ्वीलोक पर रहने का श्राप मिला था जैसे बालि की पत्नी तारा, दैत्यराज शम्बर की पत्नी माया और हनुमान की माता अंजना।

अप्सराएँ दो प्रकार की मानी गयी हैं:
  1. दैविक:ऐसी अप्सराएँ जो स्वर्ग में निवास करती हैं। रम्भा सहित मुख्य ११ अप्सराओं को दैविक अप्सरा कहा जाता है। 
  2. लौकिक:ऐसी अप्सराएँ जो पृथ्वी पर निवास करती हैं। जैसे तारा, माया, अंजना इत्यादि। इनकी कुल संख्या ३४ बताई गयी है। 
अप्सराओँ को सौभाग्य का प्रतीक भी माना गया है। कहते हैं अप्सराओं का कौमार्य कभी भंग नहीं होता और वो सदैव कुमारी ही बनी रहती है। समागम के बाद अप्सराओं को उनका कौमार्य वापस प्राप्त हो जाता है। उनका सौंदर्य कभी क्षीण नहीं होता और ना ही वे कभी बूढी होती हैं। उनकी आयु भी बहुत अधिक होती है। मार्कण्डेय ऋषि के साथ वार्तालाप करते हुए उर्वशी कहती है - हे महर्षि! मेरे सामने कितने इंद्र आये और कितने इंद्र गए किन्तु मैं वही की वही हूँ। जब तक १४ इंद्र मेरे समक्ष इन्द्रपद को नहीं भोग लेते मेरी मृत्यु नहीं होगी। इसके बारे में आप विस्तार से यहाँपढ़ सकते हैं। 

ये भी जानने योग्य है कि भारतवर्ष का सर्वाधिक प्रतापी पुरुवंशस्वयं अप्सरा उर्वशी की देन है। उनके पूर्वज पुरुरवा ने उर्वशी से विवाह किया जिससे आगे पुरुवंश चला जिसमे ययाति, पुरु, यदु, दुष्यंत, भरत, कुरु, हस्ती, शांतनु, भीष्म और श्रीकृष्ण पांडव जैसे महान राजाओं और योद्धाओं ने जन्म लिया। उन्ही के दूसरे वंशबेल में इक्षवाकु कुल में भगवान श्रीराम ने जन्म लिया। इसके बारे में आप विस्तार से यहाँपढ़ सकते हैं। 

अन्य संस्कृतियों में जैसे ग्रीक धर्म में भी अप्सराओं का वर्णन है। इसके अतिरिक्त कई देशों जिनमे से इंडोनेशिया, कम्बोडिया, चीन और जावा में अप्सराओं का बहुत प्रभाव है। इस लेख का एक और भाग प्रकाशित किया जाएगा जिसमे प्रमुख अप्सराओं के नाम और उनमे से कई के मन्त्रों का वर्णन दिया जाएगा। आशा है आपको पसंद आएगा।

...शेष

    शिवलिंग पर क्या अर्पण करना चाहिए?

    $
    0
    0
    वैसे तो शिवलिंग पर कई चीजें चढ़ाई जाती है जिनमे से प्रमुख है दुग्ध, घृत, शहद, दही इत्यादि किन्तु आम तौर पर दो चीजों का महत्त्व बहुत अधिक है। वो हैं बिल्वपत्र (बेलपत्र) और गंगाजल। किन्तु इनके अतिरिक्त कई अन्य चीजों को शिवलिंग को अर्पण करने का विधान पुराणों में बताया गया है। इसका पता हमें शिवपुराण के एक श्लोक से चलता है:

    जलेन वृष्टिमाप्नोति व्याधिशांत्यै कुशोदकै।
    दध्ना च पशुकामाय श्रिया इक्षुरसेन वै।।

    मध्वाज्येन धनार्थी स्यान्मुमुक्षुस्तीर्थवारिणा।
    पुत्रार्थी पुत्रमाप्नोति पयसा चाभिषेचनात।।

    बन्ध्या वा काकबंध्या वा मृतवत्सा यांगना।
    जवरप्रकोपशांत्यर्थम् जलधारा शिवप्रिया।।

    घृतधारा शिवे कार्या यावन्मन्त्रसहस्त्रकम्।
    तदा वंशस्यविस्तारो जायते नात्र संशय:।।

    प्रमेह रोग शांत्यर्थम् प्राप्नुयात मान्सेप्सितम।
    केवलं दुग्धधारा च वदा कार्या विशेषत:।।

    शर्करा मिश्रिता तत्र यदा बुद्धिर्जडा भवेत्।
    श्रेष्ठा बुद्धिर्भवेत्तस्य कृपया शङ्करस्य च!!

    सार्षपेनैव तैलेन शत्रुनाशो भवेदिह!
    पापक्षयार्थी मधुना निर्व्याधि: सर्पिषा तथा।।

    जीवनार्थी तू पयसा श्रीकामीक्षुरसेन वै।
    पुत्रार्थी शर्करायास्तु रसेनार्चेतिछवं तथा।।

    महलिंगाभिषेकेन सुप्रीत: शंकरो मुदा।
    कुर्याद्विधानं रुद्राणां यजुर्वेद्विनिर्मितम्।

    अर्थात: 
    • जलसे रुद्राभिषेक करने पर वृष्टि होती है। इसके अतिरिक्त ऐसी भी मान्यता है कि जल से अभिषेक करने पर ज्वर भी उतर जाता है। 
    • कुशा जलसे अभिषेक करने पर रोग व दु:ख से छुटकारा मिलता है।
    • दही से अभिषेक करने पर पशु, भवन तथा वाहन की प्राप्ति होती है।
    • गन्ने के रससे अभिषेक करने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
    • मधुयुक्त जलसे अभिषेक करने पर धनवृद्धि होती है।
    • तीर्थ जलसे अभिषेक करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है।
    • इत्र मिले जलसे अभिषेक करने से रोग नष्ट होते हैं।
    • दूधसे अभिषेक करने से पुत्र प्राप्ति होगी। प्रमेह रोग की शांति तथा मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
    • गंगा जलसे अभिषेक करने पर मनुष्य को भौतिक सुखों के साथ-साथ मोक्ष की प्राप्ति भी होती है। विशेषकर श्रावण मास में ज्योतिर्लिंगों पर गंगा जल चढाने का चलन सदियों से चला आ रहा है। श्रावण मास में शिवलिंग पर गंगाजल चढाने पर सहस्त्र गुणा अधिक फल मिलता है। 
    • दूध-शर्करामिश्रित अभिषेक करने से सद्बुद्धि की प्राप्ति होती है और बच्चों का मस्तिष्क तेज होता है।
    • घीसे अभिषेक करने से वंश विस्तार होता है और साथ ही शारीरिक दुर्बलता दूर होती है। 
    • सरसों के तेलसे अभिषेक करने से रोग तथा शत्रुओं का नाश होता है।
    • शुद्ध शहदसे रुद्राभिषेक करने से पाप क्षय होते हैं। साथ ही क्षय रोग और मधुमेह की समस्या भी दूर होती है। 
    इसके अतिरिक्त शिवलिंग पर:-
    • शमी के पेड़ के पत्तोंको चढ़ाने से सभी तरह के दु:खों से मुक्ति प्राप्त होती है।
    • जौ चढ़ाने से लंबे समय से चली रही परेशानी दूर होती है।
    • आँक के फूलचढ़ाने से सांसारिक बाधाओं से मुक्ति मिलती है और उससे भी अधिक मोक्ष की प्राप्ति होती है।
    • कच्चे चावलचढ़ाने से धन-संपत्ति की प्राप्ति होती है।
    • तिल चढ़ाने से समस्त पापों का नाश होता है।
    • गेहूंचढ़ाने से सुयोग्य पुत्र की प्राप्ति होती है।

    प्रमुख अप्सराओं के नाम और उनके मंत्र

    $
    0
    0
    प्रधान अप्सरा
    • रम्भा: ॐ सः रम्भे आगच्छागच्छ स्वाहा 
    ३ सर्वोत्तम अप्सराएँ:
    1. उर्वशी: ॐ श्री उर्वशी आगच्छागच्छ स्वाहा
    2. मेनका 
    3. तिलोत्तमा: ॐ श्री तिलोत्तामे आगच्छागच्छ स्वाहा
    ७ प्रमुख अप्सराएँ:
    1. कृतस्थली 
    2. पुंजिकस्थला
    3. प्रम्लोचा
    4. अनुम्लोचा
    5. घृताची
    6. वर्चा
    7. पूर्वचित्ति
    अन्य प्रमुख अप्सराएँ:
    1. अम्बिका
    2. अलम्वुषा
    3. अनावद्या
    4. अनुचना
    5. अरुणा
    6. असिता
    7. बुदबुदा
    8. चन्द्रज्योत्सना
    9. देवी
    10. गुनमुख्या
    11. गुनुवरा
    12. हर्षा
    13. इन्द्रलक्ष्मी
    14. काम्या
    15. कांचन माला: ॐ श्री कांचन माले आगच्छागच्छ स्वाहा
    16. कर्णिका
    17. केशिनी
    18. कुण्डला हारिणि: ॐ श्री ह्रीं कुण्डला हारिणि आगच्छागच्छ स्वाहा
    19. क्षेमा
    20. लता
    21. लक्ष्मना
    22. मनोरमा
    23. मारिची
    24. मिश्रास्थला
    25. मृगाक्षी
    26. नाभिदर्शना
    27. पूर्वचिट्टी
    28. पुष्पदेहा
    29. भूषिणि: ॐ वाः श्री वाः श्री भूषिणि आगच्छागच्छ स्वाहा
    30. रक्षिता
    31. रत्नमाला: ॐ श्री ह्रीं रत्नमाले आगच्छागच्छ स्वाहा
    32. ऋतुशला
    33. साहजन्या
    34. समीची
    35. सौरभेदी
    36. शारद्वती
    37. शुचिका
    38. सोमी
    39. सुवाहु
    40. सुगंधा
    41. सुप्रिया
    42. सुरजा
    43. सुरसा
    44. सुराता
    45. शशि: ॐ श्री शशि देव्या मा आगच्छागच्छ स्वाहा
    46. उमलोचा

    मृतसंजीवनी मंत्र

    $
    0
    0
    हिन्दू धर्म में अनेकानेक मन्त्रों का वर्णन है किन्तु जो दो मन्त्र सबसे प्रमुख हैं वो है भगवान शिव का 'महामृत्युञ्जय मन्त्र'और वेदमाता गायत्री का 'श्री गायत्री मन्त्र'। इन दोनों के सामान शक्तिशाली और कोई मन्त्र नहीं है। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद गीता में कहा है कि 'मन्त्रों में मैं गायत्री मन्त्र हूँ'। ऐसा माना जाता है कि दोनों मन्त्रों में किसी का १२५०००० बार जाप करके बड़ी से बड़ी इच्छा को फलीभूत किया जा सकता है।

    लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि हमारे भगवान शिव ने महामृत्युञ्जय और गायत्री मन्त्र को मिलाकर एक और अद्भुत एवं महाशक्तिशाली मन्त्र की रचना की थी। उस मन्त्र को 'महामृत्युञ्जयगायत्री मन्त्र'कहा गया और उसे ही आम भाषा में हम 'मृतसञ्जीवनी मन्त्र'के नाम से जानते हैं। कहा जाता है कि इस मन्त्र से मृत व्यक्ति को भी जीवित किया जा सकता था। ये मन्त्र बहुत ही संवेदनशील माना जाता है और हमारे ऋषि-मुनियों ने इसके उपयोग को स्पष्ट रूप से निषिद्ध भी किया है। अगर योग्य गुरु का मार्गदर्शन ना मिले तो इस मन्त्र का उच्चारण कभी भी १०८ बार से अधिक नहीं करना चाहिए अन्यथा उसके विपरीत परिणाम हो सकते हैं।

    महामृत्युञ्जयगायत्री या मृतसञ्जीवनी मन्त्र है:

    ऊँ हौं जूं स: ऊँ भूर्भुव: स्व: ऊँ त्रयंबकंयजामहे
    ऊँ तत्सर्वितुर्वरेण्यं ऊँ सुगन्धिंपुष्टिवर्धनम
    ऊँ भर्गोदेवस्य धीमहि ऊँ उर्वारूकमिव बंधनान
    ऊँ धियो योन: प्रचोदयात ऊँ मृत्योर्मुक्षीय मामृतात
    ऊँ स्व: ऊँ भुव: ऊँ भू: ऊँ स: ऊँ जूं ऊँ हौं ऊँ

    इस महान मृतसञ्जीवनी मन्त्र का ज्ञान सर्वप्रथम भगवान शिव ने दैत्यों के गुरु भृगुपुत्र शुक्राचार्य को उनकी घोर तपस्या के बाद वरदान स्वरुप दिया था। इस मन्त्र के प्रभाव से शुक्राचार्य देव-दानवों के युद्ध में मरे हुए दैत्यों को पुनः जीवित कर देते थे। दैत्य पहले से ही बल में देवताओं से अधिक ही थे और फिर उनके ऐसा करने से दैत्यों का पड़ला भारी हो गया और उन्होंने देवताओं को स्वर्ग से निष्काषित कर दिया। ऐसा कई बार हुआ कि शुक्राचार्य ने केवल इसी महान मन्त्र से दैत्यों को हारा हुआ युद्ध जितवा दिया।

    जब महादेव ने देखा कि शुक्राचार्य उनकी दी हुई विद्या का गलत उपयोग कर रहे हैं तो क्रोध में आकर उन्होंने शुक्राचार्य को निगल लिया। इस विषय में विस्तार से पढ़ने के लिए यहाँजाएँ। बाद में शुक्राचार्य को भगवान शिव ने लिंग मार्ग से बाहर निकाला जिससे उनका नाम शुक्राचार्य पड़ा। इसके बाद देवगुरु मरीचि पुत्र बृहस्पति ने भी इसकी काट ढूंढने की सोची। उन्होंने अपने पुत्र कच को शिष्य बना कर शुक्राचार्य के पास भेजा ताकि वो भी उनसे मृतसञ्जीवनी मन्त्र का ज्ञान प्राप्त कर सकें।

    शुक्राचार्य के आश्रम में उनकी पुत्री देवयानी कच से प्रेम कर बैठी। ये जानकर कि कच संजीवनी विद्या सीखने आये हैं और देवयानी उससे प्रेम करती है, दैत्यों ने कई बार उसका वध कर डाला किन्तु देवयानी की प्रार्थना पर शुक्राचार्य ने मृतसञ्जीवनी मन्त्र के प्रयोग से उसे हर बार जीवित कर दिया। अंत में दैत्यों से कच को मार कर उसे जला दिया और उसके भस्म को मदिरा में मिला कर शुक्राचार्य को ही पिला दिया। उसके बाद वे निश्चिन्त हो गए कि अब शुक्राचार्य कच को जीवित नहीं कर पाएंगे अन्यथा उनका भी अंत हो जाएगा।

    जब शुक्राचार्य ने कच को नहीं देखा और मृतसञ्जीवनी मन्त्र का प्रयोग किया तो कच उनके उदर में जीवित हो उठा। उसने शुक्राचार्य से कहा कि अब यदि वो बाहर आया तो उनकी मृत्यु हो जाएगी। शुक्राचार्य को दैत्यों पर बड़ा क्रोध आया और उन्होंने उन्हें अपना साम्राज्य खोने का श्राप दे दिया। किन्तु अपनी पुत्री का दुःख देख कर शुक्राचार्य ने कच से कहा कि वो उसे मृतसञ्जीवनी विद्या का ज्ञान देते हैं और जब वो बाहर आये तो उसी विद्या से उन्हें जीवित कर दे। 

    इस प्रकार कच ने वो ज्ञान शुक्राचार्य के उदर में ही सीखा। जब वो शुक्राचार्य का उदर चीर कर बाहर आया तो उनकी मृत्यु हो गयी किन्तु फिर कच ने उसी महान मन्त्र का उपयोग कर उन्हें जीवित कर दिया। जब देवयानी ने उसे बताया कि वो उससे प्रेम करती है तो कच ने ये कहकर उससे विवाह करने से मना कर दिया कि वो उसके गुरु की पुत्री है। इससे रुष्ट होकर देवयानी ने उसे श्राप दिया कि जिस मृतसञ्जीवनी विद्या के लिए वो यहाँ आया था वो उसके किसी काम नहीं आएगी। तब कच ने भी देवयानी को श्राप दिया कि उसका विवाह उससे नीचे कुल में होगा। इसी कारण देवयानी का विवाह क्षत्रिय कुल के महाराज ययाति से हुआ।

    मृतसञ्जीवनी मन्त्र का प्रभाव अद्भुत है। ऐसी मान्यता है कि इस मन्त्र में हिन्दू धर्म के सभी ३३ कोटि देवताओं (८ वसु, ११ रूद्र, १२ आदित्य, १ प्रजापति और १ वषट) की शक्तियाँ सम्मलित होती है। इस मन्त्र के उच्चारण से इतनी अधिक ऊर्जा उत्पन्न होती है जिसे सम्हालना किसी आम मनुष्य के बस की बात नहीं होती है। यही कारण है कि विद्वानों ने बिना किसी योग्य गुरु के इस मन्त्र के जाप करने के लिए मना किया है। इस मन्त्र के जाप से पूर्व कुछ बातें याद रखें:
    • बिना गुरु के मार्गदर्शन के इस मन्त्र का जा ना करें। 
    • अगर बिना गुरु के इस मन्त्र का जाप करना हो तो १०८ जाप से अधिक ना करें। 
    • जाप पूर्व दिशा की ओर मुख करके करें। 
    • जाप के लिए शांत स्थान का चुनाव करें। अकेले कमरे में भी कर सकते हैं अथवा ऐसे किसी मंदिर में जहाँ लोगों का आवागमन अधिक ना हो। 
    • मन्त्रों का उच्चारण अत्यंत शुद्ध हो और मन्त्र की आवाज बाहर ना आ रही हो। 
    • जाप रुद्राक्ष की माला से ही करना चाहिए। 
    • जाप के दौरान सात्विक जीवन जियें और मांसाहार, मदिरापान और सम्भोग से बचें।
    आपको ये जानकर भी हैरानी होगी कि मृतसञ्जीवनी मन्त्र की भांति ही 'मृतसञ्जीवनी स्त्रोत्र'भी है जिसकी रचना ब्रह्मपुत्र महर्षि वशिष्ठने की थी। उस स्त्रोत्र के विषय में हम अपने अगले लेख में आपको जानकारी प्रदान करवाएंगे। 

    ...शेष

    रावण का वंश वर्णन

    $
    0
    0
    राक्षसों के वंश के बारे में विस्तार से पढ़ने के लिए यहाँजाएँ। 



    मृतसञ्जीवनी स्त्रोत्र - १

    $
    0
    0
    पिछले लेखमें आपने मृतसञ्जीवनी मन्त्र के विषय में पढ़ा। इस भाग में हम 'मृतसंजीवनी स्त्रोत्र'के विषय में आपको बताएँगे। ऐसा माना जाता है कि इस महान स्त्रोत्र को परमपिता ब्रह्मा के पुत्र महर्षि वशिष्ठने लिखा था। ३० श्लोकों का ये स्त्रोत्र भगवान शिव को समर्पित है और उनके कई अनजाने पहलुओं पर प्रकाश डालता है। जो कोई भी इस स्त्रोत्र का पूर्ण चित्त से पाठ करता है, उसे जीवन में किसी भी कष्ट का सामना नहीं करना पड़ता। 

    इस लेख में हम आपको पूर्ण मृतसञ्जीवनी मन्त्र से परिचित करवा रहे हैं। इस भाग में उन श्लोकों का अर्थ नहीं दिया गया है। आगे आने वाले लेखों में हम इन ३० श्लोकों को ३ भाग में विभक्त करेंगे और १०-१० श्लोकों के तीन लेख उसके अर्थ सहित धर्मसंसार पर प्रकाशित किये जाएंगे। ये महान मृतसञ्जीवनी स्त्रोत्र है:

    वमारध्य गौरीशं देवं मृत्युञ्जयमेश्वरं।
    मृतसञ्जीवनं नाम्ना कवचं प्रजपेत् सदा ॥१॥

    सारात् सारतरं पुण्यं गुह्याद्गुह्यतरं शुभं।
    महादेवस्य कवचं मृतसञ्जीवनामकं ॥ २॥ 

    समाहितमना भूत्वा शृणुष्व कवचं शुभं। 
    शृत्वैतद्दिव्य कवचं रहस्यं कुरु सर्वदा ॥३॥

    वराभयकरो यज्वा सर्वदेवनिषेवितः। 
    मृत्युञ्जयो महादेवः प्राच्यां मां पातु सर्वदा ॥४॥

    दधाअनः शक्तिमभयां त्रिमुखं षड्भुजः प्रभुः।
    सदाशिवोऽग्निरूपी मामाग्नेय्यां पातु सर्वदा ॥५॥

    अष्टदसभुजोपेतो दण्डाभयकरो विभुः। 
    यमरूपि महादेवो दक्षिणस्यां सदावतु ॥६॥

    खड्गाभयकरो धीरो रक्षोगणनिषेवितः। 
    रक्षोरूपी महेशो मां नैरृत्यां सर्वदावतु ॥७॥

    पाशाभयभुजः सर्वरत्नाकरनिषेवितः। 
    वरुणात्मा महादेवः पश्चिमे मां सदावतु ॥८॥

    गदाभयकरः प्राणनायकः सर्वदागतिः। 
    वायव्यां मारुतात्मा मां शङ्करः पातु सर्वदा ॥९॥

    शङ्खाभयकरस्थो मां नायकः परमेश्वरः। 
    सर्वात्मान्तरदिग्भागे पातु मां शङ्करः प्रभुः ॥१०॥

    शूलाभयकरः सर्वविद्यानमधिनायकः। 
    ईशानात्मा तथैशान्यां पातु मां परमेश्वरः ॥११॥

    ऊर्ध्वभागे ब्रःमरूपी विश्वात्माऽधः सदावतु। 
    शिरो मे शङ्करः पातु ललाटं चन्द्रशेखरः॥१२॥

    भूमध्यं सर्वलोकेशस्त्रिणेत्रो लोचनेऽवतु। 
    भ्रूयुग्मं गिरिशः पातु कर्णौ पातु महेश्वरः ॥१३॥

    नासिकां मे महादेव ओष्ठौ पातु वृषध्वजः। 
    जिह्वां मे दक्षिणामूर्तिर्दन्तान्मे गिरिशोऽवतु ॥१४॥

    मृतुय्ञ्जयो मुखं पातु कण्ठं मे नागभूषणः। 
    पिनाकि मत्करौ पातु त्रिशूलि हृदयं मम ॥१५॥

    पञ्चवक्त्रः स्तनौ पातु उदरं जगदीश्वरः। 
    नाभिं पातु विरूपाक्षः पार्श्वौ मे पार्वतीपतिः ॥१६॥

    कटद्वयं गिरीशौ मे पृष्ठं मे प्रमथाधिपः। 
    गुह्यं महेश्वरः पातु ममोरू पातु भैरवः ॥१७॥

    जानुनी मे जगद्दर्ता जङ्घे मे जगदम्बिका। 
    पादौ मे सततं पातु लोकवन्द्यः सदाशिवः ॥१८॥

    गिरिशः पातु मे भार्यां भवः पातु सुतान्मम।
    मृत्युञ्जयो ममायुष्यं चित्तं मे गणनायकः ॥१९॥

    सर्वाङ्गं मे सदा पातु कालकालः सदाशिवः।
    एतत्ते कवचं पुण्यं देवतानां च दुर्लभम् ॥२०॥

    मृतसञ्जीवनं नाम्ना महादेवेन कीर्तितम्।
    सह्स्रावर्तनं चास्य पुरश्चरणमीरितम् ॥२१॥

    यः पठेच्छृणुयान्नित्यं श्रावयेत्सु समाहितः। 
    सकालमृत्युं निर्जित्य सदायुष्यं समश्नुते ॥२२॥

    हस्तेन वा यदा स्पृष्ट्वा मृतं सञ्जीवयत्यसौ। 
    आधयोव्याध्यस्तस्य न भवन्ति कदाचन ॥२३॥

    कालमृयुमपि प्राप्तमसौ जयति सर्वदा। 
    अणिमादिगुणैश्वर्यं लभते मानवोत्तमः ॥२४॥

    युद्दारम्भे पठित्वेदमष्टाविशतिवारकं। 
    युद्दमध्ये स्थितः शत्रुः सद्यः सर्वैर्न दृश्यते ॥२५॥

    न ब्रह्मादीनि चास्त्राणि क्षयं कुर्वन्ति तस्य वै। 
    विजयं लभते देवयुद्दमध्येऽपि सर्वदा ॥२६॥ 

    प्रातरूत्थाय सततं यः पठेत्कवचं शुभं। 
    अक्षय्यं लभते सौख्यमिह लोके परत्र च ॥२७॥

    सर्वव्याधिविनिर्मृक्तः सर्वरोगविवर्जितः। 
    अजरामरणो भूत्वा सदा षोडशवार्षिकः ॥२८॥

    विचरव्यखिलान् लोकान् प्राप्य भोगांश्च दुर्लभान्। 
    तस्मादिदं महागोप्यं कवचम् समुदाहृतम् ॥२९॥

    मृतसञ्जीवनं नाम्ना देवतैरपि दुर्लभम् ॥३०॥

    ॥ इति वसिष्ठ कृत मृतसञ्जीवन स्तोत्रम् ॥

    इन सभी श्लोकों का अर्थ सहित हिंदी अनुवाद अगले तीन लेखों में दिया जाएगा। जय महाकाल।

    ...शेष

    मृतसञ्जीवनी स्त्रोत्र - २

    $
    0
    0
    पिछले लेख में आपने मृतसञ्जीवनी स्त्रोत्र के मूल ३० श्लोक संस्कृत में पढ़े। इस श्रृंखला में हम इन ३० श्लोकों को ३ भाग में विभक्त करेंगे और १०-१० श्लोकों के तीन लेख धर्मसंसार पर प्रकाशित किये जाएंगे। नीचे मृतसञ्जीवनी स्त्रोत्र के १ से १० तक के श्लोकों का अर्थ दिया जा रहा है:

    एवमाराध्य गौरीशं देवं मृत्युञ्जयेश्वरम्।
    मृतसञ्जीवनं नाम्ना कवचं प्रजपेत् सदा।।१।।

    अर्थात:गौरीपति मृत्युञ्जयेश्र्वर भगवान् शंकर की विधिपूर्वक आराधना करने के पश्चात भक्त को सदा मृतसञ्जीवन नामक कवच का सुस्पष्ट पाठ करना चाहिये।

    सारात्सारतरं पुण्यं गुह्यात्गुह्यतरं शुभम्।
    महादेवस्य कवचं मृतसञ्जीवनामकम्।।२।।

    अर्थात:महादेव भगवान् शङ्कर का यह मृतसञ्जीवन नामक कवच तत्त्व का भी तत्त्व है, पुण्यप्रद है, गुह्य और मङ्गल प्रदान करने वाला है।

    समाहितमना भूत्वा शृणुश्व कवचं शुभम्।
    शृत्वैतद्दिव्य कवचं रहस्यं कुरु सर्वदा।।३।।

    अर्थात:अपने मन को एकाग्र करके इस मृतसञ्जीवन कवच को सुनो। यह परम कल्याणकारी दिव्य कवच है। इसकी गोपनीयता सदा बनाये रखना।

    वराभयकरो यज्वा सर्वदेवनिषेवित:।
    मृत्युञ्जयो महादेव: प्राच्यां मां पातु सर्वदा।।४।।

    अर्थात:जरा से अभय करने वाले, निरन्तर यज्ञ करने वाले, सभी देवतओं से आराधित हे मृत्युञ्जय महादेव! आप पूर्व-दिशा में मेरी सदा रक्षा करें।

    दधान: शक्तिमभयां त्रिमुखं षड्भुज: प्रभु:।
    सदाशिवोऽग्निरूपी मामाग्नेय्यां पातु सर्वदा।।५।।

    अर्थात:अभय प्रदान करनेवाली शक्ति को धारण करनेवाले, तीन मुखोंवाले तथा छ: भुजओंवाले, अग्रिरूपी प्रभु सदाशिव अग्रिकोणमें मेरी सदा रक्षा करें।

    अष्टादशभुजोपेतो दण्डाभयकरो विभु:।
    यमरूपी महादेवो दक्षिणस्यां सदावतु।।६।।

    अर्थात:अट्ठारह भुजाओं से युक्त, हाथ में दण्ड और अभयमुद्रा धारण करने वाले, सर्वत्र व्याप्त यमरुपी महादेव शिव दक्षिण-दिशा में मेरी सदा रक्षा करें।

    खड्गाभयकरो धीरो रक्षोगणनिषेवित:।
    रक्षोरूपी महेशो मां नैऋत्यां सर्वदावतु।।७।।

    अर्थात:हाथ में खड्ग और अभयमुद्रा धारण करने वाले, धैर्यशाली, दैत्यगणों से आराधित, रक्षोरुपी महेश नैर्ऋत्यकोण में मेरी सदा रक्षा करें।

    पाशाभयभुज: सर्वरत्नाकरनिषेवित:।
    वरूणात्मा महादेव: पश्चिमे मां सदावतु।।८।।

    अर्थात:हाथमें अभयमुद्रा और पाश धाराण करनेवाले, शभी रत्नाकरोंसे सेवित, वरुणस्वरूप महादेव भगवान् शंकर पश्चिम- दिशामें मेरी सदा रक्षा करें।

    गदाभयकर: प्राणनायक: सर्वदागति:।
    वायव्यां वारुतात्मा मां शङ्कर: पातु सर्वदा।।९।।

    अर्थात:हाथों में गदा और अभयमुद्रा धारण करने वाले, प्राणोम के रक्षक, सर्वदा गतिशील वायुस्वरूप शंकरजी वायव्यकोण में मेरी सदा रक्षा करें।

    शङ्खाभयकरस्थो मां नायक: परमेश्वर:।
    सर्वात्मान्तरदिग्भागे पातु मां शङ्कर: प्रभु:।।१०।।

    अर्थात:हाथों में शंख और अभयमुद्रा धारण करने वाले नायक (सर्वमार्गद्रष्टा), सर्वात्मा सर्वव्यापक परमेश्वर भगवान् शिव समस्त दिशाओं के मध्य में मेरी रक्षा करें।

    ...शेष

    महावीर हनुमान की अष्ट सिद्धियाँ

    $
    0
    0
    आप सभी ने हनुमान चालीसा में एक चौपाई अवश्य पढ़ी होगी - "अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता"। इसका अर्थ ये है कि महावीर हनुमान आठ प्रकार की सिद्धि और नौ प्रकार की निधियों को प्रदान करने वाले हैं। इस लेख में हम महाबली हनुमान की आठ सिद्धियों के बारे में बात करेंगे। सिद्धि ऐसी आलौकिक शक्तियों को कहा जाता है जो घोर साधना अथवा तपस्या से प्राप्त होती है। हिन्दू धर्म में अनेक प्रकार की सिद्धियों का वर्णन है किन्तु उसमे से ८ सिद्धियाँ सर्वाधिक शक्तिशाली और महत्वपूर्ण मानी जाती है। जिनके पास ये सभी सिद्धियाँ होती हैं वो अजेय हो जाता है। इन सिद्धियों को एक श्लोक से दर्शाया गया है:

    अणिमा महिमा चैव लघिमा गरिमा तथा।
    प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धयः।।

    अर्थात:अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, इशित्व और वशित्व - ये ८ सिद्धियाँ "अष्टसिद्धि" कहलाती हैं। आइये इस थोड़ा विस्तार में समझते हैं:
    1. अणिमा: इस सिद्धि की मदद से साधक अणु के सामान सूक्ष्म रूप धारण कर सकता है। अपनी इसी शक्ति का प्रयोग कर हनुमान ने लंकिनी नामक राक्षसी से बचकर लंका में प्रवेश किया था। इसी शक्ति द्वारा हनुमान अतिसूक्ष्म रूप धारण कर सुरसा के मुख में जाकर बाहर आ गए। अहिरावणकी यञशाला में प्रवेश करने के लिए भी हनुमानजी ने इस शक्ति का उपयोग किया था। इस सिद्धि के बल पर हनुमानजी कभी भी अति सूक्ष्म रूप धारण कर सकते हैं। रामायण में कई स्थान पर हनुमान ने अणिमा के बल पर अलग-अलग आकार धारण किये।
    2. महिमा: इस सिद्धि के बल पर साधक विशाल रूप धारण कर सकता है। अपनी इसी शक्ति के बल पर हनुमान जी ने सुरसा के समक्ष अपना आकर १ योजन बड़ा कर लिया था। माता सीता को अपनी शक्ति का परिचय देने के लिए भी हनुमानजी ने अपना आकार बहुत विशाल बना लिया था। लंका युद्ध में कुम्भकर्ण से युद्ध करने के लिए हनुमान ने अपना आकर उसी का समान विशाल कर लिया था। जब लक्ष्मण के प्राण बचाने के लिए संजीवनी बूटीको हनुमान पहचान नहीं पाए तो इसी सिद्धि के बल पर उन्होंने विशाल रूप धर कर पूरे पर्वत शिखर को उखाड़ लिया था। महाभारत में भी भीम और अर्जुनका घमंड तोड़ने के लिए हनुमानजी ने अपना विराट स्वरुप इसी शक्ति के बल पर धरा था। इसी सिद्धि से हनुमान ने बचपन में सूर्य को निगल लिया था।
    3. गरिमा:इस सिद्धि से साधक अपना भार बहुत बढ़ा सकता है। इसमें उनका रूप तो सामान्य ही रहता है किन्तु उनका भार किसी पर्वत की भांति हो जाता है। इसी सिद्धि के बल पर हनुमान ने अपनी पूछ का भार इतना बढ़ा लिया था कि भीम जैसे महाशक्तिशाली योद्धा भी उसे हिला नहीं सके। लंका युद्ध में भी ऐसे कई प्रसंग हैं जब कई राक्षस मिल कर भी हनुमान को डिगा नहीं सके।
    4. लघिमा:इस सिद्धि से साधक अपने शरीर का भार बिलकुल हल्का कर सकता है। इसी सिद्धि के बल पर हनुमान रोयें के सामान हलके हो जाते थे और पवन वेग से उड़ सकते थे। रामायण में भी ऐसा वर्णन है कि जब हनुमान अशोक वाटिका पहुँचे तो जिस वृक्ष के नीचे माता सीता थी उसी वृक्ष के एक पत्ते पर हनुमान इस सिद्धि के बल पर बैठ गए। कहा जाता है कि हनुमान की इसी सिद्धि के कारण उनके द्वारा श्रीराम लिखने पर पत्थर इतने हलके हो गए कि समुद्र पर तैरने लगे और फिर उसी सेतु से वानर सेना ने समुद्र को पार किया।
    5. प्राप्ति:इस सिद्धि की सहायता से साधक किसी भी वस्तु को तुरंत ही प्राप्त कर सकता है। अदृश्य होकर बे रोकटोक कही भी आ जा सकता है और किसी भी पशु-पक्षी की भाषा समझ सकता है। रामायण में हनुमानजी की इस शक्ति के बारे में बहुत अधिक उल्लेख है। कहते हैं इसी सिद्धि के बल पर हनुमान ने माता सीता की खोज की थी। उस दौरान उन्होंने माता सीता की थाह लेने के लिए कई पशु-पक्षियों से बात की थी। 
    6. प्राकाम्य:इस सिद्धि की सहायता से साधक की कोई भी इच्छित वस्तु चिरकाल तक स्थाई रहती है। इसी सिद्धि के कारण हनुमान चिरंजीवी हैं और कल्प के अंत तक अजर-अमर रहने वाले हैं। इस सिद्धि से वो स्वर्ग से पाताल तक कही भी जा सकते हैं और थल, नभ एवं जल में इच्छानुसार जीवित रह सकते हैं। भगवान श्रीराम की भक्ति भी हनुमान को चिरकाल तक इसी सिद्धि के बल पर प्राप्त है। 
    7. ईशित्व:इस सिद्धि की सहायता से साधक अद्वितीय नेतृत्व क्षमता प्राप्त करता है और देवतातुल्य हो जाता है। जिसके पास ये सिद्धि होती है उसे देवपद प्राप्त हो जाता है। यही कारण है कि महाबली हनुमान को एक देवता की भांति पूजा जाता है और इसी सिद्धि के कारण उन्हें कई दैवीय शक्तियाँ प्राप्त है। हनुमान की नेतृत्व क्षमता के बारे में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। इसी नेतृत्व के बल पर हनुमान ने सुग्रीव की रक्षा की, श्रीराम से उनकी मित्रता करवाई और लंका युद्ध में पूरी वानरसेना का मार्गदर्शन किया।
    8. वशित्व: इस सिद्धि की सहायता से साधक किसी को भी अपने वश में कर सकता है। साथ ही साथ साधक अपनी सभी इन्द्रियों को अपने वश में रख सकता है। इसी सिद्धि के कारण पवनपुत्र जितेन्द्रिय है और ब्रह्मचारी होकर अपने मन की सभी इच्छाओं को अपने वश में रखते हैं। इसी सिद्धि के कारण हनुमान किसी को भी अपने वश में कर सकते थे और उनसे अपनी बात मनवा सकते थे।
    अगले लेख में हम महाबली हनुमान की नौ निधियों के बारे में चर्चा करेंगे और उनकी कुछ गौण सिद्धियों के बारे में आपको बताएँगे। जय श्रीराम।

    विकर्ण

    $
    0
    0
    विकर्ण कुरु सम्राट धृतराष्ट्र एवं गांधारी का १९वांपुत्र था (१०० कौरवों का नाम जानने के लिए यहाँजाएँ)। महाभारत में दुर्योधन और दुःशासन के अतिरिक्त केवल विकर्ण ही है जिसकी प्रसिद्धि अधिक है। अन्य कौरवों के बारे में लोग अधिक नहीं जानते हैं। वैसे तो युयत्सुभी धृतराष्ट्र का एक प्रसिद्ध पुत्र है किन्तु दासी पुत्र होने के कारण उसे वो सम्मान नहीं मिला जिसका वो अधिकारी था। हालाँकि कौरवों में केवल युयुत्सु ही ऐसा था जो महाभारत के युद्ध के बाद जीवित बच गया था। कौरवों में विकर्ण ही ऐसा था जो अपने सच्चरित्र के कारण प्रसिद्ध हुआ।

    महर्षि व्यास की कृपा से गांधारी द्वारा प्रसव किये गए मांस पिंड से अन्य कौरवों की भांति विकर्ण का भी जन्म हुआ। कहते हैं सभी कौरव बचपन में सच्चरित्र ही थे किन्तु दुर्योधन और दुःशासन की संगति के कारण वे सभी उनके समान ही अधर्मी हो गए। लेकिन उनमें से केवल विकर्ण ऐसा था जिसने अपने चरित्र और विचार को कभी गिरने नहीं दिया। महाभारत में बचपन में विकर्ण द्वारा दुर्योधन को भीम से द्वेष ना रखने की सलाह देने का भी वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त भी विकर्ण दुर्योधन को उपयुक्त सुझाव देता रहता था।

    दुर्योधन भले ही अहंकारी था किन्तु अपने भाइयों से बहुत प्रेम करता था। दुर्योधन द्वारा उसके किसी भी भाई के प्रति किसी भी प्रकार के द्वेष का वर्णन महाभारत में नहीं मिलता। वो चाहे अपने भाइयों की बातों पर अमल ना करता हो किन्तु उनके सुझावों को महत्त्व अवश्य दिया करता था। कौरवों में से केवल विकर्ण ही ऐसा था जिसने बार-बार दुर्योधन को पांडवों के साथ संधि कर लेने का परामर्श दिया था। हालाँकि उसकी इस बात को किसी ने भी महत्त्व नहीं दिया। द्रौपदी स्वयंवर में भी विकर्ण दुर्योधन के साथ उपस्थित था।

    अन्य कौरवों के साथ विकर्ण की शिक्षा भी पहले कृपाचार्य और फिर बाद में गुरु द्रोणाचार्य द्वारा संपन्न हुई। वैसे तो विकर्ण कई प्रकार के अस्त्र-शस्त्र के सञ्चालन में निपुण था किन्तु उसकी कुशलता धनुर्विद्या में अधिक थी। कर्ण और अर्जुन जैसे धनुर्धर के होते हुए विकर्ण को कभी एक महान धनुर्धारी के रूप में प्रसिद्धि नहीं मिली किन्तु महाभारत में इस बात का कई स्थानों पर वर्णन है कि विकर्ण भी अद्भुत धनुर्धारी था। स्वयं द्रोणाचार्य भी विकर्ण की धनुर्विद्या के बड़े प्रशंसक थे। महाभारत युद्ध से पहले कौरव और पांडव पक्ष के योद्धाओं का वर्णन करते हुए पितामह भीष्म ने विकर्ण को रथीकी श्रेणी में रखा था और उसकी गिनती कौरवों के प्रमुख योद्धाओं में की थी।

    जब द्यूत में पराजित होने के बाद पांडवों को दास बना कर उनका अपमान किया गया उस समय तो विकर्ण ने कुछ नहीं कहा किन्तु जब दुर्योधन ने भरी सभा में द्रौपदी के वस्त्रहरण का आदेश दिया तो ये देख कर कि उस सभा में कोई अन्य उस अन्याय का विरोध नहीं कर रहा, विकर्ण ने मुखर रूप से उस कृत्य का विरोध किया था। उस सभा में महात्मा विदुर के अतिरिक्त केवल विकर्ण ही था जिसने द्रौपदी के चीरहरण का खुले रूप में विरोध किया था। ऐसा वर्णन है कि विकर्ण द्वारा इस प्रकार विरोध करने पर दुर्योधन इतना क्रोधित हुआ कि वो विकर्ण की हत्या करने के लिए उठ गया। हालाँकि बाद में कर्ण ने उसे ऐसा करने से रोक दिया।

    चीरहरण का विरोध करते हुए विकर्ण ने एक ऐसा तर्क भी दिया जिससे दुर्योधन समेत समस्त कौरव निरुत्तर हो गए थे। विकर्ण ने कहा - "हे भ्राताश्री! महाराज युधिष्ठिर ने भले ही भाभीश्री द्रौपदी को दाँव पर लगा दिया हो किन्तु केवल वे ही उनके पति नहीं हैं। अन्य पांडव भाई भी द्रौपदी के पति हैं और उनका भी उनपर उतना ही अधिकार है जितना भ्राता युधिष्ठिर का। इसीलिए बिना अपने भाइयों की सहमति लिए अपनी पत्नी को दाँव पर लगाने का भ्राता युधिष्ठिर को कोई अधिकार ही नहीं था। अतः चौसर का ये दाँव अमान्य घोषित होना चाहिए।" विकर्ण के ऐसा कहने पर दुर्योधन निरुत्तर हो गया किन्तु कर्ण अदि के विभिन्न तर्क सुनकर और अभिमान के वश में आकर उसने अपने छोटे भाई की बात नहीं सुनी।

    महाभारत युद्ध में भी विकर्ण की महत्वपूर्ण भूमिका रही। भीष्म, द्रोण, विदुर इत्यादि की भांति ही विकर्ण ने भी इस युद्ध को टालने के कई प्रयास किये किन्तु उसका हर प्रयास अंततः व्यर्थ ही गया। ये जानते हुए भी कि वो अधर्म के पक्ष में है और कौरवों की पराजय निश्चित है, उसने दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ा और उसके पक्ष में युद्ध करने का निश्चय किया। यहाँ पर हमें विकर्ण में उसी प्रकार की भातृभक्ति दिखाई देती है जैसा राक्षसराज रावण के प्रति उसके छोटे भाई कुम्भकर्ण की थी। कुम्भकर्ण ने भी रावण के द्वारा किये गए कार्य के लिए उसकी भर्स्तना की थी किन्तु अंत तक उसका साथ नहीं छोड़ा। वही दूसरी और युयुत्सु की तुलना विभीषण से की जा सकती है जिसने धर्म के लिए अपने भाई का साथ छोड़ दिया।

    युद्ध के चौथे दिन विकर्ण ने अभिमन्यु को रोकने का प्रयास किया और दोनों में घोर युद्ध हुआ। उस युद्ध में विकर्ण ने कई बार अभिमन्यु का रथ पीछे हटा दिया था किन्तु अंततः उसे अभिमन्यु के हांथों पराजय मिली। युद्ध के पाँचवे दिन विकर्ण ने महिष्मति की सेना द्वारा बनाया गया सुरक्षा कवच अकेले ही तोड़ने का प्रयत्न किया किन्तु भीम के वहाँ आ जाने के कारण वो सफल नहीं हो पाया। युद्ध के सातवें दिन उसने अपने कई भाइयों को भीम के कोप से बचाया। युद्ध के दसवें दिन उसने अकेले ही अर्जुन और शिखंडी के रथ को भीष्म की ओर जाने से रोक दिया किन्तु फिर महाराज द्रुपद ने उसे द्वन्द के लिए ललकारा जिससे अर्जुन को आगे बढ़ने का मौका मिल गया।

    महाभारत युद्ध में विकर्ण ने पांडव सेना के प्रमुख योद्धाओं चित्रयुद्ध और चित्रयोधिन का वध कर पांडव सेना को अशक्त किया। उनके अतिरिक्त भी उसने युद्ध में पांडव सेना के कई योद्धाओं का वध किया। पांडव सेना के प्रमुख योद्धाओं में विशेष रूप से उसका युद्ध नकुल, सहदेव और घटोत्कच के साथ हुआ जिसमे उसने असाधारण वीरता का परिचय दिया। युद्ध के तेरहवें दिन जब कई महारथियों ने अभिमन्यु का वध किया तब वो मूक ही रहा किन्तु अभिमन्यु वध में उसकी कोई सक्रिय भूमिका नहीं थी।

    युद्ध के चौदहवें दिन जब भीम अत्यंत क्रोध में आकर दुःशासन को खोज रहे थे तब दुर्योधन ने विकर्ण को भीम को रोकने के लिए भेजा। जब विकर्ण भीम के समक्ष आये तब उन दोनों के बीच जो संवाद हुआ वो बड़ा भावुक कर देने वाला है। दुःशासन को खोज रहे भीम ने जब विकर्ण को अपने समक्ष आते हुए देखा तब उन्होंने कहा "हे अनुज! तुम आज मुझसे युद्ध ना करो क्यूंकि मैं तुम्हारा वध नहीं करना चाहता। मैं भूला नहीं हूँ कि किस प्रकार केवल तुमने पांचाली के वस्त्रहरण का विरोध किया था। आज यदि तुम मुझसे युद्ध करोगे तो अवश्य मेरे हाथों तुम्हारा वध हो जाएगा। अतः तुम जाकर किसी अन्य योद्धा से युद्ध करो।"

    भीम को इस प्रकर बोलते देख कर विकर्ण बोले - "हे भ्राताश्री! मुझे पता है कि मैं आपको पराजित नहीं कर सकता और आपसे युद्ध करने पर मेरी मृत्यु निश्चित हैं किन्तु फिर भी मैं अपने भ्राता के लिए आपसे अवश्य युद्ध करूँगा। मैंने द्यूतसभा में भाभीश्री के वस्त्रहरण का विरोध किया था क्यूंकि उस समय वही मेरा धर्म था और आज इस रणभूमि में आपको रोक रहा हूँ क्यूंकि अब यही मेरा धर्म है।" विकर्ण का ये वक्तव्य उसके उज्जवल चरित्र और दृढ निश्चय को प्रदर्शित करता है।

    तत्पश्चात विकर्ण ने भीम से युद्ध किया और उनके हाथों वीरगति को प्राप्त हुआ। विकर्ण की मृत्यु के बाद भीम के रुदन करने का भी वर्णन महाभारत में है। विकर्ण का मृत शरीर देख कर भीम रोते हुए कहते हैं - "हे अनुज! जैसे कीचड़ में कमल खिलता है उसी प्रकार तुम सभी कौरवों में सबसे उत्तम चरित्र वाले थे। पितामह की भांति तुम्हे भी धर्म का ज्ञान था। आज तुम्हारा वध करके मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैंने किसी पांडव को खो दिया है। तुम जैसे भाई के प्राणों की रक्षा के लिए अगर मुझे अपनी प्रतिज्ञा भी तोड़नी पड़ती तो मुझे उसका कोई खेद नहीं होता।"

    विकर्ण की मृत्यु पर द्रौपदी को भी बड़ा दुःख हुआ था क्यूंकि चीरहरण के समय केवल विकर्ण ही था जो उसके पक्ष में खड़ा था। भले ही महाभारत में विकर्ण का चरित्र उतनी मुखरता से नहीं बताया गया हो किन्तु इतिहास में उसका नाम सदैव एकमात्र सच्चरित्र और धर्म का ज्ञान रखने वाले कौरव के रूप में अमर रहेगा।

    कुरु एवं यदु वंश

    $
    0
    0
    पुरुवंश के विषय में विस्तार से पढ़ने के लिए यहाँजाएँ।


    मृतसञ्जीवनी स्त्रोत्र - ३

    $
    0
    0
    पिछले लेखमें आपने श्री मृतसंजीवनी स्त्रोत्र के पहले १० श्लोकों का अर्थ पढ़ा। इस लेख में ३० श्लोकों वाले इस स्त्रोत्र के अगले १० श्लोकों का अर्थ दिया जा रहा है।

    शूलाभयकर: सर्वविद्यानामधिनायक:।
    ईशानात्मा तथैशान्यां पातु मां परमेश्वर:।।११।।

    अर्थात:हाथों में शंख और अभयमुद्रा धारण करने वाले, सभी विद्याओं के स्वामी, ईशान स्वरूप भगवान् परमेश्वर शिव ईशान कोण में मेरी रक्षा करें।

    ऊर्ध्वभागे ब्रह्मरूपी विश्वात्माऽध: सदावतु।
    शिरो मे शङ्कर: पातु ललाटं चन्द्रशेखर:।।१२।।

    अर्थात:ब्रह्मरूपी शिव मेरी ऊर्ध्वभाग में तथा विश्वात्मस्वरूप शिव अधोभाग में मेरी सदा रक्षा करें। शंकर मेरे सिर की और चन्द्रशेखर मेरे ललाट की रक्षा करें।

    भूमध्यं सर्वलोकेशस्त्रिणेत्रो लोचनेऽवतु।।
    भ्रूयुग्मं गिरिश: पातु कर्णौ पातु महेश्वर:।।१३।।

    अर्थात:मेरे भौंहों के मध्य में सर्वलोकेश और दोनों नेत्रों की त्रिनेत्र भगवान् शंकर रक्षा करें। दोनों भौंहों की रक्षा गिरिश एवं दोनों कानों की रक्षा भगवान् महेश्वर करें।

    नासिकां मे महादेव ओष्ठौ पातु वृषध्वज:।
    जिव्हां मे दक्षिणामूर्तिर्दन्तान्मे गिरिशोऽवतु।।१४।।

    अर्थात:महादेव मेरी नासीका की तथा वृषभध्वज मेरे दोनों अधरों की सदा रक्षा करें। दक्षिणामूर्ति मेरी जिह्वा की तथा गिरिश मेरे दन्तों की रक्षा करें।

    मृत्युञ्जयो मुखं पातु कण्ठं मे नागभूषण:।
    पिनाकि मत्करौ पातु त्रिशूलि हृदयं मम।।१५।।

    अर्थात:मृत्युञ्जय मेरे मुख की एवं नागभूषण भगवान् शिव मेरे कण्ठ की रक्षा करें। पिनाकी मेरे दोनों हाथों की तथा त्रिशूलि मेरे हृदय की रक्षा करें।

    पञ्चवक्त्र: स्तनौ पातु उदरं जगदीश्वर:।
    नाभिं पातु विरूपाक्ष: पार्श्वो मे पार्वतिपति:।।१६।।

    अर्थात:पञ्चवक्त्र मेरे दोनों स्तनो की और जगदीश्वर मेरे उदरकी रक्षा करें। विरूपाक्ष नाभि की और पार्वतीपति पार्श्वभाग की रक्षा करें।

    कटद्वयं गिरिशौ मे पृष्ठं मे प्रमथाधिप:।
    गुह्यं महेश्वर: पातु ममोरु पातु भैरव:।।१७।।

    अर्थात:गिरीश मेरे दोनों कटिभाग की तथा प्रमथाधिप पृष्टभाग की रक्षा करें। महेश्वर मेरे गुह्यभाग की और भैरव मेरे दोनों ऊरुओं की रक्षा करें।

    जानुनी मे जगद्धर्ता जङ्घे मे जगदंबिका।
    पादौ मे सततं पातु लोकवन्द्य: सदाशिव:।।१८।।

    अर्थात:जगद्धर्ता मेरे दोनों घुटनों की, जगदम्बिका मेरे दोनों जंघो की तथा लोकवन्दनीय सदाशिव निरन्तर मेरे दोनों पैरों की रक्षा करें।

    गिरिश: पातु मे भार्या भव: पातु सुतान्मम।
    मृत्युञ्जयो ममायुष्यं चित्तं मे गणनायक:।।१९।।

    अर्थात:गिरीश मेरी भार्या की रक्षा करें तथा भव मेरे पुत्रों की रक्षा करें। मृत्युञ्जय मेरे आयु की गणनायक मेरे चित्त की रक्षा करें।

    सर्वाङ्गं मे सदा पातु कालकाल: सदाशिव:।
    एतत्ते कवचं पुण्यं देवतानांच दुर्लभम्।।२०।।

    अर्थात:कालों के काल सदाशिव मेरे सभी अंगो की रक्षा करें। देवताओंके लिये भी दुर्लभ इस पवित्र कवच का वर्णन मैंने तुमसे किया है।

    ...शेष

    धार्मिक कहानी प्रतियोगिता - ३

    क्यों श्रीकृष्ण ने अपने ही पुत्र को श्राप दिया?

    $
    0
    0
    महाभारत काल के दौरान सत्राजित की समयान्तक मणि ढूंढने के दौरान श्रीकृष्ण एक गुफा में पहुँचे जहाँ उन्होंने ऋक्षराज जांबवंत को देखा। जांबवंत के पास श्रीकृष्ण की समयान्तक मणि थी और जब उन्होंने उसे श्रीकृष्ण को वापस देने से मना किया तब दोनों के बीच भयानक युद्ध आरम्भ हुआ। ये युद्ध २८ दिनों तक चलता रहा किन्तु दोनों के बीच हार-जीत का निर्णय नहीं हो सका। तब जांबवंत ने अपने आराध्य श्रीराम का स्मरण किया तो उन्हें श्रीकृष्ण में ही अपने प्रभु श्रीराम दिखाई दिए। इससे जांबवंत को समझ आ गया कि श्रीकृष्ण ही श्रीराम के दूसरे रूप हैं। उन्होंने मणि श्रीकृष्ण को दे दी और अपनी पुत्री जांबवंती का विवाह भी श्रीकृष्ण के साथ कर दिया।

    इन्ही जांबवंती के गर्भ से साम्ब का जन्म हुआ। जांबवंती सहित श्रीकृष्ण की ८ मुख्य रानियाँ थी। इसके अतिरिक्त उन्होंने नरकासुर के कारागार से छुड़ाई गयी १६१०० कन्याओं से भी विवाह किया था। साम्ब ने दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा से विवाह किया और दुर्भाग्य वही सम्पूर्ण यदुवंश के नाश का कारण बनें। इस विषय में विस्तार से पढ़ने के लिए यहाँजाएँ। कहते हैं साम्ब दिखने में इतना आकर्षक था कि कोई भी कन्या उसे देख कर आकर्षित हो जाती थी। भविष्य, स्कन्द एवं वाराह पुराणों ने इस बात का वर्णन है कि भूलवश श्रीकृष्ण ने साम्ब को कोढ़ी हो जाने का श्राप दे दिया था।

    साम्ब बड़े आकर्षक थे और रूप-रंग और कद-काठी में श्रीकृष्ण के सामान ही थे। उनके रूप के कारण श्रीकृष्ण की कुछ रानियाँ उनपर आकृष्ट हो गयीं। उन्ही में एक रानी "नंदिनी" ने एक दिन साम्ब की पत्नी लक्ष्मणा का रूप धरा और साम्ब के कक्ष में पहुँच कर उन्हें आलिंगन में ले लिया। उसी समय श्रीकृष्ण ने उन दोनों को उस अवस्था में देख लिया और पूरी बात की जानकारी ना होने के कारण उन्होंने साम्ब को कोढ़ी हो जाने का श्राप दे दिया। इस पर भी उनका क्रोध शांत नहीं हुआ तो उन्होंने उसकी मृत्यु के पश्चात उसकी पत्नियों को दस्युओं द्वारा अपहृत हो जाने का श्राप भी दे दिया।
    यहाँ पर कुछ मूढ़ व्यक्ति साम्ब और नंदिनी के चरित्र पर संदेह करते हैं किन्तु ऐसा नहीं है। इस घटना की दो बड़ी सुन्दर व्याख्या दी गयी है:
    1. पहली तो ये कि नंदिनी ने साम्ब को पुत्रवत अपने आलिंगन में लिया था, कामवश नहीं। 
    2. दूसरी ये कि चूँकि साम्ब अपने पिता श्रीकृष्ण की तरह ही दिखते थे, नंदिनी ने गलती से उन्हें श्रीकृष्ण समझ कर ही आलिंगन कर लिया।
    जब श्रीकृष्ण को अपनी भूल का पता चला तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ। उसी समय ऋषि कटक द्वारिका में पधारे। तब श्रीकृष्ण ने उन्हें इस समस्या के विषय में बताया। तब ऋषि कटक ने कुष्ठ रोग से मुक्ति पाने के लिए साम्ब को सूर्यनारायण की साधना करने को कहा। तब चंद्रभागा नदी के किनारे साम्ब ने सूर्यदेव का प्रसिद्ध मंदिर बनवाया और १२ वर्षों तक उनकी घोर तपस्या की। इससे प्रसन्न होकर सूर्यदेव प्रकट हुए और साम्ब को चंद्रभागा नदी में स्नान करने को कहा। ऐसा करते ही सूर्यदेव की कृपा से साम्ब को श्राप से मुक्ति मिली। तब से चंद्रभागा नदी को कुष्ठरोग से मुक्ति प्रदान करने वाली नदी के रूप में जाना जाता है। 

    ये प्रसिद्ध मंदिर वर्तमान के पाकिस्तान में मुल्तान शहर में स्थित है। प्राचीन काल में इस मंदिर की प्रसिद्धि बहुत अधिक थी। ६४१ ईस्वी में जब चीन के दार्शनिक शुयांग ज़ैंग इस स्थान पर आए तो उन्होंने लिखा कि मंदिर में स्थित सूर्यदेव की मूर्ति सोने की बनी हुई थी। उनके नेत्रों के स्थान पर बहुमूल्य लाल माणिक लगे थे। स्वर्ण और रजत से बने मंदिर के स्तम्भों पर बहुमूल्य रत्न जड़े हुए थे। रोजाना काफी संख्या में हिन्दू धर्म के अनुयायी इस मंदिर में पूजा करने आते थे। बौद्ध भिक्षु के अनुसार उन्होंने यहां देवदासियों को भी नृत्य करते देखा था। सूर्यदेव के अतिरिक्त यहाँ भगवान शिव और बुद्ध की प्रतिमाएं भी इस मंदिर में स्थापित थीं। 

    फिर मुग़ल लुटेरे मुहम्मद कासिम ने सारे बहुमूल्य रत्न आभूषण लूट लिए। उसने इस मंदिर के साथ एक मस्जिद का निर्माण करवाया जो आज मुलतान का सबसे भीड़भाड़ वाला इलाका है। कोई हिन्दू राजा मुलतान पर आक्रमण ना कर पाए इसके सूर्य मंदिर को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया। जब कभी भी कोई हिन्दू शासक मुलतान की ओर आक्रमण करने बढ़ता था, कासिम उसे यह धमकी देता था कि अगर वह मुलतान पर आक्रमण करते हैं तो वो सूर्य मंदिर को तबाह कर देगा। 

    उसके बाद सन १०२६ में एक और मुस्लिम लुटेरे मुहम्मद गजनवी ने हिन्दुओं की आस्था की परवाह ना करते हुए इस महान मंदिर को पूरी तरह तोड़ डाला। अठाहरवीं शताब्दी में हिन्दुओं ने इसे पुनः बनाने का प्रयास किया किन्तु फिर पाकिस्तान के अलग होते ही पुनः मुस्लिमों ने इसे तबाह कर डाला। आज आपको मुल्तान में इस महान मंदिर के केवल अवशेष ही दिखाई देंगे।
    Viewing all 664 articles
    Browse latest View live


    <script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>