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Channel: धर्म संसार | भारत का पहला धार्मिक ब्लॉग
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द्रौपदी

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पूर्व काल में एक ऋषि थे मुद्गल। उनका विवाह इन्द्रसेनानामक कन्या से हुआ जो बाद में अपने पति के नाम से मुद्गलनीभी कहलायी। दुर्भाग्य से मुद्गल की मृत्यु विवाह के तुरंत बाद हो गयी। तब इंद्रसेना को अपने पति के जाने का अपार दुःख हुआ किन्तु उसे इस बात का भी दुःख हुआ कि वो अपने वैवाहिक जीवन का भोग नहीं कर सकी। इसी कारण उसने भगवान शंकर की घोर आराधना की। जब महादेव प्रसन्न हुए तो इन्द्रसेना ने उनसे ये वर माँगा कि अगले जन्म में उसे एक ऐसा पति चाहिए जो धर्म का ज्ञाता हो, अपार बलशाली हो, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हो, संसार में सर्वाधिक सुन्दर हो एवं जिसके सहनशीलता की कोई सीमा ना हो।

महादेव मुस्कुराये और उन्होंने इन्द्रसेना से कहा कि एक ही पुरुष में ये सारे गुण होना असंभव है। किन्तु इन्द्रसेना अपनी इच्छा पर अड़ी रही और "वर देहि"का पाँच बार उच्चारण किया। तब महादेव ने उससे कहा कि मनुष्य को वरदान सोच समझ कर ही मांगना चाहिए अन्यथा उसका प्रतिकूल प्रभाव होता है। तुमने मुझसे पाँच बार पाँच अलग गुणों के पति की कामना की है इसी कारण अगले जन्म में तुम्हे इन गुणों के पाँच पति प्राप्त होंगे। ये कहकर भगवान शंकर अंतर्धान हो गए।

समय बीता, महर्षि भारद्वाज के आश्रम में पृषत पुत्र द्रुपद एवं स्वयं भारद्वाज पुत्र द्रोण में घनिष्ठ मित्रता हो गयी। खेल-खेल में द्रुपद ने द्रोण से कह दिया कि जब वे राजा बनेंगे तो अपना आधा राज्य द्रोण को दे देंगे। जब दोनों बड़े हुए तो द्रुपद को अपने पिता से पांचाल का राज्य मिला और द्रोण एक निर्धन ब्राह्मण के रूप में दिन बिताने लगे। एक दिन ऐसा भी आया जब द्रोण की पत्नी कृपी के पास अपने पुत्र अश्वथामा को पिलाने हेतु दूध तक नहीं था। तब द्रोण द्रुपद के राज्य में पहुँचे और उन्हें मित्र कह कर सम्बोधित किया। इसपर द्रोण ने भरी सभा में उनका अपमान किया और तब उसका प्रतिशोध लेने के लिए द्रोण ने भगवान परशुरामसे शिक्षा प्राप्त की और हस्तिनापुर के राजगुरु के पद पर आसीन हुए। 

जब कौरवों और पांडवों की शिक्षा समाप्त हुई तो द्रोण ने गुरु दक्षिणा में द्रुपद को माँगा। कौरवों के असफल होने के बाद अंततः पांडवों ने विजय प्राप्त की और अर्जुन ने द्रुपद को बंदी बना कर द्रोण के समक्ष प्रस्तुत किया। द्रोण ने पांचाल का विभाजन कर लिया और उत्तरी पांचाल का राजा अश्वथामा को बना दिया। दक्षिण पांचाल द्रुपद के पास ही रहा। द्रुपद की दो संतान थी - ज्येष्ठ थी शिखण्डिनी, जिसने बाद में पुरुषत्व प्राप्त किया और शिखंडी कहलायी एवं सत्यजीत। किन्तु द्रोण से प्रतिशोध लेने के लिए द्रुपद को एक दिव्य पुत्र की आवश्यकता थी। इसी लिए उन्होंने एक यज्ञ जिसकी अग्नि से उन्हें धृष्टधुम्न नामक पुत्र प्राप्त हुआ। फिर उसी यज्ञ से एक पुत्री का भी प्रादुर्भाव हुआ। द्रुपद की पुत्री होने कारण वो द्रौपदीकहलायी। पांचाल की राजकुमारी होने के कारण उनका नाम पांचाली,  यज्ञ से प्रकट होने के कारण याज्ञसेनीऔर सांवले रंग के कारण उसका एक नाम कृष्णाभी पड़ा।

द्रौपदी को इन्द्राणी शचि का अवतार भी माना जाता है। कहा जाता है समस्त संसार में उससे सुंदर स्त्री और कोई नहीं थी। अपनी चंद्रमुखी पुत्री के विवाह के लिए द्रुपद ने एक महान यज्ञ का आयोजन किया। उन्होंने अर्जुन का पराक्रम देखा था और वे चाहते थे द्रौपदी को अर्जुन पति रूप में मिले। इसी कारण उन्होंने एक अत्यंत कठिन धनुर्विद्या की प्रतियोगिता रखी जिसमें ऊपर घूमती हुई मीन के नेत्र को नीचे रखे तेल में उसका प्रतिबिम्ब देख कर बींधना था। उस कठोर धनुष को वहाँ उपस्थित प्रतियोगी हिला भी ना सके, किन्तु फिर अंगराज कर्ण ने सहज ही उस धनुष को उठा कर उसपर प्रत्यंचा चढ़ा दी। किन्तु द्रौपदी ने अपने कुल का ध्यान रखते हुए एक सूतपुत्र से विवाह करने से मना कर दिया। 

द्रौपदी के इस कृत्य को आज कल के लोग जातिवादी बताते हैं किन्तु उन्हें ये भी जानना चाहिए कि इस घटना के विषय में भी अलग-अलग मत हैं। महाभारत के दक्षिणात्य पाठमें ऐसा वर्णित है कि महारथी कर्ण ने वो धनुष उठा तो लिया किन्तु उसपर प्रत्यञ्चा चढाने में असफल रहे। अर्थात इसके अनुसार द्रौपदी ने स्वयंवर में कर्ण का अपमान नहीं किया था। तत्पश्चात ब्राह्मण रुपी अर्जुन ने उस धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ा कर मत्स्य की आँखों को एक ही बाण से बींध कर द्रौपदी का वरण कर लिया।

उस समय तक द्रौपदी को ये नहीं पता था कि उसका पति सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन है। जब वे पांचों भाई आश्रम पहुँचे तो उन्होंने परिहास में ही अपनी माता कुंती से ये कहा कि वे दान में एक अद्भुत वस्तु लाये हैं। तब कुंती ने बिना देखे ही अनायास ये कह दिया कि उसे पाँचो भाई बराबर आपस में बाँट लें। अब उनके समक्ष एक घोर धर्म संकट आ गया। भला एक कन्या को पाँच पुरुषों में कैसे बाँटा जा सकता था। तभी महर्षि व्यास और श्रीकृष्ण वहाँ पहुँचे और द्रौपदी को धर्मपूर्वक पाँचों पांडवों से विवाह करने को कहा। उन्होंने जटिलानामक एक सती स्त्री का उदाहरण भी दिया जिसने ७ पुरुषों से विवाह किया था। इसके अतिरिक्त १० प्रचेताओं का विवाह भी मारिषिनामक कन्या से हुआ था।

इसके पश्चात भी द्रौपदी के मन में संशय देख कर श्रीकृष्ण ने उन्हें उनके पूर्वजन्म की बात याद दिलाई जिसमें महादेव ने उन्हें पाँच पति पाने का वरदान दिया था। उसी वरदान के फलस्वरूप धर्म के प्रतीक युधिष्ठिर, महाबलवान भीम, परशुराम के सामन पराक्रमी अर्जुन, अद्भुत सौंदर्य के धनी नकुल और अपार सहनशीलता के स्वामी सहदेव उन्हें पति के रूप में मिले हैं। तब द्रौपदी ने कहा कि वो किस प्रकार पवित्र रहकर पाँच पतियों के साथ धर्मपूर्वक रह सकती है? इस दुविधा को समझते हुए महर्षि व्यास ने द्रौपदी को चिरकुमारी होने का वरदान दिया। उन्होंने कहा कि प्रत्येक रात्रि के बाद उसका कौमार्य पुनः अक्षत हो जाएगा जिससे वो पवित्र भाव से अपने सभी पतियों के साथ रह सकती है। इसी कारण उन्हें पंचकन्याओं में भी स्थान मिला।

जब वे द्रौपदी के साथ हस्तिनापुर लौटे और इंद्रप्रस्थ का विभाजन हुआ तब देवर्षि नारद युधिष्ठिर से मिलने आये। उन्होंने उन्हें सुन्द-उपसुन्द की कथा सुनाई और कहा कि उन्हें एक नियम बनाना चाहिए जिससे द्रौपदी एक समय में एक ही पांडव के साथ १ वर्ष तक रह सके। पांडवों ने उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। भूलवश उसी अनुबंध का उलंघन करने पर अर्जुन को १२ वर्ष वनवास में बिताने पड़े। द्रौपदी को पांडवों से १-१ पुत्र प्राप्त हुए। युधिष्ठिर से प्रतिविन्ध्य, भीम से सुतसोम, अर्जुन से श्रुतकर्मा, नकुल से शतानीकएवं सहदेव से श्रुतसेन। ये सभी उप-पांडवकहलाये। दुर्भाग्य से अश्वत्थामा ने इन सभी का वध कर दिया। 

इसके बाद वो प्रसंग भी आया जहाँ कुरुकुल में द्रौपदी का भयानक अपमान हुआ। कुछ लोग ये मानते हैं कि इससे पूर्व द्रौपदी ने दुर्योधन को "अंधे का पुत्र अँधा"कहा था किन्तु इसका भी कोई सटीक वर्णन हमें मूल महाभारत में नहीं मिलता। कर्ण के अपमान की भांति ही ये भी लोक कथाओं के रूप में अधिक प्रचलित है जिसकी प्रमाणिकता सिद्ध नहीं है। जब पांडव द्युत में परास्त हुए तो द्रौपदी भी उसमें हारी जा चुकी थी। ऐसा उदाहरण संसार में और कही नहीं मिलता। उस सभा में दुर्योधन के आदेश पर दुःशासन ने सती द्रौपदी के चीरहरण का प्रयास किया और तब श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की लाज बचाई। उसी सभा में द्रौपदी ने अपने केशों को तब तक खुला रखने की प्रतिज्ञा की जबतक कौरवों का नाश नहीं हो जाता। 

तत्पश्चात जब पांडवों को वनवास मिला तो भी द्रौपदी ने एक सती की भांति उनका अनुसरण किया। द्रौपदी के पुण्यकर्मों के प्रभाव के कारण भगवान सूर्यनारायण ने उसे एक "अक्षय पात्र"प्रदान किया जिसका भोजन द्रौपदी के भोजन करने तक कभी समाप्त नहीं होता था। उसी की सहायता से वन में रहते हुए भी पांडव ऋषियों की सेवा और सत्कार करने में सक्षम हुए। वनवास के समय ही द्रौपदी का हरण दुःशला के पति जयद्रथ ने कर लिया। भीम और अर्जुन ने उसे मुक्त करवाया और युधिष्ठिर ने जयद्रथ को दण्डित कर उसे मुक्त कर दिया।

वनवास की समाप्ति पर अगला १ वर्ष पांडवों ने गुप्तवास में बिताया। युधिष्ठिर कंक, भीम बल्लभ, अर्जुन बृहन्नला, नकुल ग्रन्थिक, सहदेव तन्तिपालएवं द्रौपदी सैरंध्रीके नाम से मत्स्यराज विराट के दास के रूप में दिन बिताने लगे। किन्तु द्रौपदी के दुर्भाग्य ने यहाँ भी उसका पीछा नहीं छोड़ा और विराट के साले कीचककी कुदृष्टि सैरंध्री पर पड़ी। उसकी रक्षा के लिए भीम ने कीचक और उसके १०५ भाइयों, जो उप-कीचक कहलाते थे, का वध कर दिया। अज्ञातवास के अंतिम दिन ही अर्जुन ने कौरव सेना को विराट युद्ध में परास्त किया और तत्पश्चात अपना राज्य ना मिलने पर महाभारत युद्ध हुआ। महाभारत युद्ध के १४वें दिन भीम ने दुःशासन का वध किया और तब उसके रक्त से प्रक्षालन कर अंततः द्रौपदी ने अपने केश बांघे। 

युद्ध के बाद ३६ वर्षों तक युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर पर राज्य किया और द्रौपदी पटरानी के पद पर आसीन हुई। संसार की श्रेष्ठ सतियाँ जैसे रुक्मिणी एवं सत्यभामा भी द्रौपदी को अपना आदर्श मानती थी। एक प्रसंग आता है जब सत्यभामा द्रौपदी से पूछती हैं कि वो किस प्रकार पांडवों को अपने वश में रखती है? ये सुनकर द्रौपदी उनसे कहती है कि कोई भी सती स्त्री अपने पति को वश में रखने का प्रयास नहीं करती। तत्पश्चात सत्यभामा लज्जित होकर उनसे क्षमा मांगती है और तब द्रौपदी उन्हें सतीधर्म की शिक्षा देती हैं। 

श्रीकृष्ण के निर्वाण के तत्पश्चात पांडवों ने शरीर त्यागने का निश्चय कर स्वर्गारोहण किया जहाँ द्रौपदी भी उनके साथ थी। एक एक कर के सभी पांडव और द्रौपदी मृत्यु को प्राप्त हुए किन्तु युधिष्ठिर स्वर्ग की ओर बढ़ते रहे। जब भीम ने पूछा कि पतिव्रताओं में श्रेष्ठ द्रौपदी अपने किस अपराध के कारण मृत्यु को प्राप्त हुई है तब युधिष्ठिर ने कहा कि द्रौपदी पाँचों पांडवों की पत्नी थी किन्तु उसने सदैव अर्जुन से सर्वाधिक प्रेम किया। अपने इसी पक्षपात के कारण वो मृत्यु को प्राप्त हुई।

वैसे तो अन्य पंचकन्याएँ - अहिल्या, तारा, मंदोदरीएवं कुंतीके चरित्र के विषय में भी मूढ़ लोग प्रश्न उठाते रहते हैं किन्तु जिस प्रकार के चरित्रहनण का प्रयास द्रौपदी का हुआ है उसकी कोई तुलना नहीं है। हमारे धर्म ग्रंथों में इतनी भरी मात्रा में मिलावट हुई है जिसकी कोई सीमा नहीं है। विशेष कर द्रौपदी के विषय में इतने अनर्गल प्रचार किये गए हैं कि क्या कहा जाये। 

कई घटिया ग्रन्थ जो आधुनिक काल में ही लिखे गए हैं, विशेष रूप से द्रौपदी की कर्ण के प्रति आसक्ति के विषय में लिखते हैं जो बिलकुल भी सत्य नहीं है। और तो और श्रीकृष्ण एवं द्रौपदी के विषय में भी कई अनर्गल प्रलाप आपको मिल जाएंगे जो बिलकुल निरर्थक हैं। द्रौपदी के पाँच पांडवों से सम्बन्ध के विषय में भी लोग प्रश्न उठाते हैं किन्तु वे ये भूल जाते हैं वो एक महासती थी जिसे समझना आजकल के अल्पबुद्धि व्यक्तियों के बस में नहीं है। इस अनर्गल तर्क का एक बड़ा कारण आज कल के अप्रासंगिक टीवी सीरियल्स भी हैं जिन्होंने पूरे गौरवशाली इतिहास को तोड़ने मड़ोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

तो इस लेख के साथ पंचकन्याओं की श्रृंखला समाप्त होती है। आशा है आपको ये श्रंखला पसंद आयी होगी। पंचकन्याओं के श्लोक से हम इसका अंत करते हैं -

अहिल्या द्रौपदी कुन्ती तारा मन्दोदरी तथा।
पंचकन्या स्मरणित्यं महापातक नाशक॥

अर्थात:अहिल्या, द्रौपदी, कुन्ती, तारा तथा मन्दोदरी, इन पाँच कन्याओं का प्रतिदिन स्मरण करने से सारे पाप धुल जाते हैं।

क्या महाराज दशरथ की ३५० रानियाँ थी?

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भारतीय संस्कृति में महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण के जिस रचना ने सर्वाधिक असर छोड़ा है वो गोस्वामी तुलसीदास रचित श्री रामचरितमानस है। हालाँकि तुलसीदास ने अपने ग्रन्थ मानस में कुछ ऐसी घटनाओं को भी जोड़ा है जो मूल वाल्मीकि रामायण में नहीं है। साथ ही कई अन्य घटनाओं को मानस में स्थान नहीं दिया गया है। ऐसी ही एक जानकारी महाराज दशरथ की पत्नियों के विषय में है।

रामचरितमानस में ये बताया गया है कि महाराज दशरथ की केवल तीन पत्नियाँ थी - कौशल्या, सुमित्रा एवं कैकेयी। हालाँकि यदि आप मूल वाल्मीकि रामायण को पढ़ेंगे तो हमें ये पता चलता है कि महाराज दशरथ की मुख्य एवं गौण मिलाकर कुल रानियों की संख्या ३५० से अधिक थी। उन रानियों के विषय में बहुत ही कम वर्णित है किन्तु फिर भी, विशेष रूप से अयोध्या कांड में उनका वर्णन किया गया है। ये वर्णन तब आता है जब कैकेयी दशरथ से श्रीराम का वनवास मांगती है और दशरथ इस धर्म संकट में हैं कि श्रीराम को इसकी सूचना कैसे दें। 

अयोध्या कांड, सर्ग ३४ के श्लोक १० में लिखा है:

सुमन्त्रानय मे दारान्ये केचिदिह मामकाः।
दारैः परिवृतः सर्वैदृष्टुमिच्छामि राघवम।।

अर्थात:हे सुमंत! इस घर में मेरी जितनी स्त्रियाँ है, उन सभी को बुला लो। मैं उन सबके सहित श्रीरामचन्द्र को देखना चाहता हूँ।

अयोध्या कांड, सर्ग ३४ के श्लोक ११ में लिखा है:

सोSन्तःपुरमतीत्यैव स्त्रियस्ता वाक्यंब्रवीत।
आर्या हयति वो राजाSगम्यतां तत्र मा चिरम।।

अर्थात:ये सुन सुमंत अंतःपुर गए और सभी रानियों से बोले कि, महाराज आपको बुलाते हैं - शीघ्र आइये।

अयोध्या कांड, सर्ग ३४ के श्लोक १२ में लिखा है:

एवमुक्ताः स्त्रियः सर्वाः सुमन्त्रेण नृपाज्ञा।
प्रचक्रमुस्तद्ववनं भर्तुराज्ञाय शासनं।।

अर्थात:जब सुमंत ने उन स्त्रियों को इस प्रकार महाराज की आज्ञा सुनाई, तब अपने पति की आज्ञा से वे महाराज के पास जाने को तैयार हुई।

अयोध्या कांड, सर्ग ३४ के श्लोक १३में इसे सबसे स्पष्ट रूप से लिखा गया है:

अर्द्धसप्तशतास्तास्तु प्रमदास्ताम्रलोचनाः।
कौशल्यां परिवार्यार्थ शनैर्जग्मुर्धतव्रताः।।

अर्थात:साढ़े तीन सौ स्त्रियाँ, जिनके नेत्र श्रीरामचन्द्र जी के वियोगजन्य दुःख के कारण रोते रोते लाल हो गए थे, कौशल्या को घेर कर धीरे-धीरे महाराज के पास गयीं।

अयोध्या कांड, सर्ग ३४ के श्लोक १४ में लिखा है:

आगतेषु च दारेषु समवेक्ष्य महीपतिः।
उवाच राजां तुं सुतं सुमंत्रानय में सुतं।।

अर्थात: जब महाराज ने देखा कि, सब स्त्रियाँ आ गयी, तब उन्होंने सुमंत को आज्ञा दी कि हे सुमंत! मेरे पुत्र को ले आओ।

अयोध्या कांड, सर्ग ३९ के श्लोक ३६ में लिखा है:

एता वदभिनितार्थमुक्तवासजननींवच:।
त्रय:शतशतर्धा हिददर्शावेक्ष्यमातर:।।

अर्थात:अपनी माता को सांत्वना देने के पश्चात राम ने एक पल सोच कर वहाँ खड़ी अपनी ३५० विमाताओं की ओर देखा।

अयोध्या कांड, सर्ग ३९ के श्लोक ३७ में लिखा है - कौशल्या की ही भांति राम ने अपनी सभी विमाताओं से, जो दुख से विह्लल हो रही थी, करबद्ध हो कहा - "माता! यदि मुझसे अनजाने में कोई अपराध हो गया हो तो मुझे क्षमा करें।"

अयोध्या कांड, सर्ग ३९ के अंतिम श्लोक ४१ में लिखा है:

मुरजपणवमेघघोषव दशरथवेश्म वभूव यत्पुरा।
विलपितपरिदेवनकुलं व्यसंगतं तद्युत्सुदुःखितं।।

अर्थात:हा! महाराज के जिस भवन में पहले मृदंग, ढोल के मेघ-गर्जनवत शब्द हुआ करते थे, वही भवन आज रानियों के करुणापूर्ण आर्तनाद एवं परिताप के अत्यंत दुःख से भर गया है।

तो वाल्मीकि रामायण के इन श्लोकों से पता चलता है कि महाराज दशरथ की कई (कम से कम ३५०) रानियाँ थी। इसके अतिरिक्त महर्षि वाल्मीकि ने ये लिखा है कि महाराज दशरथ अपनी तीनों प्रमुख पत्नियों (कौशल्या, सुमित्रा एवं कैकेयी) से एक सा प्रेम करते थे। किन्तु जब गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की तो उन्होंने महाराज दशरथ की केवल इन्ही तीन रानियों का वर्णन किया है। साथ ही उन्होंने ये भी वर्णन किया है कि महाराज दशरथ अपनी तीनों रानियों में से कैकेयी से सबसे अधिक प्रेम करते थे। हो सकता है कि चूँकि स्वयं महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में महाराज दशरथ की अन्य रानियों का विस्तार पूर्वक वर्णन नहीं किया है इसी कारण तुलसीदास जी ने उन्हें रामचरितमानस में सम्मलित नहीं किया है। 

सम्पाती

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रामायण में हमें सम्पाती एवं जटायु नाम दो पक्षियों का वर्णन मिलता है, जो गिद्ध जाति से सम्बंधित थे। रामायण में इन दोनों का बहुत अधिक वर्णन तो नहीं है किन्तु फिर भी जटायु का वर्णन हमें बहुत प्रमुखता से मिलता है। सम्पाती का वर्णन हमें केवल सीता संधान के समय ही मिलता है, किन्तु फिर भी उनकी कथा बहुत प्रेरणादायक है। आज हम इन दोनों भाइयों में से ज्येष्ठ, सम्पाती के विषय में जानेंगे। अगले लेख में हम उनके छोटे भाई जटायु के विषय में चर्चा करेंगे।

परमपिता ब्रह्माके पुत्र महर्षि मरीचिहुए जो सप्तर्षियोंमें से एक थे। उन्होंने कर्दम प्रजापति की पुत्री कला से विवाह किया जिनसे उन्हें महर्षि कश्यप पुत्र के रूप में प्राप्त हुए। महर्षि कश्यप ने दक्ष प्रजापति की १७ कन्याओं से विवाह किया और उन्ही के पुत्रों से समस्त जातियों की उत्पत्तिहुई। महर्षि कश्यप के वंश के बारे में विस्तार पूर्वक आप यहाँपढ़ सकते हैं।

महर्षि कश्यप की एक पत्नी थी विनताजिन्होंने अपने पति से पुत्र प्राप्ति की याचना की। तब महर्षि कश्यप ने उनसे पूछा कि उन्हें कितने पुत्र चाहिए, तब उन्होंने केवल २ प्रतापी पुत्रों की कामना की। समय आने पर विनता ने दो अंडों का प्रसव किया किन्तु १०० वर्ष बीत जाने के बाद भी उन अंडों से किसी जीव की उत्पत्ति नही हुई। तब अधीरता दिखाते हुए विनता ने उनमें से एक अंडे को फोड़ दिया। उस अंडे से एक विशालकाय पक्षी निकला किन्तु उसका शरीर आधा ही बना था, शेष आधा शरीर अभी तक अविकसित था।

तब उन्होंने अपनी माता के अनुचित कृत्य के बारे में रोष दिखाते हुए कहा कि उन्होंने समय से पहले ही उसे अंडे से निकाल दिया जिससे उनका आधा शरीर दुर्बल रह गया। किन्तु अब वो वही भूल दूसरे अंडे के साथ ना करे। महर्षि कश्यप ने उन्हें अरुणनाम दिया और वो सूर्यनारायण की तपस्या करने वन चले गए। अपने पुत्र की बात ध्यान रखते हुए विनता ने दूसरे अंडे को सहेज कर रखा और समय बीतने पर उससे एक महापराक्रमी पक्षी की उत्पत्ति हुई। अरुण के उस छोटे भाई का नाम गरुड़रखा गया।

उधर अरुण ने अपनी घोर तपस्या से सूर्यदेव को प्रसन्न कर लिया। जब उन्होंने उनसे वरदान मांगने को कहा तो अरुण ने सूर्यनारायण का सारथि होने का वरदान माँगा। सूर्यदेव ने तथास्तु कहा और अरुण ने उनके सारथी का पद ग्रहण किया। समय आने पर अरुण का विवाह श्येणीनामक कन्या से हुआ जिससे उन्हें दो पुत्र प्राप्त हुए - सम्पातीऔर जटायु। इस प्रकार अरुण सेगिद्धऔर गरुड़ से गरुड़जाति की उत्पत्ति हुई।

युवा होने पर एक बार सम्पाती और जटायु में प्रतिस्पर्धा लगी कि दोनों में कौन सूर्य को छू सकता है। उसके पीछे उनकी अपने पिताश्री के दर्शनों की भी अभिलाषा थी। तब दोनो भाइयों ने सूर्य तक दौड़ लगाई। जैसे जैसे वे सूर्य के निकट पहुंचे, वैसे वैसे ही सूर्य के ताप से उन्हें पीड़ा होने लगी। किन्तु फिर भी दोनों में से कोई भी पीछे हटने को तैयार नही हुआ। किन्तु सूर्य के थोड़ा और निकट जाने पर दोनों के पंख जलने लगे। तब अपने भाई को बचाने के लिए सम्पाती ने अपने पंखों से उसे ढक लिया। इससे जटायु तो बच गए किन्तु सम्पाती के दोनों पंख पूरी तरह जल गए और वो समुद्र तट के निकट विंध्य पर्वत पर जा गिरे।

पंख जल जाने और इतनी ऊंचाई से गिरने के कारण सम्पाती छः दिनों तक अचेत रहे। चेतना आपने पर सूर्य के ताप से बचने के लिए वे किसी प्रकार एक कंदरा में पहुँचे, जहाँ उनकी भेंट निशाकरनामक एक सिद्ध ऋषि से हुई। कहीं-कहीं इन ऋषि का नाम चंद्रभी बताया गया है। निशाकर ने अपनी सिद्धि से सम्पाती को उनकी पीड़ा से मुक्ति दिलवाई और कहा कि भविष्य में पंख पुनः उग आएंगे किन्तु अभी उन्हें अपने पंखों से रहित इसी समुद्र तट पर रहना होगा क्यूंकि भविष्य में उन्हें श्रीहरि के अवतार का एक महत्वपूर्ण कार्य करना है।

तत्पश्चात सम्पाती वही समुद्र तट पर रहने लगे और जटायु पंचवटी में जाकर बस गए। बहुत काल के बाद जब श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण पंचवटी आये तो जटायु उन्ही के निकट रहने लगे। जब रावण ने माता सीता का हरण किया तब जटायु अतिवृद्ध होने के बाद भी रावण से उन्हें बचाने के लिए लड़े, किन्तु अंततः उसके हाथों मृत्यु को प्राप्त हुए। बाद में श्रीराम ने स्वयं उनका अंतिम संस्कार किया।

रामायण में सम्पाती की पत्नी का वर्णन नहीं है किन्तु कुछ स्थानों पर उनके एक पुत्र "सुपार्श्व" का वर्णन आता है। चूँकि सम्पाती पंख रहित थे और उड़ नहीं सकते थे, उनके पुत्र सुपार्श्व भी वही अपने पिता के साथ रहने लगे। वही अपने पिता के लिए भोजन, जल इत्यादि की व्यवस्था करते थे। एक दिन सुपार्श्व बहुत देर से अपने पिता के पास आये और उनके लिए भोजन की भी उन्होंने कोई व्यवस्था नहीं की। इस पर क्रुद्ध होते हुए सम्पाती ने सुपार्श्व से पूछा कि उन्होंने भोजन की व्यवस्था क्यों नहीं की? तब सुपार्श्व ने उन्हें बताया कि आज उन्होंने एक राक्षस को आकाश मार्ग से एक स्त्री का हरण कर के ले जा रहा था। उसे देखने में ही उसे इतना विलम्ब हो गया और उसने भोजन की व्यवस्था नहीं की। तब सम्पाती को समझ में आ गया कि उसकी मुक्ति का समय निकट आ गया है। 

कुछ काल बाद जब अंगद के नेतृत्व में वानर सेना माता सीता को खोजने दक्षिण दिशा में गयी तो वही उनकी भेंट सम्पाती से हुई। उन्होंने सम्पाती को उनके छोटे भाई जटायु की मृत्यु का समाचार दिया जिसे सुनकर उन्हें अपार दुःख हुआ। जब जांबवंत और हनुमान ने उनसे सहायता मांगी तब सम्पाती ने ही अपनी दूर दृष्टि से देख कर वानरों को ये बताया कि माता सीता को रावण इस १०० योजन समुद्र के पार लंका ले कर गया है। तब हनुमान ने समुद्र पार जाकर उनका पता लगाया। कुछ स्थानों पर ऐसा भी वर्णन है कि सम्पाती ने ही वानरों को समुद्र पार कर माता सीता का पता लगाने के लिए उत्साहित किया। 

कुछ ग्रंथों में ये वर्णित है कि सम्पाती उसी समुद्र तट पर राम नाम लेते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए किन्तु वाल्मीकि रामायण में ऐसा वर्णन है कि माता सीता का पता लगाने के बाद ऋषि निशाकर के कथनानुसार सम्पाती के लाल रंग के दो विशाल पंख उग आये और वे वहाँ से उड़ गए। इस प्रकार अरुण के दोनों पुत्र - सम्पाती एवं जटायु, श्रीराम की सहायता कर इतिहास में अमर हो गए। अगले लेख में हम सम्पाती के छोटे भाई जटायु के विषय में जानेंगे।

जटायु

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पिछले लेख में आपने गृद्धराज सम्पातीके विषय में पढ़ा था। जटायु इन्ही सम्पाती के छोटे भाई थे। महर्षि कश्यप और विनता के ज्येष्ठ पुत्र अरुणइनके पिता थे। इनकी माता का नाम श्येनीथा। पिछले लेख में आपने पढ़ा कि किस प्रकार विनता अपने बड़े पुत्र अरुण को समय से पहले ही अंडे से निकाल देती है जिससे वो बड़े रुष्ट होते हैं और सूर्यदेव के सारथि बन जाते हैं। इनके छोटे भाई समय पूरा होने पर अंडे से निकलते हैं जिनका नाम गरुड़ रखा जाता है। ये भगवान श्रीहरि के वाहन बन जाते हैं। अरुण के ही श्येनी से दो पुत्र होते हैं - सम्पातीऔर जटायु

सम्पाती और जटायु के बीच की प्रतियोगिता के बारे में भी आपने पिछले लेख में पढ़ा जिसमें सम्पाती के दोनों पंख जल जाते हैं जिससे वो समुद्र तट पर आ गिरते हैं और जटायु पंचवटी में जाकर रहने लगते हैं। कुछ वर्ष पश्चात अयोध्यापति दशरथ आखेट हेतु पंचवटी आये जहाँ पर उनकी भेंट जटायु से हुई। उस समय जटायु ने दशरथ की बड़ी सहायता की जिस कारण दोनों में घनिष्ठ मित्रता हो गयी। कुछ काल पंचवटी में रहने के बाद दशरथ वापस अयोध्या लौट गए। जटायु वहीं पंचवटी में अपना जीवन बिताने लगे।

आगे चल कर जब श्रीराम को वनवास हुआ तो वे माता सीता और लक्ष्मण सहित पंचवटी रहने के लिए पहुंचे। वहीं उनकी भेंट जटायु से हुई। जब जटायु ने उन्हें बताया कि वे उनके पिता दशरथ के मित्र हैं तो श्रीराम को अत्यंत प्रसन्नता हुई। उन्होंने जटायु को पितृतुल्य ही माना और वे उनका आदर अपने पिता के सामान ही करते थे। जब तक श्रीराम पंचवटी में रहे, तब तक जटायु ने उनकी बड़ी सेवा और सहायता की।

वन में १३ वर्ष बिताने के बाद एक दिन जब श्रीराम और लक्ष्मण मारीच द्वारा छले गए, तब रावण ने माता सीता का हरण कर लिया। ऐसा वर्णन है कि रावण उनका हरण कर अपने पुष्पक विमान में आकाश मार्ग से लंका ले जा रहा था। तब उस समय जटायु ने ये दृश्य देखा और तत्काल माता सीता की रक्षा करने के लिए रावण का मार्ग रोक लिया। उन्होंने विभिन्न प्रकार से रावण को धिक्कारा और कहा कि वो सीता को छोड़ दे। किन्तु रावण किसी भी प्रकार माता सीता को छोड़ने को तैयार ना हुआ।

तब उनकी रक्षा हेतु जटायु ने रावण पर आक्रमण किया। उस समय जटायु अत्यंत वृद्ध और निर्बल थे, वहीं रावण अपनी शक्ति के चरम पर था। इस पर भी जटायु ने रावण का सामना अत्यंत वीरता से किया। उन दोनों का युद्ध बहुत समय तक चलता रहा और जटायु ने रावण को रोके रखा किन्तु अंततः वे उसके बल से पार ना पा सके। समय व्यर्थ होता देख कर रावण ने अपने चन्द्रहास खड्ग से जटायु के पंख काट डाले जिससे वो भूमि पर आ गिरे। आज ऐसी मान्यता है कि वो वर्तमान केरल प्रदेश के सदियामंगलमस्थान पर गिरे थे।

जब श्रीराम और लक्ष्मण पंचवटी वापस लौटे तो माता सीता को वहाँ ना पाकर दोनों उन्हें वन-वन ढूंढने लगे। उसी समय उन्होंने मार्ग में जटायु को मरणासन्न अवस्था में देखा। रामायण में वर्णित है कि श्रीराम जटायु की वो दशा देख कर अत्यंत दुखी हो गए और तत्काल उनका सर अपनी गोद में रख लिया। अपने अंतिम समय में जटायु ने श्रीराम को सारी बातें बताई कि रावण माता सीता का हरण कर उन्हें दक्षिण दिशा में ले गया है। उन्होंने श्रीराम से क्षमा मांगी कि वे सीता की रक्षा ना कर सके और उनकी गोद में ही उन्होंने अपने प्राण त्यागे। जटायु की मृत्यु के बाद श्रीराम ने एक पुत्र की भांति ही उनका अंतिम संस्कार किया।

ऐसी मान्यता है कि जटायु कुल ६०००० वर्षोंतक जीवित रहे। वालमीकि रामायण और रामचरितमानस में जटायु और सम्पाती के विषय में बहुत अलग बातें लिखी है। महर्षि वाल्मीकि ने जटायु को वन में रहने वाले मनुष्य के रूप में चित्रित किया है किन्तु गोस्वामी तुलसीदास ने जटायु का वर्णन एक पक्षी (गिद्ध) की भांति किया है। हालाँकि आज जनमानस में जटायु की चित्रण एक पक्षी की ही भांति किया जाता है।

आज भारत में ऐसे कई स्थान हैं जहाँ जटायु का मंदिर है। इसमें से सबसे प्रसिद्ध स्थान केरल के कोल्लम जिले के सदियामंगलमहै जहाँ उनका बहुत प्राचीन मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि पंख कटने के बाद जटायु इसी स्थान पर गिरे थे। इसके अतिरिक्त आंध्रप्रदेश के अनंतपुर जिले में लेपाक्षीनामक एक स्थान है। ऐसी मान्यता है कि श्रीराम ने इस स्थान पर "ले पक्षी" कह कर जटायु का उत्साह वर्धन किया था जिस कारण इस स्थान का ये नाम पड़ा। तमिलनाडु का विजयराघव मंदिरभी जटायु को समर्पित है। तमिलनाडु के ही तिरुपुल्लभूतांगुड़ी मंदिरके बारे में भी मान्यता है कि श्रीराम ने जटायु का अंतिम संस्कार वही किया था।

इसके अतिरिक्त मध्यप्रदेश के देवास जिले में जटाशंकरनामक एक स्थान है। ऐसी मान्यता है कि जटायु ने इसी स्थान पर भगवान शंकर की घोर तपस्या की थी। कुछ दशकों पूर्व तक इस स्थान पर सैकड़ों की संख्या में गिद्ध रहा करते थे किन्तु अब वन के कटने से उनकी संख्या बहुत ही सीमित हो गयी है। इस स्थान पर जो शिवलिंग है उस पर अनवरत जल की धारा गिरती रहती है जिस कारण से इसका ये नाम पड़ा है। ये स्थान भी भोलेनाथ और जटायु को समर्पित है।

जय श्रीराम।

क्या महर्षि वाल्मीकि शूद्र वर्ण से थे?

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आज समाज जात-पात में बंटा हुआ है जिसमें कोई दो राय नहीं है। हालाँकि यदि हिन्दू धर्म को आधार माना जाये तो इसमें जाति नाम की कोई चीज ही नहीं होती थी। हिन्दू धर्म में सदैव वर्ण व्यवस्था का विधान है, जाति व्यवस्था का नहीं। समय के साथ-साथ ये वर्ण व्यवस्था कब जाति व्यवस्था में बदल गयी, किसी को पता नहीं। अन्यथा प्राचीन वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रों को समान अधिकार प्राप्त हैं। वर्ण और जाति के भेदको बताने के लिए हमने एक लेख पहले ही धर्म संसार पर प्रकाशित किया है जिसे आपयहाँपढ़ सकते हैं।

जाति-पाती के इस भेद ने केवल हमें ही नहीं बांटा बल्कि हमारे पौराणिक चरित्रों को भी बांट दिया है। इनमें से जो अग्रगणी हैं वे हैं रामायण महाकाव्य के रचनाकार महर्षि वाल्मीकि। आज भी आपको लोग दलित समाज को "वाल्मीकि समाज"के नाम से उद्बोधित करते दिख जाएंगे। इसमें कुछ गलत नहीं है, किन्तु यदि हम अपने धार्मिक ग्रंथों की मानें तो महर्षि वाल्मीकि शूद्र नहीं अपितु ब्राह्मण वर्ण (ध्यान दें वर्ण, ना कि जाति)में जन्में थे और उनका गोत्र भृगु था।

परमपिता ब्रह्माके प्रथम १६ मानस पुत्रोंमें एक थे महर्षि मरीचि। ये प्रजापति थे एवं सप्तर्षियोंमें से एक थे। मरीचि ने कर्दम ऋषि की पुत्री कलासे विवाह किया जिनसे इन्हें महर्षि कश्यपपुत्र रूप में प्राप्त हुए। कश्यप ने प्रजापति दक्ष की १७ कन्याओं से विवाह किया जिनसे समस्त जीवों की उत्पत्तिहुई। उनकी दूसरी पत्नी अदितिसे १२ आदित्यों ने जन्म लिया। इन आदित्यों में एक थे वरुण। महर्षि वाल्मीकि को इन्ही वरुण का पुत्र बताया गया है।

वेदों में वरुण को प्रचेताभी कहा गया है और इसी कारण वाल्मीकि का एक नाम प्रचेतसभी प्रसिद्ध हुआ। इनकी माता का नाम चर्षणीथा। इनका गोत्र महर्षि भृगु का बताया गया है, हालांकि कुछ जगह इन्हें भृगु का छोटा भाई भी बताया गया है। उत्तर रामायण में महर्षि वाल्मीकि अपना ठीक यही परिचय श्रीराम को देते हैं।

प्रचेतसोऽहं दशमः पुत्रो राघवनन्दन।
(वाल्मीकिरामायण ७/९६/१८)

अगले श्लोक में वे महर्षि भृगु के कुल में जन्म लेने की पुष्टि करते हैं।

संनिबद्धं हि श्लोकानां चतुर्विंशत्सहस्र कम्।
उपाख्यानशतं चैव भार्गवेण तपस्विना।।
(वाल्मीकि रामायण ७/९४/२५)

ब्रह्मवैवर्त पुराणमें कहा है -

कति कल्पान्तरेऽतीते स्रष्टु: सृष्टिविधौ पुनः।
य: पुत्रश्चेतसो धातु: बभूव मुनिपुङ्गव:।।
तेन प्रचेता इति च नाम चक्रे पितामह:।।

अर्थात्: कल्पान्तरों के बीतने पर सृष्टा के नवीन सृष्टि विधान में ब्रह्मा के चेतस से जो पुत्र उत्पन्न हुआ, उसे ही ब्रह्मा के प्रकृष्ट चित्तसे आविर्भूत होनेके कारण प्रचेता कहा गया है।

मनुस्मृति में ब्रह्माजी द्वारा प्रचेता इत्यादि १० महर्षियों के जन्म के विषय में लिखा है।

अहं प्रजाः सिसृक्षुस्तु तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम्।
पतीत् प्रजानामसृजं महर्षीनादितो दश।।
(मनु०-१/३४-३५)

महाभारत में भी महर्षि वेदव्यास ने महर्षि वाल्मीकि के भार्गव कुल में उत्पत्ति के विषय में लिखा है -

श्लोकश्चापं पुरा गीतो भार्गवेण महात्मना।
आख्याते रामचरिते नृपति प्रति भारत।।
(महाभारत १२/५७/४०)

विष्णु पुराण इनका एक नाम ऋक्ष भी आया है -

ऋक्षोऽभूद्भार्गववस्तस्माद्वाल्मीकिर्योऽभिधीयते।
(विष्णु०३/३/१८)

शिव पुराण में इन्हे ब्रह्मा से उत्पन्न बताया गया है।

पुरा स्वायम्भुवो ह्यासीत् प्राचेतस महाद्युतिः।
ब्रह्मात्मजस्तु ब्रह्मर्षि तेन रामायणं कृतम्।।

अब प्रश्न आता है कि यदि महर्षि वाल्मीकि ब्राह्मण वर्ण में जन्मे प्रचेता के पुत्र थे तो उनके शुद्र वर्ण में जन्म लेने की कथा का प्रसार कैसे हुआ? इसका उत्तर स्कन्द पुराणमें है जहाँ रत्नाकरनामक एक डाकू का वर्णन है जो देवर्षि नारद की प्रेरणा से राम नाम लेकर महान तपस्वी बनता है और अपना नाम वाल्मीकि रख लेता है। ऐसी संभावना है कि उसने आदिकवि महर्षि वाल्मीकि से प्रेरित होकर अपना नाम उन्ही के नाम पर रख लिया हो। क्योंकि पुराणों का कालखंड रामायण से बहुत बाद का है, और रत्नाकर का वर्णन केवल स्कन्द पुराण में मिलता है, यही संभावना सबसे सटीक बैठती है।

अब समस्या ये है कि वास्तविक वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में लेश मात्र भी भेद नही है।लेकिन समय के साथ ये पवित्र वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था में बदल गयी जहाँ ब्राह्मण को ऊँचा और शूद्र को नीचा बताया जाने लगा। बाद में जब स्वघोषित दलित विकास पथ पर आए तो उन्हें रत्नाकर डाकू से जोड़ दिया गया जो अपने कर्मो द्वारा ब्राह्मणत्व प्राप्त करता है। हालांकि इसमें कुछ गलत नही है क्योंकि ये एक सांकेतिक संबंध है जो बहुत सकारात्मक है। अन्य वर्णों से ब्राह्मण बनने के भी कई उदाहरण हमारे पास हैं जिनमे से सर्वोत्तम महर्षि विश्वामित्रहैं जिन्होंने क्षत्रिय वर्ण त्याग कर ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया। ये स्वयं में एक प्रमाण है कि हिन्दू धर्म सदैव से कर्म प्रधान रहा है, जन्म प्रधान नही।

तो अंत मे यही कहना चाहूंगा कि सबसे पहले तो हमें वर्ण एवं जाति का अंतरढंग से समझना चाहिए। तभी हम समझ पाएंगे कि रत्नाकर से वाल्मीकि बने व्यक्ति को यदि आज के शुद्र (जाति नही, वर्ण)से जोड़ें तो भी ये बहुत प्रेरणादायक है और किसी प्रकार की कोई हानि नही है। किंतु जहाँ तक रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का प्रश्न है तो वे ब्राह्मण वर्ण में जन्मे प्रचेता के पुत्र ही थे।

जय श्रीराम।

क्या श्रीराम का पिनाक को भंग करना उचित था?

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माता सीता के स्वयंवर के विषय में हम सभी जानते हैं। इसी स्वयंवर में श्रीराम ने उस पिनाक को सहज ही उठा कर तोड़ डाला जिसे वहाँ उपस्थित समस्त योद्धा मिल कर हिला भी ना सके। हालाँकि कई लोग ये पूछते हैं कि श्रीराम ने धनुष उठा कर स्वयंवर की शर्त तो पूरी कर ही दी थी, फिर उस धनुष को भंग करने की क्या आवश्यकता थी?

यदि आप मेरा दृष्टिकोण पूछें तो मैं यही कहूंगा कि उस धनुष की आयु उतनी ही थी। अपना औचित्य (देवी सीता हेतु श्रीराम का चुनाव) पूर्ण करने के उपरांत उस धनुष का उद्देश्य समाप्त हो गया। उसके उपरांत पिनाक का पृथ्वी पर कोई अन्य कार्य शेष नही था। कदाचित यही कारण था कि श्रीराम ने उस धनुष को भंग कर दिया।

वैसे यदि आप वाल्मीकि रामायण एवं रामचरितमानस का संदर्भ लें तो दोनों में एक ही चीज लिखी है - सीता स्वयंवर के समय श्रीराम द्वारा उस महान धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के प्रयास में वो धनुष टूट गया।अर्थात मूल रामायण के अनुसार श्रीराम ने उस धनुष को जान-बूझ कर नही तोड़ा था अपितु प्रत्यंचा चढ़ाते समय वो अनायास ही टूट गया। भगवान परशुरामके क्रोधित होने पर श्रीराम उन्हें भी यही कहते हैं कि वो धनुष उनसे अनजाने में टूट गया।

हालांकि यदि आप पिनाक के इतिहास के बारे में पढ़े, जिसका वर्णन विष्णु पुराणऔर शिव पुराण, दोनों में विस्तार से दिया गया है, तो इस धनुष के भंग होने का वास्तविक कारण आपके समझ मे आ जाएगा। इसके पीछे एक पौराणिक कथा छिपी है जिसके अनुसार समय आने पर पिनाक को भंग होना ही था और वो भी भगवान विष्णु के द्वारा ही। 

इस कथा के अनुसार भगवान शंकर का धनुष पिनाकऔर भगवान नारायण का धनुष श्राङ्ग, दोनों का निर्माण स्वयं परमपिता ब्रह्माने किया था। एक बार इस बात पर चर्चा हुई कि दोनों धनुषों में से श्रेष्ठ कौन है। तब ब्रह्मदेव की मध्यस्थता में भोलेनाथ और श्रीहरि में अपने-अपने धनुष से युद्ध हुआ। हर और हरि के युद्ध का परिणाम तो भला क्या निकलता किन्तु उस युद्ध में श्रीहरि की अद्भुत धनुर्विद्या देखने के लिए महादेव एक क्षण के लिए रुक गए।

युद्ध के अंत में दोनों ने ब्रह्मा जी से निर्णय देने को कहा। शिवजी और विष्णुजी धनुर्विद्या में अंतर बता पाना असंभव था। किन्तु कोई निर्णय तो देना ही था इसी कारण ब्रह्माजी ने कहा कि चूंकि महादेव युद्ध मे एक क्षण रुक कर नारायण का कौशल देखने लगे थे, इसी कारण श्राङ्ग पिनाक से श्रेष्ठ है। ये सुनकर महादेव बड़े रुष्ट हुए और उन्होंने उसी समय पिनाक का त्याग कर दिया। उन्होंने भगवान विष्णु से कहा कि अब आप ही इस धनुष का नाश करें। महादेव की इच्छा का मान रखते हुए श्रीहरि ने कहा कि समय आने पर वे उस धनुष को भंग करेंगे।

भगवान शंकर द्वारा त्याग दिए जाने के पश्चात वो धनुष कुछ समय तक ब्रह्मा जी के पास ही रहा। बाद में उन्होंने उसे वरुण को दे दिया। वरुण देव ने पिनाक को देवराज इंद्र को रखने को दिया। बाद में इंद्र ने उस धनुष का दायित्व मिथिला के तत्कालीन राजा देवरात को दिया। यही देवरात मिथिला नरेश जनक के पूर्वज थे। पीढ़ी दर पीढ़ी होता हुआ वो धनुष जनक को प्राप्त हुआ। पृथ्वी पर उसे "शिव धनुष"कहा गया। महर्षि वाल्मीकि ने मूल रामायण में इसे शिव धनुष ही कहा है जबकि गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में इसे पिनाक कहा है।

एक अन्य कथा के अनुसार जब नारायण और महादेव युद्ध के लिए तत्पर हुए तो उस समय एक आकाशवाणी हुई कि ये युद्ध संसार के कल्याण के लिए संकट है जिससे संसार का नाश हो जाएगा। इस पर श्रीहरि तो पहले की भांति धनुषबद्ध रहे किन्तु भगवान रूद्र ने आकाशवाणी सुन कर उसे पृथ्वी पर फेंक दिया। बाद में वही धनुष जनक के पूर्वज देवरात को प्राप्त हुआ।

कहते हैं कि एक बार माता सीता ने केवल ७ वर्ष की आयु में उस धनुष को उठा लाया था जिसे कोई हिला भी नही पाता था। तब राजा जनक ने ये प्रण किया कि वो उसी से सीता का विवाह करेंगे जो इस महान धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा। उधर भगवान विष्णु श्रीराम के रूप में अवतरित हो चुके थे। सीता स्वयंवर में श्रीराम रूपी नारायण ने महादेव की इच्छा को फलीभूत करने के लिए ही अंततः उस धनुष को भंग कर दिया। अर्थात वो महान धनुष महादेव की इच्छा से ही भंग हुआ, सीता स्वयंवर तो केवल निमित्त मात्र था।

वास्तव में ये घटना सृष्टि के उस नियम को भी प्रतिपादित करती है जिसके अनुसार सृष्टि में कुछ भी अनश्वर नही है, चाहे वो मनुष्य हो अथवा वस्तु। समय पूर्ण होने पर सबका नाश होना अवश्यम्भावी है, यही सृष्टि का अटल नियम है। जय श्री हरिहर।

महावीर हनुमान को "बजरंग" क्यों बोलते हैं?

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"बजरंग बली की जय"
- ये जयकारा आपको किसी भी हनुमान मंदिर में सबसे अधिक सुनने को मिल जाता है। जितना प्रसिद्ध उनका "हनुमान" नाम है, उतना ही प्रसिद्ध उनका एक नाम बजरंग बली भी है। उनके नाम "हनुमान का इतिहास तो हम जानते हैं, किन्तु क्या आप ये जानते हैं कि उन्हें"बजरंग"क्यों बुलाते हैं? मजेदार बात ये है कि आज शब्द "बजरंग", जो हमारी संस्कृति में घुल मिल गया है, वास्तव में मूल संस्कृत शब्द का अपभ्रंश है।

अपभ्रंश उसे कहा जाता है जो समय के साथ साथ स्थानीय भाषा में परिणत हो जाता है। उदाहरण के लिए हमारे शहर भागलपुर में एक स्थान है "बौंसी"। ये वो स्थान है जहाँ समुद्र मंथन हुआ था और उसका मूल नाम था "वासुकि", जो नागराज वासुकि के नाम पर पड़ा था। किंतु समय के साथ आज वो "वासुकि"नाम अंगिका भाषा में "बौंसी" हो गया है। ठीक इसी प्रकार हमारे शहर का नाम समय के साथ-साथ अपभ्रंश होकर "भगदत्तपुरम"से "भागलपुर"हो गया है। 

कुछ ऐसा ही हुआ है हनुमान जी के नाम के साथ। रामायण कथा के अनुसार जब मारुति (उनका वास्तविक नाम) सूर्य को निगलने का प्रयास कर रहे थे तब सूर्य की रक्षा हेतु देवराज इंद्र ने उनपर वज्र से प्रहार किया। इससे मारुति की ठुड्डी टूट गयी और वे मूर्छित हो पृथ्वी पर आ गिरे। जब पवनदेव ने अपने औरस पुत्र की ये दशा देखी तो उन्होंने प्राण वायुका संचार रोक दिया। तब ब्रह्माजीने उन्हें ऐसा करने से मना किया और प्राणवायु का प्रवाह आरंभ करने को कहा। इसपर पवनदेव ने अपने पुत्र पर अनुग्रह करने की प्रार्थना की। 

तब ब्रह्मदेव ने मारुति को स्वस्थ कर दिया और उनके आदेश पर लगभग सभी प्रमुख देवताओं ने उन्हें कुछ ना कुछ वरदान दिया। ब्रह्मा जी ने उन्हें ब्रह्मास्त्र तक से सुरक्षा का वरदान दिया। उन्हें एक वरदान देवराज इंद्र ने भी दिया। चूंकि उनके वज्र से मारुति की ठुड्डी (संस्कृत में "हनु") टूटी थी इसी कारण उनका एक नाम हनुमानप्रसिद्ध हुआ। इसके अतिरिक्त इंद्रदेव ने हनुमान को ये वरदान दिया कि उनका शरीर वज्र के समान हो जाएगा और उन पर किसी अस्त्र-शस्त्र का असर नहीं होगा। तभी से उनका एक नाम "वज्रांग"(वज्र + अंग), अर्थात वज्र के समान अंगों वाला पड़ गया।

समय के साथ यही "वज्रांग" शब्द अपभ्रंश होकर "बजरंग"हो गया। मूल वाल्मीकि रामायण में आपको "बजरंग बली" शब्द कही नही मिलेगा। वहाँ मारुति अथवा हनुमान का ही प्रयोग किया गया है। बजरंग शब्द को प्रसिद्ध करने का वास्तविक श्रेय जाता है गोस्वामी तुलसीदास को। जब उन्होंने अवधी भाषा में श्री रामचरितमानस लिखी तब उन्होंने ही पहली बार वज्रांग को स्थानीय अवधी भाषा में बजरंग लिखा। और इसी कारण हनुमान का एक नाम "बजरंग बली" प्रसिद्ध हुआ जिसका अर्थ होता है वज्र के समान बल वाला।

जय "वज्रांग" बली।

क्या पांडवों के अतिरिक्त कर्ण का कोई और भाई था?

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महारथी कर्ण के विषय में तो हम सभी जानते हैं। महाभारत में कदाचित सबसे संघर्षपूर्ण जीवन उन्ही का रहा है। स्वयं भगवान सूर्य नारायण के पुत्र होते हुए भी उन्हें सदैव सूतपुत्र की भांति जीना पड़ा। जहाँ एक ओर उनकी माता कुंती के पांचों पुत्र सम्मान और सुविधा के साथ जी रहे थे, कर्ण, कुंती के ज्येष्ठ पुत्र होते हुए भी उपेक्षित ही रहे। बचपन में कुंती द्वारा त्यागे जाने के बाद धृतराष्ट्र के सारथि अधिरथ और उनकी पत्नी राधा ने उन्हें गोद ले लिया और वे "राधेय"के नाम से प्रसिद्ध हुए।

पांडव कर्ण के भाई थे ये तो सभी को पता है किन्तु उनके विषय में एक और प्रश्न, जो सबसे अधिक पूछा जाता है वो ये है कि क्या पांडवों के अतिरिक्त भी उनका कोई और भाई था? इसका कोई तय उत्तर देना कठिन है क्योंकि विभिन्न स्रोतों से हमें अलग-अलग जानकारी प्राप्त होती है। उनमे से कौन सही है, कौन गलत, या कोई सही है भी कि नही, ये बताना बहुत कठिन है।

यदि हम मूल महाभारत का सन्दर्भ लें तो उसके अनुसार अधिरथ और राधा संतानहीन थे। जब उन्हें कर्ण अश्व नदी में मिला तो उन्होंने उसे गोद ले लिया। मूल महाभारत में कर्ण के अतिरिक्त अधिरथ के किसी अन्य पुत्र का वर्णन नही दिया गया है। यदि उनका कोई अन्य पुत्र हो भी तो भी उसके बारे में कोई विस्तृत वर्णन हमें व्यास महाभारत में नही मिलता।

महाभारत के कुछ अन्य संस्करण कहते हैं कि कर्ण को गोद लेने के पश्चात अधिरथ और राधा का एक पुत्र हुआ "शोण"। किन्तु शोण के विषय मे भी बहुत अलग-अलग जानकारी प्राप्त होती है। कहा जाता है कि शोण महाभारत युद्ध में लड़ते हुए अर्जुन के हाथों मारा गया था। कही कही ये भी वर्णन है कि जब अभिमन्यु चक्रव्यूह में घुसा तब शोण ने उसे रोकने का प्रयास किया और उसके हाथों मारा गया।

प्रसिद्ध मराठी लेखक शिवाजी सावंत अपने प्रसिद्ध उपन्यास "मृत्युंजय"में लिखते हैं कि शोण कर्ण के साथ द्रौपदी के स्वयंवर में गया था। जब अर्जुन ने द्रौपदी को प्राप्त किया तब दुर्योधन के कहने पर कर्ण ने अर्जुन से घोर युद्ध किया। बाद में जब श्रीकृष्ण के हस्तक्षेप से वो युद्ध बंद हुआ तब जाकर कर्ण को पता चला कि उस युद्ध में गलती से अर्जुन के बाणों से शोण की मृत्यु हो गयी है।

महाभारत के कुछ दक्षिण भारतीय संस्करणों में ये लिखा है कि कर्ण को गोद लेने के बाद अधिरथ और राधा के ८ पुत्र और हुए जिनमे से ज्येष्ठ था "संग्रामजीत"। संग्रामजीत का वध अर्जुन और उसके अन्य ७ भाइयों का वध अभिमन्यु द्वारा होना बताया गया है। किन्तु ये जानकारी पूर्ण रूप से प्रामाणिक नहीं कही जा सकती। 

कुल मिलाकर बात ये है कि अधिरथ और राधा के पुत्रों के बारे में कोई सटीक जानकारी नही मिलती है। किंतु कुछ अप्रामाणिक जानकारियों में भी जो सबसे प्रसिद्ध है वो शोण के बारे में है। किन्तु चूँकि सभी ग्रंथों का मूल केवल व्यास महाभारत ही है और उसमें कर्ण के किसी अन्य भाइयों का वर्णन नहीं दिया गया है, इसीलिए ये कहा जा सकता है कि पांडवों के अतिरिक्त कर्ण का अन्य कोई भाई नहीं था।

क्या आप शूर्पणखा के पुत्र के विषय में जानते हैं?

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लंकाधिपति रावण की बहन सूर्पणखा के विषय में तो हम जानते ही हैं। वो स्वेच्छिचारिणी थी जिसका विवाह विद्युज्जिह्व नामक दैत्य के साथ हुआ था। विद्युज्जिह्व कालकेयों के कुल से संबंधित था, जिसका वध रावण ने ही किया था। अलग-अलग पुराणों में उसके वध की अलग-अलग कथाएं मिलती हैं।

किसी पुराण की कथा के अनुसार कालकेयों से युद्ध के दौरान अनजाने में रावण के द्वारा उसका वध हो गया था तो वहीं एक अन्य पुराण की कथा के अनुसार वह स्वर्ग लोक में आक्रमण के समय विद्युज्जिह्व को अपने साथ स्वर्ग लोक ले गया था जहाँ पर उसका वध हो गया था। रामानंद सागर के रामायण के अनुसार जब शूर्पणखा ने विद्युज्जिह्व से विवाह कर लिया था, तो रावण ने लंका में आने पर उसका वध कर दिया था। 

ओड़िया भाषा में अनूदित रंगनाथ रामायण के अनुसार रावण जब दिग्विजय के लिए जाने लगा तब उसने विद्युज्जिह्व को लंका की रखवाली के लिए नियुक्त किया था। किंतु विद्युज्जिह्व ने ऐसा सोचा कि क्यों ना वह समस्त माया विद्या सीख कर लंका पर आधिपत्य स्थापित कर ले। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह पाताल लोक चला गया और तमाम तंत्र विद्या, माया विद्या, उच्चाटन, त्राटक आदि सीखने लगा। किंतु जब रावण वापस आया और उसको विद्युज्जिह्व के इस विश्वासघात का पता चला, तब वह क्रोध में आग बबूला होकर पाताल लोक गया और खड्ग के द्वारा उसका वध कर दिया। 

विद्युज्जिह्व के वध के उपरांत सूर्पणखा से रावण ने कहा कि तुम स्वेच्छापूर्वक किसी भी पति का वरण करके  विचरण कर सकती हो तथा सुख से निवास कर सकती हो। रंगनाथ रामायण की कथा के अनुसार जब रावण ने अपने बहनोई विद्युज्जिह्व का वध कर दिया, उस समय शूर्पणखा छः महीने की गर्भवती थी। रावण ने शूर्पणखा को अपनी इच्छानुसार पति का वरण करके जीवन व्यतीत करने के लिए आज्ञा दी। सूर्पणखा पंचवटी में चली आई और वहां पर ससमय उसने "जम्बुमाली" नामक पुत्र को जन्म दिया। जब जम्बु बड़ा हुआ तो उसने अपने पिता के बारे में सूर्पणखा से प्रश्न किया। शूर्पणखा से यह जानकर कि उसके पिता का वध रावण ने कर दिया है, वह अत्यधिक क्रोधित हो गया और रावण के वध के निमित्त वह तप करने के लिए जंगल को चला गया।

उसने सोचा कि ब्रह्माजी तो वर देंगे नहीं और शिवजी रावण के इष्टदेव हैं साथ ही विष्णु भगवान पता नहीं कब प्रसन्न हों। यह सोचकर कि ये सभी देवता सूर्य देव में निवास करते हैं, उसने स्वयं सूर्य देव की आराधना करने का निश्चय करके बन में घनघोर तप किया। चिरकाल तक तपस्या करने के उपरांत उसका शरीर बाँस के झुरमुट से ढक गया। तब सूर्य देवता ने आकाश मार्ग से एक दिव्य खड्ग भेजा। संयोगवश ठीक उसी समय भगवान श्रीराम को वनवास हो चुका था और वे लक्ष्मण और सीताजी के साथ में वन प्रवास के लिए पंचवटी आ चुके थे। 

अचानक एक दिन लक्ष्मण जंगल में लकड़ी काटने के लिए गए और ठीक उसी समय घनघोर शब्द करता हुआ वह खड्ग अचानक हवा में लहराने लगा। और वह खड्ग तपरत जम्बु के पास में जा करके ठहर गया। खड्ग से आवाज निकली कि "हे जम्बु कुमार! आप धन्य हो। आप यह खड्ग स्वीकार करें, श्री सूर्य देव ने मुझे भेजा है।" लेकिन गर्व के वशीभूत हो उस राक्षस कुमार ने उस खड्ग को यह कर करके वापस जाने के लिए कहा कि "यदि साक्षात सूर्यदेव आकर के तुमको मुझे समर्पण करते तब मैं स्वीकार कर लेता किंतु उन्होने स्वयं न आकर हमारा अपमान किया है। इसलिए मैं तुम्हें ग्रहण नहीं कर सकता, तुम कहीं भी जाने के लिये स्वतंत्र हो।"

ठीक उसी समय लक्ष्मण जी वहां पर पहुंचे और इस घटना से अनजान उन्होंने उस दुर्लभ और चमचमाते खड्ग को अनायास ही हाथ में पकड़ लिया। फिर उन्होंने उसकी परीक्षा लेते हुए अचानक ही बांस से बने झुरमुट पर प्रहार कर दिया। तत्काल ही एक मुनिकुमार दो टुकड़े होकर छटपटाता हुआ दिखाई दिया। अब तो लक्ष्मण जी एकदम से कातर स्वर में विलाप करने लगे। उन्होंने कहा कि मैं दशरथ का पुत्र और श्री राम का लघु भ्राता ऐसा जघन्य कृत्य कैसे कर बैठा? अब तो मुझे जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है। और फिर वह आत्महत्या करने को तत्पर हो उठे। मृत्यु से पहले उन्होंने प्रभु श्री राम के पास चल कर अपना अपराध स्वीकार करने का निश्चय किया। 

वे श्रीराम के पास पहुंचे और सारा वृत्तांत प्रभु को सुनाया। प्रभु भी चिंतित होकर कुछ सोचने लगे। तभी अनायास ही कुछ मुनियों का एक समूह वहां पर उपस्थित हो गया। फिर क्या था मुनियों ने उपर्युक्त पूरी कथा वृतांत के साथ श्री राम को सुनाया। उन्होंने श्रीराम को यह बताया कि वह ब्राह्मण या मुनि कुमार नहीं है अपितु राक्षस कुमार है। वह महान प्रतापी और क्रूर, लंकाधिपति रावण का भांजा तथा सूर्पणखा का पुत्र है। और अगर वह खड्ग खुद उसके हाथ में आ जाता, तो वह सारी मानवता का विनाश कर देता। तो दैव वश जो हुआ वह अच्छा ही हुआ। और इस तरह से आपने मानवता की रक्षा की है। आप शोक त्याग दीजिए। हे राघव! आपके कुल के किसी भी व्यक्ति से भूल से भी किसी निरपराध की अकारण हत्या नहीं हो सकती है। फिर ऋषियों ने श्रीराम से सूर्पणखा के बारे में विस्तार के साथ बताया।

सूर्पणखा अपने तपरत पुत्र की देखभाल बड़े मनोयोग से करती थी। इस घटना से अनजान सूर्पणखा रोज की भांति मिष्ठान्न, फल और अन्य पकवानों को कटोरे में भरकर अपने पुत्र जम्बु के पास गई किंतु वहां पर उसके शरीर को टुकड़ों में देखकर वह आर्तनाद करने लगी। उसने कातर स्वर में पुरानी बातों को याद करते हुए कहा कि यह बात मैंने तुम्हें समझाया था कि रावण जैसे प्रतापी और क्रूर आदमी से मत लड़ो। वह कितनों की निर्मम हत्या कर चुका है। कुबेर उसका कुछ नहीं कर सके। शांडिल्य ऋषि उसका कुछ नहीं बिगाड़ सके और अनरण्य और नलकुबेर का श्राप उसका कुछ नहीं कर सका, इंद्र के साथ अन्य योद्धा भी उसका कुछ नहीं कर सके तो तुम भला उसका क्या कर लोगे? किंतु दैववस तुम माने नहीं और हा पुत्र! मुझको पुत्र विहीन करके इस विधवा नारी को छोड़ कर चले गए।

ऐसा विलाप करते हुए वह गुस्से में आग बबूला होकर मुनियों का अनिष्ट करने की इच्छा से उनके पास गई और मुनियों से यह कहा कि तुम लोग अब प्रसन्न हो जाओ क्योंकि मेरा पुत्र तुम लोगों की वजह से मारा गया। लेकिन मैं तुम लोगों का सर्वनाश कर दूँगी। मुनियों ने जब देखा कि उनके ऊपर संकट आ रहा है तब उन्होंने उसके पूछने पर यह बताया कि तुम्हारे पुत्र की हत्या किसने की है। अपने पुत्र के हत्यारे के बारे में जानकर सूर्पणखा क्रोध में पागल हो गई और लक्ष्मण के पद चिन्हों का अनुसरण करते हुए वह श्रीराम के कुटिया की तरफ बढ़ गई। 

वहां पहुंचकर वह श्री राम के रूप लावण्य को देखकर अत्यधिक मुग्ध हो गई। पुत्र शोक को भूलकर कामातुर शूर्पणखा ने श्रीराम से शादी का प्रस्ताव कर दिया। इसके बाद में श्री राम ने कहा कि मैं तो शादीशुदा हूं तुम लक्ष्मण से बात करो। उनका यह विनोद पूर्ण शब्द सुनकर वह लक्ष्मण के पास गई किंतु लक्ष्मण ने कहा कि बड़े भाई के पास तुम पहले गई हो इसके लिए अब मैं तुम्हारा वरण नहीं कर सकता, अतएव तुम उन्हीं के पास जाओ। इस तरह बारी-बारी से श्री राम और लक्ष्मण सूर्पणखा को एक दूसरे के पास भेजते रहे। 

अंत में वह क्रोध में व्याकुल हो करके ऐसा कहा कि तुम जिस सीता की वजह से मुझे ठुकरा रहे हो मैं उसी का भक्षण कर लेती हूं। ऐसा कहकर वह भयानक रूप धारण करके सीता की तरफ झपटी। सीता की तरफ झपटते हुए देखकर श्री राम ने लक्ष्मण को इशारा किया। तत्काल लक्ष्मण जी ने खड्ग निकाल करके सूर्पणखा की नाक और कान काट दिए और इस तरह कुदरूप हो करके सूर्पणखा अपने संरक्षक खर और दूषण के पास चली गई। उसके प्रतिशोध की ज्वाला में अंत में खर- दूषण ही नहीं अपितु रावण का पूरा कुल ही ही नष्ट हो गया।

यह कथा अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। यहां तक कि श्री रामचरित मानस, वाल्मीकि रामायण या किसी अन्य ग्रंथ में भी इसका उल्लेख नहीं है। वाल्मीकि रामायण में लंका के सेनापति प्रहस्त के एक पुत्र का नाम भी जम्बुमाली बताया गया है जिसका वध हनुमान द्वारा हुआ था। ये ध्यान रखें कि ये दोनों जम्बुमाली अलग हैं। शूर्पणखा के इस पुत्र की कथा केवल रंगनाथ रामायणमें उपलब्ध है। दक्षिण भारत के कम्ब रामायण में भी शूर्पणखा के पुत्र के विषय में कुछ ऐसी ही कथा मिलती है किन्तु उस ग्रन्थ में उसका नाम "शम्भू कुमार"बताया गया है। जय श्रीराम।

ये लेख हमें श्री कामता प्रसाद मिश्रके द्वारा प्राप्त हुआ है जो मूल रूप से प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के निवासी हैं। इन्होने इलाहबाद विश्वविद्यालय से स्नातक किया है और वर्तमान में ये गुजरात के वापी नगर में निवास करते हैं। इनका अपना स्वरोजगार है और ये सतत धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन और उसके ज्ञान को प्रसारित करते हैं। धर्मसंसार में उनके सहयोग के लिए हम उनके आभारी हैं।

ऐसे कौन से पात्र हैं जो रामायण और महाभारत दोनों में पाए जाते हैं?

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रामायण और महाभारत के बीच का कालखंड कितना कितना बड़ा है ये हम सभी जानते हैं। रामायण त्रेतायुग में और महाभारत द्वापर युग में हुआ बताया जाता है। पुराणों के अनुसार त्रेतायुग ३६०० दिव्य वर्षों एवं द्वापर युग २४०० दिव्य वर्षों का होता है। पौराणिक काल गणना और चतुर्युगी व्यवस्था के बारे में जानने के लिए यहाँजाएँ। किन्तु कई पौराणिक चरित्र ऐसे हैं जिन्होंने बहुत लम्बी आयु प्राप्त की और रामायण और महाभारत, दोनों काल में उपस्थित रहे। आज हम ऐसे ही कुछ महापुरुषों के विषय में जानेंगे।

इस लेख में हम देवताओं को नहीं जोड़ रहे क्यूंकि उनकी आयु स्वाभाविक रूप से बहुत अधिक होती है। इसके अतिरिक्त इस लेख में हम सभी सप्त-चिरंजीवियों को भी नहीं जोड़ रहे, जिनमें वे भी हैं जो द्वापर में जन्मे, क्यूंकि एक तो वे त्रेता में उपस्थित नहीं थे और दूसरे हम जानते हैं कि वे कल्प के अंत तक जीवित रहेंगे। इसके अतिरिक्त मनु एवं सप्तर्षियों (अंगिरा, पुलह, पुलत्स्य, क्रतु, अत्रि, मरीचिएवं वशिष्ठ) को भी नहीं जोड़ रहे क्यूंकि वे भी कल्पान्तजीवी हैं। वैसे भी महाभरत में सप्तर्षियों का वर्णन केवल एक बार आता है जब वे पितामह भीष्म के अंतिम क्षणों में उनसे मिलने आये। 

इसके अतिरिक्त कई ऐसे व्यक्ति हैं जो है तो सतयुग के जो द्वापर तक जिए, किन्तु रामायण और महाभारत दोनों में ही उनकी समान भूमिका नहीं है, उन्हें भी इस लेख में नहीं जोड़ रहे हैं। जैसे महाराज मुचुकंद, महाराज कुकुद्मी, महर्षि अगस्त्य, महर्षि भारद्वाज, महर्षि शक्ति, काकभुशुण्डि, देवर्षि नारद, तक्षक, गरुड़, ऋषि होत्रवाहन, वासुकि, आर्यक, तक्षक, नहुष इत्यादि। तो चलिए आरम्भ करते हैं:
  1. परशुराम:परशुराम त्रेता युग के ही व्यक्ति हैं। त्रेता में ही माता सीता के स्वयंवर में उनकी भेंट श्रीराम से होती है। द्वापर में वे भीष्म से युद्ध करते हैं और श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र प्रदान करते हैं। कलियुग में ये भगवान कल्कि के गुरु बनेंगे।
  2. हनुमान:ये भी त्रेता के ही व्यक्ति हैं। त्रेता में तो खैर इनकी प्रशंसा से पूरा रामायण भरा है। द्वापर में वे भीम और अर्जुन का घमंडतोड़ते हैं। श्रीकृष्ण भी इनके द्वारा ही बलराम, गरुड़, सुदर्शन चक्र और सत्यभामा का अभिमान भंग करवाते हैं। महाभारत युद्ध में ये अर्जुन के रथ पर विराजमान रहते हैं। कलियुग में तुलसीदास द्वारा इनके दर्शन की बात कही जाती है।
  3. गरुड़:सतयुग के व्यक्ति। सतयुग में भगवान विष्णु के वाहन बने। त्रेता में श्री राम लक्ष्मण को नागपाश से मुक्त किया। त्रेता में ही काकभुशुण्डि से भेंट की। द्वापर में हनुमान से टकराये और लज्जित हुए।
  4. विभीषण:ये भी त्रेता के ही व्यक्ति हैं। रावण के छोटे भाई और श्रीराम के भक्त। लंका युद्ध मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। द्वापर में सहदेव का इनसे मिलने का वर्णन आता है जब सहदेव दिग्विजयहेतु दक्षिण दिशा में जाते हैं और इनसे स्वीकृति प्राप्त करते हैं।
  5. जाम्बवन्त:सतयुग के व्यक्ति। सतयुग में समुद्र मंथन के समय पूरी पृथ्वी की सात परिक्रमा कर डाली थी। फिर त्रेता में श्रीराम के सहयोगी बने। द्वापर में श्रीकृष्ण से युद्ध हुआ और फिर उनसे अपनी पुत्री जाम्बवन्ती का विवाह किया।
  6. महर्षि लोमश:ये सतयुग के व्यक्ति हैं। सतयुग में भगवान शिव से अमरता का वरदान मिला। त्रेता में ये दशरथ को उपदेश देते हैं। त्रेता में ही काकभुशुण्डि को श्राप देते है। द्वापर में ये युधिष्ठिर और पांडवों को आशीर्वाद देने इन्द्रप्रस्थ आते हैं। फिर महाभारत युद्ध के पश्चात शरशैया पर पड़े भीष्म से मिलने भी जाते हैं। ये सहस्त्रों कल्पों तक जीने वाले व्यक्ति हैं, यही इनका वरदान भी है और श्राप भी।
  7. महर्षि दुर्वासा:सतयुग के व्यक्ति। महर्षि अत्रि और माता अनुसूया के पुत्र और चंद्र एवं दतात्रेय के छोटे भाई। भयानक क्रोधी। सतयुग मेंइंद्र को श्रापदिया, जिस कारण समुद्र मंथन करना पड़ा। त्रेता में श्रीराम से मिले जिनके लिए श्रीराम पारिजात वृक्ष को धरती पर ले आये। द्वापर में दुर्योधन से मिलकर फिर युधिष्ठिर और अन्य पांडवों से मिले, जब श्रीकृष्ण की कृपा से पांडवों के प्राण बचे।
  8. बाणासुर:त्रेतायुग के व्यक्ति। दैत्यराज बलि के ज्येष्ठ पुत्र एवं महान शिवभक्त। त्रेता में रावण का परम मित्र। सीता स्वयंवर भी देखने को आये थे। द्वापर में श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध को बंदी बनाया जिस कारण उनसे युद्ध हुआ। उसी युद्ध मे भगवान शंकर भी बाणासुर की ओर से लड़े थे और श्रीकृष्ण और भगवान शंकर में युद्ध हुआ था। उस युद्ध के विषय में विस्तार से यहाँपढ़ें।
  9. मय दानव:त्रेता के व्यक्ति। त्रेता में मंदोदरी और धन्यमालिनी के पिता, रावण के श्वसुर। द्वापर में श्रीकृष्ण की द्वारिका और पांडवों के इंद्रप्रस्थ का निर्माण किया।

कौरवों और पांडवों की आयु कितनी थी?

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कौरवों और पांडवों की आयु के विषय मे बहुत संशय है। इसका कारण ये है कि मूल व्यास महाभारत में पांडवों या कौरवों की आयु का कोई सटीक विवरण नही दिया गया है। यदि अन्य ग्रंथों की बात की जाए तो भी उनमें दी गयी जानकारियों में बहुत असमानता दिखती है। कही कहा गया है कि युद्ध के समय युधिष्ठिर ९१ वर्ष के थे, कही ये आयु ४९ वर्ष की बताई गई है तो कहीं कुछ और। कहने का अर्थ ये है कि कोई भी सटीक रूप से इनकी आयु के बारे में नहीं बता सकता। यदि कोई ये कहता है कि उसे पांडवों अथवा कौरवों की सटीक आयु के विषय में पता है तो वो निश्चय ही असत्य कह रहा है।

तो फिर मैं ये लेख क्यों लिख रहा हूँ? वास्तव में मैं जो यहाँ बताने वाला हूँ उसके विषय मे भी मैं निश्चित नही हूँ, किन्तु जिस संदर्भ की बात मैं करने वाला हूँ वो सबसे सटीक मानी जाती है। मैं अपने लेख सदैव प्रामाणिक रखने का प्रयास करता हूँ, किन्तु चूंकि ये प्रश्न ही अप्रामाणिक है इसीलिए मैं प्रारम्भ में ही ये स्वीकार करना चाहता हूँ कि मैं निश्चित नही हूँ कि मेरा ये उत्तर पूर्णतः प्रामाणिक है।इसे मैं अपना एक अनुमान कहना अधिक उचित समझूंगा। भगवान परशुरामऔर महावीर हनुमान को मैं इस लिए सम्मलित नहीं कर रहा क्यूंकि वे तो एक अलग युग के ही व्यक्ति हैं। तो चलिए आरम्भ करते हैं।

जैसा कि मैंने बताया कि महाभारत में पांडवों की आयु का कोई वर्णन नही है किंतु हरिवंश पुराण में केवल एक स्थान पर ऐसा वर्णन है कि महाभारत युद्ध के समय श्रीकृष्ण ७२ वर्ष के थे। इस एक तथ्य के आधार पर अन्य योद्धाओं की आयु का अनुमान लगाया जा सकता है। महाभारत में ऐसा वर्णन है कि श्रीकृष्ण एवं अर्जुन समान आयु के थे। अर्थात अर्जुन की आयु भी युद्ध के समय ७२ वर्षों की ही रही होगी।

बलराम श्रीकृष्ण से १ वर्ष बड़े थे तो उनकी आयु ७३ वर्षों की होगी। सुभद्रा श्रीकृष्ण से २२ वर्ष छोटी थी इसी कारण युद्ध के समय उनकी आयु ५० वर्ष के आस पास रही होगी। श्रीकृष्ण के भाई और सखा उद्धव भी उनकी ही आयु के थे, तो युद्ध के समय उनकी आयु भी लगभग ७२ वर्ष के आस पास होगी। उनके मित्र सात्यिकी और कृतवर्मा श्रीकृष्ण से आयु में कुछ बड़े ही होंगे। इस आधार पर युद्ध के समय उनकी आयु हम ७४-७५ वर्ष के आस पास मान सकते हैं।

महाभारत में ऐसा भी वर्णन है कि सभी पांडवों की आयु के मध्य १-१ वर्ष का अंतर था। हालांकि कई जगह नकुल और सहदेव को यमज (जुड़वा) बताया गया है किंतु ये निश्चित है कि नकुल सहदेव से बड़े थे। तो यदि १-१ वर्ष की आयु का अंतराल भी मानें तो उस हिसाब से महाभारत युद्ध के समय युधिष्ठिर ७४, भीम ७३, नकुल ७१ एवं सहदेव ७० वर्ष के रहे होंगे। 

महाभारत के अनुसार कर्ण के जन्म के लगभग तुरंत बाद ही कुंती का स्वयंवर हुआ था जहाँ उन्होंने महाराज पाण्डु का वरण किया। इस अनुसार कर्ण की आयु युधिष्ठिर बहुत अधिक नहीं रही होगी। यदि २-३ वर्ष का अंतर मानें तो उनकी आयु युद्ध के समय लगभग ७७ वर्ष के आस पास रही होगी। कुंती स्वयं कर्ण से १५-१६ वर्ष ही बड़ी होंगी। अर्थात युद्ध के समय उनकी आयु ९३ के आस-पास होगी। गांधारी उनसे १-२ वर्ष बड़ी होंगी, अर्थात लगभग ९५ वर्ष के आस पास।

ये मेरा अपना विचार है किन्तु मुझे लगता है कि द्रौपदी एवं पांडवों की आयु में बहुत अंतर नहीं रहा होगा। वे आयु में सहदेव के समान अथवा उनसे कुछ वर्ष ही छोटी होंगी। इस आधार पर हम ये मान सकते हैं कि महाभारत युद्ध के समय द्रौपदी के आयु लगभग ७० वर्ष के आस-पास रही होगी। इस अनुसार धृष्टधुम्न की आयु भी युद्ध के समय लगभग ७०-७१ वर्ष की ही रही होगी। 

महाभारत के अनुसार जिस दिन भीम का जन्म हुआ उसी दिन दुर्योधन भी जन्मे थे, उस हिसाब से दुर्योधन की आयु भी युद्ध के समय ७३ वर्ष की रही होगी। दुर्योधन और उनके ९९ भाइयों की आयु के बीच में बहुत कम अंतर था किंतु इसके विषय मे महाभारत में कोई सटीक वर्णन नही मिलता इसीलिए अपनी ओर से कुछ कहना कठिन है। अश्वत्थामा की आयु पांडवों एवं कौरवों से कुछ अधिक थी। तो उनकी आयु हम कर्ण की आयु के समान ही मान सकते हैं।

कुछ ग्रंथों में ये भी वर्णन मिलता है कि युद्ध के समय पितामह भीष्म १६९ वर्ष के थे। ये भी कई स्थानों पर वर्णित है कि भीष्म की विमाता सत्यवती उनसे कुछ छोटी ही थी। तो महाभारत के कालखंड के अनुसार हम ये मान सकते हैं कि महर्षि वेदव्यास की आयु उनसे लगभग २० वर्ष वर्ष कम होगी। अर्थात युद्ध के समय महर्षि व्यास १५० वर्षों के आस-पास रहे होंगे। 

कृपाचार्य और उनकी बहन कृपी को पितामह भीष्म के पिता शांतनु ने वृद्धावस्था में पाला था। तो उनकी आयु भी भीष्म से कम से कम ५०-६० वर्ष अवश्य कम होनी चाहिए, अर्थात लगभग ११० वर्ष के आस पास। द्रोणाचार्य, पांचाल नरेश द्रुपद एवं मत्स्यराज विराट एवं धृतराष्ट्र भी लगभग उतनी ही आयु के होंगे। विदुर धृतराष्ट्र से केवल १-२ वर्ष ही छोटे होंगे। संजय की आयु उनसे काफी कम होगी। वे धृतराष्ट्र से कम से कम १०-१५ वर्ष तो अवश्य छोटे होंगे।

पितामह भीष्म निश्चय ही वयोवृद्ध थे किंतु सबसे वृद्ध नही। उस युद्ध मे उनके चाचा बाह्लीक ने भी भाग लिया था। बाह्लीक भीष्म के पिता शांतनु के बड़े भाई थे। उन दोनों के एक और बड़े भाई थे देवापि किन्तु उनका अधिक वर्णन हमें नही मिलता। यदि बाह्लीक की आयु भीष्म से ३० वर्ष भी अधिक मानी जाये तो भी युद्ध के समय बाह्लीक की आयु लगभग २०० वर्ष के आस-पास होगी।

उप-पांडवोंएवं अभिमन्यु का जन्म पांडवों के वनवास से पहले हो चुका था। ऐसा कहा जाता है कि अर्जुन के पुत्र श्रुतकर्मा को छोड़ कर द्रौपदी के अन्य चारों पुत्रों में भी पांडवों के समान ही १-१ वर्ष का अंतर था। प्रण भंग करने के बाद अर्जुन के वनवास के कारण श्रुतकर्मा का जन्म सबसे अंत में हुआ। युद्ध के समय अभिमन्यु की आयु १६ वर्ष से अधिक की नहीं होगी। उसी अनुपात में उसके आस-पास ही अन्य पांडवों के अन्य पुत्रों की आयु भी होगी।

पांडवों के अतिरिक्त लगभग सभी की मृत्यु उस युद्ध मे हो गयी। महाभारत में वर्णित है कि युधिष्ठिर ने युद्ध के बाद ३६ वर्षों तक राज्य किया। अर्थात स्वर्गारोहण के समय उनकी आयु ११० वर्ष, भीम की १०९ वर्ष, अर्जुन की १०८ वर्ष, नकुल की १०७ वर्ष एवं सहदेव की १०६ वर्षों की होगी। श्रीकृष्ण ने भी १०८ वर्ष की आयु में निर्वाण लिया एवं बलराम ने १०९ वर्ष की आयु में। 

भगवान परशुराम, महाबली हनुमान, महर्षि व्यास, कुलगुरु कृपाचार्य एवं अश्वथामा तो चिरंजीवी हैं, सो वे आज भी जीवित होंगे और कल्प के अंत तक जीवित रहेंगे।

मैं एक बार पुनः विनम्रता से ये कहना चाहूँगा कि इस लेख को मैं पूर्णतः प्रामाणिक नहीं कह सकता किन्तु आशा करता हूँ कि आपको ये प्रयास पसंद आया होगा। जय श्रीकृष्ण

हिन्दू धर्म के कुछ महान दानवीर

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हिन्दू धर्म में दान का बहुत अधिक महत्त्व बताया गया है। जब भी हम दानवीरता की बात करते हैं तो हमारे मष्तिष्क में सहसा अंगराज कर्ण की तस्वीर बनती है। वे निःसंदेह दानवीर थे किन्तु हमारा हिन्दू धर्म तो दानवीरों से भरा पड़ा है। वैसे तो इतिहास में एक से बढ़ कर एक दानवीर हुए हैं किंतु कुछ दानवीर ऐसे हैं जिन्होंने दान की हर सीमा को पार कर दिया इसीलिए इनकी श्रेणी अन्य दानवीरों की अपेक्षा अलग ही बन गयी। आइये ऐसे ही कुछ दानवीरों के विषय में जानते हैं:
  • दैत्यराज बलि:
    प्रह्लाद के पौत्र एवं विरोचन के पुत्र, इन्हें सबसे बड़ा दानवीर माना जाता है जिन्होंने भगवान वामन को ना सिर्फ पृथ्वी एवं स्वर्ग, अपितु स्वयं को भी दान दे दिया। इन्होंने भगवान वामन को तीन पग भूमि दान देने का निश्चय किया, वो भी ये जानते हुए कि वे साक्षात विष्णु अवतार हैं। जब वामनदेव ने दो पगों में पृथ्वी और स्वर्ग को नाप लिया तब तीसरे पग के लिए उन्होंने अपना शीश आगे कर दिया। इससे वामनदेव अत्यंत प्रसन्न हुए और इन्हें चिरंजीवी बना कर पाताल लोक का स्थायी राज्य प्रदान किया। बाद में जब इन्होने भगवान विष्णु से वर प्राप्त कर उन्हें पाताल लोक में रोक लिया तब माता लक्ष्मी ने इन्हे राखी बाँधी और श्रीहरि को वापस मांग लिया। तब बलि ने सहर्ष श्रीहरि को लौटा दिया। आज भी पूजा में हम इन्ही बलि के श्लोक को पढ़ते है - "येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल: तेन त्वाम् प्रतिबद्धनामि रक्षे माचल माचल:।"
  • महर्षि दधीचि:
    महर्षि अथर्वण के पुत्र एवं ब्रह्मा के पौत्र ने दान की सर्वोत्तम परिभाषा स्थापित की। इन्होंने अनंतकाल तक तप कर अथाह पुण्य अर्जित किया। जब वृत्रासुर ने अत्याचार किया तो उसके वध के लिए इंद्र को एक महान दिव्य अस्त्र की आवश्यकता पड़ी। सभी ने उनसे कहा कि केवल महर्षि दधीचि की अस्थियों में उनके संचित पुण्य के कारण इतना बल है कि उसी से बने अस्त्र से वृत्रासुर का वध हो सकता है। इस पर इंद्रदेव ने बड़े संकोच के साथ महर्षि दधीचि को अपनी समस्या बताई। तब उस अस्त्र के लिए दधीचि ने अपने तत्काल प्राणों का त्याग कर दिया और उनकी अस्थियों से विश्वकर्मा ने वज्र का निर्माण किया जिससे इंद्र ने वृत्र का वध किया।
  • राजा हरिश्चंद्र:
    इन्होंने तो दान की सारी सीमाएं पार कर दी। ये श्रीराम के पूर्वज थे जिन्होंने दान में अपना सारा साम्राज्य महर्षि विश्वामित्र को दे दिया। तब विश्वामित्र ने दक्षिणा के रूप में इनसे तीन स्वर्ण मुद्राएं और मांगी। उसका प्रबंध करने हेतु उन्होंने स्वयं को एक शमशान के चांडाल को बेच दिया और तीन स्वर्ण मुद्राएं महर्षि विश्वामित्र को दक्षिणा के रूप में दी। धर्म के लिए अपनी पत्नी और पुत्र का दान कर दिया। जब इनका एकमात्र पुत्र मर गया तब भी इन्होंने सत्य का मार्ग नही छोड़ा और अपनी पत्नी से अपने ही पुत्र को जलाने के लिए कर मांगा। वो कहाँ से देती? तब उन्होंने अपनी साड़ी का आधा भाग फाड़ कर अपने पति को ही दान दिया। तब आकाश से देवताओं ने पुष्पवर्षा की और महर्षि विश्वामित्र ने इनकी सारी संपत्ति लौटा दी। इस घटना के बाद इनका यश युग युगांतर तक फैल गया।
  • राजा शिबि:
    ये राजा उनीशर के पुत्र थे। एक बार धर्मराज ने इनकी परीक्षा लेने के लिए एक कबूतर के रूप में इनके पास गए और एक बाज से अपने प्राणों की रक्षा करने को कहा। मायारूपी बाज ने कहा कि वो राजा हैं इसीलिए उसके भोजन का प्रबंध करना भी उनका दायित्व है। तब महाराज शिबि ने कबूतर के भर के बराबर अपना मांस देना स्वीकार कर लिया। वो एक पडले में कबूतर को रख कर दूसरे में अपने शरीर का मांस काट काट कर रखने लगे। किन्तु जब पडला नही झुका तो अंततः वे स्वयं तराजू पर बैठ गए, जिससे भार बराबर हो गया। तब शिबि ने बाज से कहा कि वो उन्हें खा ले। तब धर्मराज ने उन्हें दर्शन दिए और अनेक आशीर्वाद दिए।
  • राजा रघु:
    ये श्रीराम के पूर्वजथे। इन्होने अश्वमेघ यज्ञ कर संसार पर अधिकार प्राप्त कर लिया और स्वयं इंद्र से युद्ध कर उनसे अपना अश्व वापस लिया। फिर इन्होने अपना समस्त धन दान कर दिया। बाद में जब महर्षि विश्वामित्र ने इनसे १४ करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का दान माँगा तो इन्होने कुबेर से युद्ध कर उनसे १४ करोड़ स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त की और उसे महर्षि विश्वामित्र को दान किया। फिर पुनः इन्होने विश्वजीत नामक यज्ञ कर अपना सब कुछ दान कर दिया।
  • एकलव्य:
    एक बार पांडव वन भ्रमण को निकले तो एक कुत्ता देखा जिसका मुँह बाणों से भरा था किंतु वो जीवित था। अर्जुन और द्रोणाचार्य ये देख कर हैरान रह गए। आगे जाकर देखा तो उन्हें हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य दिखा, जो द्रोणाचार्य की मूर्ति बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। द्रोण अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने का वचन दे चुके थे इसीलिए उन्होंने गुरुदक्षिणा में एकलव्य का अंगूठा मांग लिया जिसे एकलव्य ने बिना सोचे दे दिया। अपने सम्पूर्ण जीवन के यश को नष्ट कर गुरु की गुरुदक्षिणा देने का इससे बड़ा उदाहरण और कोई नहीं है।
  • बर्बरीक:
    वैसे तो बर्बरीक की कथा का वर्णन महाभारत में नही आता किन्तु लोक कथाओं के रूप में ये बहुत प्रचलित है। बर्बरीक ने हारे हुए पक्ष की ओर से युद्ध करने का प्रण लिया। श्रीकृष्ण ये जानते थे कि बर्बरीक की इस प्रतिज्ञा के कारण महाभारत का वास्तविक उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा। तब श्रीकृष्ण ने इनसे उनका सर दान में मांग लिया। इसपर बर्बरीक ने हंसते हुए अपना सर काट कर दे दिया। इसके बाद बर्बरीक ने इच्छा जताई कि उन्हें ये युद्ध देखना है। तब श्रीकृष्ण ने इनका सर एक पहाड़ी पर रख दिया जहां से इन्होंने सारा युद्ध देखा।
  • कर्ण:
    इनकी दानवीरता के विषय में तो सबको पता ही है। इन्होंने ये जानते हुए की इंद्र अर्जुन की सहायता के लिए मांग रहे हैं, अपना कवच कुंडल काट कर दान दे दिया। कुंती को दान के रूप में इन्होंने अर्जुन को छोड़ कर शेष ४ पांडवों का जीवन दिया और इसी कारण युधिष्ठिर, भीम, नकुल एवं सहदेव को परास्त करने के बाद भी उनके प्राण नही लिए। प्रतिदिन सूर्य पूजा के बाद इनके पास जो कुछ भी होता था वो ये दान कर देते थे। इनके द्वार से कोई याचक खाली नही गया। इसके अतिरिक्त भी इनकी दानवीरता की कई कथायें प्रसिद्ध हैं जिनमें से एक श्रीकृष्ण द्वारा कर्ण की दानवीरता की परीक्षाऔर दूसरा अंतिम समय में कर्ण के द्वारा दिया गया दानके विषय में है।
यदि अज्ञानतावश हम किसी अन्य दानवीर को इस सूची में जोड़ना भूल गए हैं तो कृपया अवश्य बताएं।

रावण का परिवार

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रावण के विषय में तो हम सभी जानते ही हैं, किन्तु रावण के परिवार के विषय में बहुत लोगों को अधिक जानकारी नहीं है। आज इस लेख में हम संक्षेप में रावण के परिवार के विषय में जानेंगे। ध्यान दें कि यहाँ केवल रावण के व्यक्तिगत परिवार का विवरण दिया जा रहा है। सम्पूर्ण राक्षस वंशके विषय में एक लेख हमने पहले ही प्रकाशित किया है जिसे आप यहाँपढ़ सकते हैं।

रावण के पिता सप्तर्षियोंमें से एक महर्षि पुलत्स्यके पुत्र महर्षि विश्रवाथे। महर्षि विश्रवा की पहली पत्नी का नाम इलविदा था जिनसे उन्हें कुबेर नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। कुबेर यक्षों के अधिपति बनें। विश्रवा ने दूसरा विवाह सुमाली नामक राक्षस की पुत्री कैकसीसे किया। विश्रवा और कैकसी के तीन पुत्र हुए - रावण, कुम्भकर्णएवं विभीषण। इसके अतिरिक्त दोनों की एक कन्या भी थी - शूर्पणखा

वैसे तो रावण की कई पत्नियां थी किन्तु रामायण में रावण की दो प्रमुख पत्नियों और छः पुत्रों का वर्णन मिलता है:
  1. मंदोदरी:ये मयासुर और हेमा की बड़ी पुत्री थी और रावण की पटरानी। मायावी और दुदुम्भी इसके भाई थे जिनका वध वानर राज बाली ने किया। इनकी गिनती पंचकन्याओंमें की जाती है। इनसे रावण को दो पुत्रों की प्राप्ति हुई।
    1. मेघनाद:रावण का सबसे बड़ा पुत्र। महान योद्धा, पुराणों में वर्णित एकमात्र अतिमहारथी। एकमात्र ऐसा योद्धा जिसके पास तीनों महास्त्रों - ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र एवं पाशुपतास्त्र थे। महादेव के प्रिय, इंद्र को भी जीतने वाले। श्रीराम और लक्ष्मण को भी नागपाश में बांध दिया था। लक्ष्मण के हाथों वध हुआ।
    2. अक्षयकुमार:रावण का सबसे छोटा पुत्र। कई दिव्यास्त्रों का ज्ञाता। अल्पायु में ही वे अशोक वाटिका में हनुमान से उलझ बैठे और वीरगति को प्राप्त हुए।
  2. धन्यमालिनी:मयासुर और हेमा की दूसरी पुत्री, मंदोदरी की छोटी बहन। इनसे रावण को ४ प्रतापी पुत्रों की प्राप्ति हुई।
    1. अतिकाय:रावण का दूसरा पुत्र, महान योद्धा। एक बार कैलाश पर उत्पात मचाने के कारण भगवान शंकर ने इसपर अपना त्रिशूल फेंका। अतिकाय ने उस त्रिशूल को बीच मे पकड़ लिया और नम्रता पूर्वक महादेव को प्रणाम किया। तब भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर उसे कई दिव्यास्त्र दिए। ब्रह्मदेव के वरदान के अनुसार इसका वध केवल ब्रह्मास्त्र द्वारा ही संभव था। लक्ष्मण के हाथों वध हुआ।
    2. नरान्तक:रामायण के अनुसार इसके अधीन रावण के ७२ करोड़ राक्षसों की सेना थी। लंका युद्ध मे ये अतिकाय और देवान्तक के साथ लड़ने को आया और हनुमान के हाथों वीरगति को प्राप्त हुआ।
    3. देवान्तक:महान योद्धा और रावण की सेना का एक सेनापति। कई देवताओं को भी परास्त किया। देवान्तक का पुत्र महाकंटक ही युद्ध के बाद राक्षस कुल का एकमात्र जीवित योद्धा था जिसे श्रीराम ने क्षमादान दिया। हालांकि वो लंका में नही रुका और कान्यकुब्ज में जाकर ब्राह्मण बन गया। उसी से कान्यकुब्ज ब्राह्मण की शाखा चली जो पुलत्स्य गोत्र के अंतर्गत आती है। आज के कान्यकुब्ज ब्राह्मण उसी के वंशज हैं। देवान्तक का वध अंगद ने किया।
    4. त्रिशिरा:तीन सर वाला श्रेष्ठ योद्धा। लंका युद्ध मे इसने अपने बाणों से हनुमान को बींध डाला। तब क्रोधित होकर हनुमान ने युद्ध मे इसका वध कर दिया।
इसके अतिरिक्त ऐसी मान्यता है कि रावण की एक प्रमुख पत्नी और थी जिसके विषय में किसी ग्रन्थ में अधिक वर्णन नहीं मिलता। कुछ लोग प्रहस्तको भी रावण का पुत्र बताते हैं जो सत्य नही है। प्रहस्त सुमाली का पुत्र और रावण का मामा था। उसका पुत्र जम्बुवाली रावण का छोटा भाई था। प्रहस्त राक्षस सेना का प्रधान सेनापति था। लंका युद्ध में वानर सेना के प्रधान सेनापति नील ने उसका वध किया।

कुम्भकर्ण का विवाह दैत्यराज बलि की पुत्री वज्रज्वलासे हुआ जिससे उसे कुम्भऔर निकुम्भनामक पराक्रमी पुत्र प्राप्त हुए। कुम्भकर्ण की दूसरी पत्नी कर्कटीथी जो विराध राक्षस की विधवा थी जिससे कुम्भकर्ण ने बाद में विवाह किया। उससे उसे भीमनामक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका वध महादेव के हाथों हुआ। उसी के नाम पर भगवान शिव भीमाशंकर ज्योतिर्लिंगके रूप में स्थापित हुए। लंका युद्ध में कुम्भकर्ण का वध श्रीराम के हाथों हुआ। 

विभीषण का विवाह गंधर्व शैलूषा की पुत्री सरमा से हुआ जिससे उसे त्रिजटा नामक पुत्री की प्राप्ति हुई जो अशोक वाटिका में सीता की सुरक्षा करती थी। रावण की मृत्यु के पश्चात विभीषण ने मंदोदरी से भी विवाह किया। विभीषण सप्त चिरंजीवियों में से एक हैं जो आज तक जीवित हैं।

शूर्पनखा का विवाह दैत्यजाति के एक योद्धा विद्युतजिव्ह से हुआ जिसका वध रावण ने अपने दिग्विजय के दौरान किया। उसके वध के पश्चात रावण ने शूर्पणखा को दण्डकारण्य का अधिपति बना दिया जहाँ वो खर-दूषणकी सहायता से राज्य करती थी। शूर्पणखा की मृत्यु का कोई वर्णन रामायण में नहीं मिलता। कुछ ग्रंथों में वर्णित है कि लंका युद्ध के पश्चात शूर्पणखा ने सात्विक जीवन बिताते हुए अपने शरीर का त्याग किया। 

दुर्भाग्यवश विभीषण को छोड़ समस्त राक्षस वंश का लंका युद्ध में नाश हो गया।

तो संक्षेप में रावण के परिवार का वर्णन इस प्रकार है:
  • पिता:विश्रवा 
  • माता:कैकसी 
  • भाई:कुम्भकर्ण एवं विभीषण 
  • बहन:शूर्पणखा 
  • पत्नी:मंदोदरी एवं धन्यमालिनी 
  • पुत्र:मेघनाद, अक्षयकुमार, अतिकाय, नरान्तक, देवान्तक एवं त्रिशिरा

केवल भगवान विष्णु के साथ ही "श्री" क्यों लगाया जाता है?

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आप सभी ने ये ध्यान दिया होगा कि जब भी हम भगवान विष्णु और उनके अवतारों के विषय में बात करते हैं तो हम उनके आगे "श्री"शब्द लगाते हैं, जैसे श्रीहरि, श्रीराम, श्रीकृष्ण इत्यादि। किन्तु ऐसा हम भगवान ब्रह्मा, महादेव अथवा अन्य देवताओं के साथ नहीं करते। तो क्या इसका अर्थ ये है कि श्री बोल कर भगवान विष्णु को सम्मान दिया जाता है और अन्य देवताओं को नहीं? ऐसा बिलकुल भी नहीं है। आइये इसे समझते हैं।

ईश्वर, विशेषकर भगवान विष्णु के सम्बन्ध में एक भ्रान्ति ये है कि उनके नाम के आगे लगने वाला शब्द "श्री"सम्मान सूचक है। यही कारण है कि हम ये अपेक्षा करते हैं कि हम सभी देवताओं के आगे उसी सम्मान के रूप में श्री लगाएं। आज के परिपेक्ष्य में अवश्य श्री एक सम्मान सूचक शब्द है किन्तु आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि भगवान विष्णु के नाम के आगे लगने वाला श्री केवल सम्मान के लिए नहीं है।

ब्रह्मा, विष्णु, महेश ईश्वर हैं इसी कारण सम्मान पर उनका अधिकार निर्विवाद है। श्री लगाएं अथवा ना लगाएं, उनका सम्मान कम नहीं होता। किन्तु वास्तव में श्रीहरि के आगे लगने वाले "श्री" का अर्थ है "लक्ष्मी"। आप सभी को ये तो पता ही होगा कि माता लक्ष्मी का एक नाम श्री भी है। श्री का अर्थ होता है ऐश्वर्य प्रदान करने वाली। तो वास्तव में हम श्रीहरि कह कर भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी को एकाकार करते हैं। ये ठीक वैसा ही है जैसे भगवान शंकर का अर्धनारीश्वरस्वरुप।

अब श्रीहरि तक तो ठीक है किन्तु क्या श्रीराम और श्रीकृष्ण के आगे जो "श्री" लगता है वो सम्मान सूचक नहीं है? उत्तर है हाँ, है किन्तु इन दोनों के नाम के साथ लगने वाले श्री का अर्थ भी माता लक्ष्मी का ही रूप है। जब हम श्रीराम कहते हैं तो वास्तव में हम "सीता-राम"कह रहे होते हैं। जब हम श्रीकृष्ण कहते हैं तो वास्तव में हम "रुक्मिणी-कृष्ण"कह रहे होते हैं। तो इस प्रकार दोनों के नाम में श्री लगाने का वास्तविक तात्पर्य इनकी अर्धांगिनी के नाम को भी इनके साथ जोड़ना है।

अब एक प्रश्न और आता है कि भगवान विष्णु के अवतारों - राम और कृष्ण के अवतारों को ही माता लक्ष्मी के "श्री" सम्बोधन के साथ क्यों जोड़ा जाता है? भगवान शंकर के अवतारों के साथ क्यों नहीं। इसका कारण ये है कि भगवान विष्णु के अवतारों की एक विशेष बात ये है कि नारायण के साथ-साथ हर अवतार में माता लक्ष्मी भी अवतार लेती हैं। जैसे श्रीराम के अवतार के साथ में माता लक्ष्मी देवी सीता और श्रीकृष्ण के अवतार के साथ में माता लक्ष्मी देवी रुक्मिणी के रूप में अवतरित हुई।

बहुत कम लोगों को ये पता है कि भगवान विष्णु के अन्य अवतारों के साथ भी माता लक्ष्मी ने अवतार लिया। जैसे भगवान वराह के साथ माता वाराही, भगवान नृसिंह के साथ माता नारसिंही, भगवान वामन के साथ माता पद्माऔर भगवान परशुराम के साथ माता धारिणी। तो इन सबके साथ भी श्री का तात्पर्य माता लक्ष्मी के इन्ही अवतारों से है। भविष्य में होने वाले भगवान कल्कि के अवतार में भी माता लक्ष्मी देवी पद्मावतीके रूप में अवतरित होंगी।

अतः ये बात सदैव स्मरण रखें कि श्रीहरि, श्रीराम, श्रीकृष्ण इत्यादि के साथ लगने वाला "श्री" केवल सम्मान सूचक ही नहीं बल्कि माता लक्ष्मी का भी प्रतिनिधित्व करता है। जय श्रीहरि।

संस्कृत भाषा का चमत्कार

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कुछ समय पहले मुझे एक जानकारी प्राप्त हुई थी जिसमें संस्कृत भाषा का अद्भुत प्रयोग किया गया था। इसमें एक शब्द को विस्तारित कर विभिन्न चरित्रों के साथ जोड़ा गया था। मैंने सोचा कि इसे आप सभी के साथ साझा करना आवश्यक है ताकि हम सभी संस्कृत भाषा के अद्भुत उपयोग को देख सकें। ऐसा प्रयोग संसार की किसी भी अन्य भाषा के साथ करना असंभव है। आप स्वयं देखिये।
  • अहिः = सर्पः
  • अहिरिपुः = गरुडः
  • अहिरिपुपतिः = विष्णुः
  • अहिरिपुपतिकान्ता = लक्ष्मीः
  • अहिरिपुपतिकान्तातातः = सागरः
  • अहिरिपुपतिकान्तातातसम्बद्धः = रामः
  • अहिरिपुपतिकान्तातातसम्बद्धकान्ता = सीता
  • अहिरिपुपतिकान्तातातसम्बद्धकान्ताहरः = रावणः
  • अहिरिपुपतिकान्तातातसम्बद्धकान्ताहरतनयः = मेघनादः
  • अहिरिपुपतिकान्तातातसम्बद्धकान्ताहरतनयनिहन्ता = लक्ष्मणः
  • अहिरिपुपतिकान्तातातसम्बद्धकान्ताहरतनयनिहन्तृप्राणदाता = हनुमान्
  • अहिरिपुपतिकान्तातातसम्बद्धकान्ताहरतनयनिहन्तृप्राणदातृध्वजः = अर्जुनः
  • अहिरिपुपतिकान्तातातसम्बद्धकान्ताहरतनयनिहन्तृप्राणदातृध्वजसखा = श्रीकृष्णः
  • अहिरिपुपतिकान्तातातसम्बद्धकान्ताहरतनयनिहन्तृप्राणदातृध्वजसखिसुतः = प्रद्युम्नः
  • अहिरिपुपतिकान्तातातसम्बद्धकान्ताहरतनयनिहन्तृप्राणदातृध्वजसखिसुतसुतः = अनिरुद्धः
  • अहिरिपुपतिकान्तातातसम्बद्धकान्ताहरतनयनिहन्तृप्राणदातृध्वजसखिसुतसुतकान्ता = उषा
  • अहिरिपुपतिकान्तातातसम्बद्धकान्ताहरतनयनिहन्तृप्राणदातृध्वजसखिसुतसुतकान्तातातः = बाणासुरः
  • अहिरिपुपतिकान्तातातसम्बद्धकान्ताहरतनयनिहन्तृप्राणदातृध्वजसखिसुतसुतकान्तातातसम्पूज्यः = शिवः
  • अहिरिपुपतिकान्तातातसम्बद्धकान्ताहरतनयनिहन्तृप्राणदातृध्वजसखिसुतसुतकान्तातातसम्पूज्यकान्ता = पार्वती
  • अहिरिपुपतिकान्तातातसम्बद्धकान्ताहरतनयनिहन्तृप्राणदातृध्वजसखिसुतसुतकान्तातातसम्पूज्यकान्तापिता = हिमालयः
  • अहिरिपुपतिकान्तातातसम्बद्धकान्ताहरतनयनिहन्तृप्राणदातृध्वजसखिसुतसुतकान्तातातसम्पूज्यकान्तापितृशिरोवहा = गङ्गा
क्या शब्दों और व्याकरण का ऐसा अद्भुत प्रयोग किसी अन्य भाषा के लिए संभव है? अपने सनातन धर्म पर सदैव गर्व करें। जय संस्कृत।

मूल स्रोत: अज्ञात

सभी उपनिषदों की सूची

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हिन्दू धर्म में उपनिषदों का बड़ा महत्त्व है। महर्षि वेदव्यास ने महाभारत और महापुराणों के अतिरिक्त उपनिषदों की भी रचना की। बाद में चलकर अदि शंकराचार्य ने सभी उपनिषदों पर भाष्य लिखे। सभी उपनिषद चारों वेद एवं किसी पंथ एवं संप्रदाय से सम्बंधित हैं। मूल उपनिषदों की संख्या १० मानी गयी है किन्तु इनके अतिरिक्त भी कई उपनिषद हैं जिनकी कुल संख्या १०८ है। आइये जानते हैं कि उन सभी के नाम क्या हैं और वे किस वेद एवं पंथ/समुदाय से सम्बंधित हैं।
  1. ईश उपनिषद् : शुक्ल यजुर्वेद -> मुख्य उपनिषद्
  2. केन उपनिषद् : साम वेद -> मुख्य उपनिषद्
  3. कठ उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> मुख्य उपनिषद्
  4. प्रश्नि उपनिषद् : अथर्व वेद -> मुख्य उपनिषद्
  5. मुण्डक उपनिषद् : अथर्व वेद -> मुख्य उपनिषद्
  6. माण्डुक्य उपनिषद् : अथर्व वेद -> मुख्य उपनिषद्
  7. तैत्तिरीय उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> मुख्य उपनिषद्
  8. ऐतरेय उपनिषद् : ऋग् वेद -> मुख्य उपनिषद्
  9. छान्दोग्य उपनिषद् : साम वेद -> मुख्य उपनिषद्
  10. बृहदारण्यक उपनिषद् : शुक्ल यजुर्वेद -> मुख्य उपनिषद्
  11. ब्रह्म उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> संन्यास उपनिषद्
  12. कैवल्य उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> शैव उपनिषद्
  13. जाबाल उपनिषद् : शुक्ल यजुर्वेद -> संन्यास उपनिषद्
  14. श्वेताश्वतर उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> सामान्य उपनिषद्
  15. हंस उपनिषद् : शुक्ल यजुर्वेद -> योग उपनिषद्
  16. आरुणेय उपनिषद् : साम वेद -> संन्यास उपनिषद्
  17. गर्भ उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> सामान्य उपनिषद्
  18. नारायण उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> वैष्णव उपनिषद्
  19. परमहंस उपनिषद् : शुक्ल यजुर्वेद -> संन्यास उपनिषद्
  20. अमृत-बिन्दु उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> योग उपनिषद्
  21. अमृत-नाद उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> योग उपनिषद्
  22. अथर्व-शिर उपनिषद् : अथर्व वेद -> शैव उपनिषद्
  23. अथर्व-शिख उपनिषद् :अथर्व वेद -> शैव उपनिषद्
  24. मैत्रायणि उपनिषद् : साम वेद -> सामान्य उपनिषद्
  25. कौषीतकि उपनिषद् : ऋग् वेद -> सामान्य उपनिषद्
  26. बृहज्जाबाल उपनिषद् : अथर्व वेद -> शैव उपनिषद्
  27. नृसिंहतापनी उपनिषद् : अथर्व वेद -> वैष्णव उपनिषद्
  28. कालाग्निरुद्र उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> शैव उपनिषद्
  29. मैत्रेयि उपनिषद् : साम वेद -> संन्यास उपनिषद्
  30. सुबाल उपनिषद् : शुक्ल यजुर्वेद -> सामान्य उपनिषद्
  31. क्षुरिक उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> योग उपनिषद्
  32. मान्त्रिक उपनिषद् : शुक्ल यजुर्वेद -> सामान्य उपनिषद्
  33. सर्व-सार उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> सामान्य उपनिषद्
  34. निरालम्ब उपनिषद् : शुक्ल यजुर्वेद -> सामान्य उपनिषद्
  35. शुक-रहस्य उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> सामान्य उपनिषद्
  36. वज्रसूचि उपनिषद् : साम वेद -> सामान्य उपनिषद्
  37. तेजो-बिन्दु उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> संन्यास उपनिषद्
  38. नाद-बिन्दु उपनिषद् : ऋग् वेद -> योग उपनिषद्
  39. ध्यानबिन्दु उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> योग उपनिषद्
  40. ब्रह्मविद्या उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> योग उपनिषद्
  41. योगतत्त्व उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> योग उपनिषद्
  42. आत्मबोध उपनिषद् : ऋग् वेद -> सामान्य उपनिषद्
  43. परिव्रात् (नारदपरिव्राजक) उपनिषद् : अथर्व वेद -> संन्यास उपनिषद्
  44. त्रिषिखि उपनिषद् : शुक्ल यजुर्वेद -> योग उपनिषद्
  45. सीता उपनिषद् : अथर्व वेद -> शाक्त उपनिषद्
  46. योगचूडामणि उपनिषद् : साम वेद -> योग उपनिषद्
  47. निर्वाण उपनिषद् : ऋग् वेद -> संन्यास उपनिषद्
  48. मण्डलब्राह्मण उपनिषद् : शुक्ल यजुर्वेद -> योग उपनिषद्
  49. दक्षिणामूर्ति उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> शैव उपनिषद्
  50. शरभ उपनिषद् : अथर्व वेद -> शैव उपनिषद्
  51. स्कन्द (त्रिपाड्विभूटि) उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> सामान्य उपनिषद्
  52. महानारायण उपनिषद् : अथर्व वेद -> वैष्णव उपनिषद्
  53. अद्वयतारक उपनिषद् : शुक्ल यजुर्वेद -> संन्यास उपनिषद्
  54. रामरहस्य उपनिषद् : अथर्व वेद -> वैष्णव उपनिषद्
  55. रामतापणि उपनिषद् : अथर्व वेद -> वैष्णव उपनिषद्
  56. वासुदेव उपनिषद् : साम वेद -> वैष्णव उपनिषद्
  57. मुद्गल उपनिषद् : ऋग् वेद -> सामान्य उपनिषद्
  58. शाण्डिल्य उपनिषद् : अथर्व वेद -> योग उपनिषद्
  59. पैंगल उपनिषद् : शुक्ल यजुर्वेद -> सामान्य उपनिषद्
  60. भिक्षुक उपनिषद् : शुक्ल यजुर्वेद -> संन्यास उपनिषद्
  61. महत् उपनिषद् : साम वेद -> सामान्य उपनिषद्
  62. शारीरक उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> सामान्य उपनिषद्
  63. योगशिखा उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> योग उपनिषद्
  64. तुरीयातीत उपनिषद् : शुक्ल यजुर्वेद -> संन्यास उपनिषद्
  65. संन्यास उपनिषद् : साम वेद -> संन्यास उपनिषद्
  66. परमहंस-परिव्राजक उपनिषद् : अथर्व वेद -> संन्यास उपनिषद्
  67. अक्षमालिक उपनिषद् : ऋग् वेद -> शैव उपनिषद्
  68. अव्यक्त उपनिषद् : साम वेद -> वैष्णव उपनिषद्
  69. एकाक्षर उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> सामान्य उपनिषद्
  70. अन्नपूर्ण उपनिषद् : अथर्व वेद -> शाक्त उपनिषद्
  71. सूर्य उपनिषद् : अथर्व वेद -> सामान्य उपनिषद्
  72. अक्षि उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> सामान्य उपनिषद्
  73. अध्यात्मा उपनिषद् : शुक्ल यजुर्वेद -> सामान्य उपनिषद्
  74. कुण्डिक उपनिषद् : साम वेद -> संन्यास उपनिषद्
  75. सावित्रि उपनिषद् : साम वेद -> सामान्य उपनिषद्
  76. आत्मा उपनिषद् : अथर्व वेद -> सामान्य उपनिषद्
  77. पाशुपत उपनिषद् : अथर्व वेद -> योग उपनिषद्
  78. परब्रह्म उपनिषद् : अथर्व वेद -> संन्यास उपनिषद्
  79. अवधूत उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> संन्यास उपनिषद्
  80. त्रिपुरातपनि उपनिषद् : अथर्व वेद -> शाक्त उपनिषद्
  81. देवि उपनिषद् : अथर्व वेद -> शाक्त उपनिषद्
  82. त्रिपुर उपनिषद् : ऋग् वेद -> शाक्त उपनिषद्
  83. कठरुद्र उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> संन्यास उपनिषद्
  84. भावन उपनिषद् : अथर्व वेद -> शाक्त उपनिषद्
  85. रुद्र-हृदय उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> शैव उपनिषद्
  86. योग-कुण्डलिनि उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> योग उपनिषद्
  87. भस्म उपनिषद् : अथर्व वेद -> शैव उपनिषद्
  88. रुद्राक्ष उपनिषद् : साम वेद -> शैव उपनिषद्
  89. गणपति उपनिषद् : अथर्व वेद -> शैव उपनिषद्
  90. दर्शन उपनिषद् : साम वेद -> योग उपनिषद्
  91. तारसार उपनिषद् : शुक्ल यजुर्वेद -> वैष्णव उपनिषद्
  92. महावाक्य उपनिषद् : अथर्व वेद -> योग उपनिषद्
  93. पञ्च-ब्रह्म उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> शैव उपनिषद्
  94. प्राणाग्नि-होत्र उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> सामान्य उपनिषद्
  95. गोपाल-तपणि उपनिषद् : अथर्व वेद -> वैष्णव उपनिषद्
  96. कृष्ण उपनिषद् : अथर्व वेद -> वैष्णव उपनिषद्
  97. याज्ञवल्क्य उपनिषद् : शुक्ल यजुर्वेद -> संन्यास उपनिषद् 
  98. वराह उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> संन्यास उपनिषद्
  99. शात्यायनि उपनिषद् : शुक्ल यजुर्वेद -> संन्यास उपनिषद्
  100. हयग्रीव उपनिषद् : अथर्व वेद -> वैष्णव उपनिषद्
  101. दत्तात्रेय उपनिषद् : अथर्व वेद -> वैष्णव उपनिषद्
  102. गारुड उपनिषद् : अथर्व वेद -> वैष्णव उपनिषद्
  103. कलि-सन्तारण उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> वैष्णव उपनिषद्
  104. जाबाल उपनिषद् : साम वेद -> शैव उपनिषद्
  105. सौभाग्य उपनिषद् : ऋग् वेद -> शाक्त उपनिषद्
  106. सरस्वती-रहस्य उपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद -> शाक्त उपनिषद्
  107. बह्वृच उपनिषद् : ऋग् वेद -> शाक्त उपनिषद्
  108. मुक्तिक उपनिषद् : शुक्ल यजुर्वेद -> सामान्य उपनिषद

महालया

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सर्वप्रथम आप सभी महालया पर्व की हार्दिक शुभकामनायें। कल से महालया आरम्भ हो गया है। महालया उत्तर भारत, विशेष कर बंगाल का एक अति महत्वपूर्ण पर्व है। ये एक संस्कृत शब्द है जो "महा+आलय"से मिलकर बना है, जिसका अर्थ होता है "महान आवास"। ये पर्व हर पितृ पक्ष समाप्त होने के अगली अमास्या को पड़ता है और इसी दिन के साथ दुर्गा पूजा एवं नवरात्रि का आरम्भ माना जाता है। महालया के अगले दिन ही नवदुर्गा के पहले रूप माता शैलपुत्री की पूजा की जाती है।

ऐसी मान्यता है कि इसी दिन माँ दुर्गाकैलाश छोड़ कर १० दिनों के लिए पृथ्वी पर आती हैं और समस्त बुरी शक्तियों से जगत, विशेषकर बच्चों की रक्षा करती है। ये पर्व अधिकतर बंगाल में मनाया जाता है और माता से आज के दिन पृथ्वी पर अवतरित होने की प्रार्थना की जाती है ताकि वे महिषासुर का वध कर सके। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जब पृथ्वी महिषासुर के अत्याचारों से त्रस्त हो चुकी थी तब उसके नाश लिए आज के दिन ही माँ दुर्गा का प्राकट्य हुआ।

महालया से ६ दिन बाद, अर्थात षष्ठी से दुर्गा पूजा का वास्तविक आरम्भ माना जाता है। मेलों एवं अनुष्ठानों का आरम्भ षष्ठी से ही होता है। महालया के दिन सभी लोग प्रातः उठ कर सर्वप्रथम अपने पितरों को याद करते हैं और उनका धन्यवाद अदा करते हैं। इसी के साथ वे अपने पितरों से ये प्रार्थना करते हैं कि वे अब वापस अपने लोक में लौट जाएँ। बाद में देवी की महामाया मूर्ति की पूजा होती है और कई प्रकार के भोग लगाए जाते हैं। इस दिन ब्राह्मणों को भोज कराने का भी विशेष महत्त्व है।

माँ दुर्गा की मूर्ति में उनकी जीवंत आँखों का बहुत महत्त्व होता है और महालया के दिन ही मूर्तिकार माता के मूर्ति की आँखों का निर्माण करते हैं। महालया के दिन माता के नेत्र की रचना करने की ये परंपरा सदियों पुरानी है। अधिकतर कलाकार आज माता के तीसरे नेत्र को सबसे बनाते हैं और फिर अन्य दो नेत्रों का निर्माण किया जाता है। दुर्गा मूर्ति की आँखों के निर्माण के बाद ही उस मूर्ति को पूर्ण रूप दिया जाता है। इसके बाद ही ये मूर्तियाँ पूजा पंडालों की शोभा बढाती है।

महालया का दिन मुख्यतः दो भागों में बंटा होता है। आधा दिन पितरों को विदाई देने और फिर आधा दिन माँ दुर्गा के आगमन का होता है। दोपहर तक सभी लोग पूजा अनुष्ठान द्वारा अपने पितरों को भोग लगाते हैं। फिर उस भोग के पांच भाग कर एक देवताओं को, दूसरा गाय को, तीसरा कौवे को, चौथा श्वान (कुत्ते) को और पांचवा चीटियों को अर्पित किया जाता है। इसके बाद लोग अपने पितरों को अंतिम बार जल पिला कर उनसे वापस अपने लोक लौट जाने की प्रार्थना करते हैं।

इसके बाद शाम से महालया का दूसरा भाग आरम्भ होता है जब सभी स्नानादि से निवृत हो, नए वस्त्र पहन कर माँ दुर्गा के धरती पर आगमन के स्वागत के लिए तैयार हो जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि संध्या पूजा के बाद भक्तों के आह्वान पर माँ दुर्गा कैलाश पर भगवान शंकर से आज्ञा लेकर अगले १० दिनों तक पृथ्वी पर रहने आती है। नवरात्रि के बाद १०वें दिन माता के विसर्जन के बाद वो पुनः पृथ्वी छोड़ कैलाश को लौट जाती हैं।

महालया को एक स्त्री के ससुराल से अपने पीहर आने के रूप में भी देखा जाता है। बंगाल में विवाहित स्त्रियों का महालया के दिन अपने मायके जाने की भी परंपरा है जहाँ उन्हें माता का रूप ही मान कर उनका स्वागत किया जाता है। बंगाल में इसे एक उत्सव के रूप में देखा जाता है इसीलिए देश के अन्य राज्यों से अलग बंगाल में दुर्गा पूजा में मांसाहार, विशेषकर मछली खाने की परंपरा है।

एक मान्यता के अनुसार महालया को भारत में फसलों के पकने के दिन के रूप में भी देखा जाता है। इसीलिए किसान आज के दिन अपने फसलों का पहला भाग देवताओं को समर्पित करते हैं। देवताओं के अतिरिक्त अपने पितरों को भी अन्न एक पिंड के रूप में अर्पण करने की परंपरा रही है। इसके बाद ही दुर्गा पूजा और अन्य पर्वों का शुभारम्भ किया जाता है।

महालया, नवरात्रि एवं दुर्गा पूजा महिला सशक्तिकरण का एक उत्तम उदाहरण है। ये दर्शाता है कि जब सभी पुरुष (देवता) महिषासुर को परास्त करने में असफल हो गए तब त्रिदेवों में स्त्री शक्ति के महत्त्व के प्रतीक में अपने-अपने तेज से माँ दुर्गा का आह्वान किया। में त्रिदेवों के साथ सभी देवताओं ने अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र उन्हें प्रदान किये जिसके द्वारा माता ने ९ दिनों तक युद्ध करने के बाद १०वें दिन महिषासुर का वध कर दिया। तो ये पर्व वास्तव में एक स्त्री में सभी पुरुषों की सम्मलित शक्ति का प्रतीक है।

तो आइये आज के दिन हम माता के आगमन का स्वागत करें और अपने भीतर के छिपे अंधकार को उनके तेज द्वारा नष्ट करें। जय माँ दुर्गा।

ईश्वर के विस्तार (रूप) एवं अवतार में अंतर

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आने वाले कुछ समय में हम त्रिदेवियों एवं अन्य देवताओं के अवतारों के विषय में कुछ लेख प्रकाशित करने वाले हैं। किन्तु उससे पहले हमने सोचा कि हमें ईश्वर के "अवतार"एवं "विस्तार"में अंतर पता होना अत्यंत आवश्यक है। विस्तार को ही "रूप"भी कहते हैं। आम तौर पर हम ईश्वर के रूप और अवतार को एक ही समझते हैं किन्तु ऐसा नहीं है। इन दोनों में अंतर है और इसे पूरी तरह समझे बिना हम इनके बीच उलझ सकते हैं। तो आइये इसे समझते हैं।

हिन्दू धर्म में अधिकतर देवताओं के अपने रूप और अवतार होते हैं। कुछ देवी-देवताओं के सन्दर्भ में अवतार का वर्णन ही प्रमुखता से आता है। जैसे भगवान विष्णु के दशावतार, भगवान शंकर के १९ अवतारइत्यादि। किन्तु कुछ ऐसे हैं जिनके अवतारों से अधिक उनके रूप ही प्रसिद्ध हैं, जैसे माता आदिशक्ति या माता पार्वती।

तो इन दोनों में अंतर क्या है? ईश्वर द्वारा अपनी पूर्ण शक्तियों सहित कोई अन्य शरीर धारण करना ही "रूप" कहलता है। आप इसे एक प्रकार से ईश्वर का पर्याय अथवा विस्तार कह सकते हैं। ये उनके सर्वाधिक समकक्ष होते हैं एवं उनकी शक्तियां और सामर्थ्य भी उनके सबसे निकट होते है। 

ईश्वर के रूप अथवा विस्तार की एक विशेषता ये है कि ईश्वर की भांति ये भी अनश्वर होते हैं। अर्थात इनकी मृत्यु नहीं होती। उदाहरण के लिए भगवान सदाशिवया शिव के ही एक रूप भगवान शंकर हैं। उसी प्रकार महाविष्णुके एक रूप नारायण अथवा विष्णु हैं। परमपिता ब्रह्माका सर्वोच्च रूप महाब्रह्माहै जो गर्भोदक्षायी विष्णु की नाभि से प्रकट होते हैं।

ईश्वर के रूप को समझने का सबसे अच्छा उदाहरण माता आदिशक्ति के रूपों को समझना है, क्यूंकि उनके सन्दर्भ में विशेष तौर पर रूपों का वर्णन होता है, ना कि अवतार का। माता आदिशक्ति का सबसे प्रमुख रूप है माता सती/पार्वती का। इसके अतिरिक्त माता पार्वती के नौ मुख्य रूप, जिन्हे नवदुर्गाकहा जाता है, माता सती के १० मुख्य रूप जिन्हे महाविद्याकहा जाता है, अष्ट मातृकाएं, माँ दुर्गा, महाकाली, ५१ शक्तिपीठ इत्यादि उनके रूप हैं। 

माता पार्वती की ही भांति माता लक्ष्मी का भी सर्वोच्च रूप महालक्ष्मीहै। उनके भी भी ८ प्रमुख रूप हैं जिन्हे अष्टलक्ष्मीकहा जाता है। इसके अतिरिक्त भी उनके और रूप हैं किन्तु अष्टलक्ष्मी की महत्ता सर्वाधिक है। माता पार्वती एवं माता लक्ष्मी की भांति ही माता सरस्वती का सर्वोच्च रूप महासरस्वतीहै जिनके अपने कई रूप हैं, जिनमें से ६ सर्वाधिक महत्वपूर्ण माने जाते हैं।

अब आते हैं है अवतार पर। अवतार का अर्थ है अवतरित होना, अर्थात नीचे उतरना। यहाँ नीचे का अर्थ है मृत्युलोक अथवा पृथ्वी पर। अर्थात अवतार ईश्वर का वो रूप है जो किसी विशेष कार्य और सीमित समय के लिए पृथ्वी कर अवतरित होते हैं। यहाँ चार चीजें विशेष रूप से ध्यान देने वाली है:
  1. वे मृत्युलोक अथवा पृथ्वी पर जन्म लेते हैं:जैसे श्रीहरि के सभी १० अवतार पृथ्वी पर अवतरित हुए। उसी प्रकार महादेव के सभी अवतार भी पृथ्वी पर ही जन्में। 
  2. वे अपने अंश अर्थात सीमित कलाओं अथवा शक्तियों के साथ अवतरित होते हैं:जैसे भगवान श्रीराम श्रीहरि की १२ एवं भगवान श्रीकृष्ण सभी १६ कलाओंके साथ अवतरित हुए थे। भगवान कल्कि श्रीहरि की ४ कलाओं के साथ अवतरित होंगे। 
  3. वे किसी विशेष उद्देश्य से पृथ्वी पर जन्म लेते हैं:जैसे श्रीराम का उद्देश्य रावण का अंत एवं संसार में मर्यादा की प्रतिष्ठा करना और श्रीकृष्ण का उदेश्य दुष्टों का नाश एवं संसार में धर्म की स्थापना करना था। 
  4. वे अनश्वर नहीं होते हैं:वे केवल एक सीमित समय के लिए ही पृथ्वी पर रहते हैं और अपने अवतरण का उद्देश्य पूर्ण होने के बाद अपनी लीला समाप्त कर पुनः अपने मूल स्वरुप में लौट जाते हैं।
संक्षेप में ये समझ सकते हैं कि "अवतार ईश्वर का वो रूप है जो किसी विशेष उद्देश्य से, सीमित समय के लिए पृथ्वी पर जन्म लेते हैं।"

श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है -

अजोSपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोSपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया।।

अर्थात:मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योग माया से प्रकट होता हूँ।।

पृथ्वी को मृत्यु लोक इसलिए कहते हैं क्यूंकि जो कोई भी यहाँ जन्म लेता है उसकी मृत्यु अवश्य होती है। कोई भी पृथ्वी पर सदा के लिए नहीं रह सकता। उनका जीवन काल असामान्य रूप से अधिक अवश्य हो सकता है किन्तु वो चिरकाल तक नहीं हो सकता। कुछ अवतार हैं जो चिरंजीवी कहलाते हैं, जैसे कि भगवान परशुरामएवं पवनपुत्र हनुमान, किन्तु वे भी सदा के लिए पृथ्वी पर नहीं रहेंगे। कल्पके अंत के बाद वे भी अपनी लीला समाप्त करेंगे।

अवतार भी कई प्रकार के होते हैं जिसके बारे में हम विस्तार से किसी और लेख में चर्चा करेंगे। हालाँकि ईश्वर के रूप एवं अवतार का महत्त्व समान ही है किन्तु पृथ्वी पर अवतरित होने के कारण अवतार ईश्वर के रूपों से अधिक प्रचलित हैं। रूप हों अथवा अवतार,  हमारे लिए तो वे समान रूप से पूजनीय हैं।

क्या वास्तव में हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को समुद्र में छिपाया था?

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श्री विष्णु पुराण में वर्णित भगवान विष्णु के दशावतार में तीसरे हैं भगवान वाराह। इस अवतार में इन्होने हिरण्यकशिपु के छोटे भाई हिरण्याक्ष का वध कर पृथ्वी का उद्धार किया था। इस अवतार में जो सबसे भ्रामक बात जन-मानस में फैली है वो ये है कि हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को समुद्र में छिपा दिया था। किन्तु ये कैसे संभव है? समुद्र तो पृथ्वी पर ही होता है, फिर पृथ्वी को समुद्र में छिपा देना कैसे संभव है? तो आइये इस घटना के पीछे छिपे सत्य को समझने का प्रयास करते हैं।

सबसे पहली बात ये है कि पृथ्वी को समुद्र में छिपा देने की बात मिथ्या है। किसी भी पुराण में ये नहीं लिखा है कि हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को समुद्र में छिपाया था। दशावतार की कथा हमें सबसे विस्तार में विष्णु पुराण में मिलती है। इसके अतिरिक्त २४००० श्लोकों वाले वाराह पुराण में भी इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। दोनों ग्रंथों में ये साफ-साफ लिखा है कि हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को समुद्र में नहीं बल्कि "रसातल"में छिपाया था।

पुराणों में १४ लोकों का वर्णन है जिनमें से ७ पृथ्वी से ऊपर और ७ पृथ्वी से नीचे की ओर बताये गए हैं। जो सात लोक पृथ्वी से ऊपर की ओर हैं वे हैं - भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोकऔर ब्रह्मलोक। उसी प्रकार पृथ्वी के नीचे जो सात लोक हैं वे हैं - अतल, वितल, सतल, रसातल, तलातल, महातलऔर पाताल। ध्यान कि ये १४ लोक पृथ्वी से अलग माने जाते हैं। इन्ही में से एक लोक रसातलमें हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को छिपाया था।

कुछ स्थानों पर ऐसा भी वर्णन है कि हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को सातवें पाताल, जिसका नाम पाताल ही है वहाँ छिपा दिया था। किन्तु अधिकतर स्थानों पर रसातल का नाम ही वर्णित है। ऐसा माना जाता है कि रसातल में "पणि"नामक दैत्यों का वास है जिन्हे निवातकवच, कालिकेय एवं हिरण्यपुरवासी के नाम से भी जाना जाता है। ये सभी देवताओं के घोर शत्रु माने जाते हैं। हिरण्याक्ष ने इसी कारण पृथ्वी को रसातल में छिपाया था ताकि देवता यहाँ आकर उनकी रक्षा ना कर सकें।

अब प्रश्न ये आता है कि ये समुद्र वाली बात कहाँ से आयी? ये भी हमारी समझ का ही फेर है। कहा जाता है कि ये सभी १४ लोक शून्य तक फैले "खौगोलिक सागर"का भाग हैं। इस खौगोलिक सागर को ही कुछ विद्वान "भव सागर"भी कहते हैं। इसी कारण कुछ स्थानों पर ये लिख दिया गया कि हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को "खौगोलिक समुद्र" में छिपा दिया। ध्यान दें, खौगोलिक सागर, ना कि पानी वाला सागर। समय के साथ-साथ हमने गलती से इसे केवल "सागर" मान लिया और ये समस्या उत्पन्न हुई।

इसमें एक समस्या इस घटना के बाद घटी एक घटना के कारण भी हुई। ऐसा वर्णन है कि पृथ्वी को रसातल में छिपाने के बाद हिरण्याक्ष सागर में जाकर जल के देवता वरुण को युद्ध की चुनौती देता है। किन्तु वरुण देव उसकी इस चुनौती को हँस कर टाल देते हैं और उसे कहते हैं कि उसकी बल की समता करने वाले केवल नारायण ही हैं, अतः वो जाकर उन्हें ही युद्ध की चुनौती दे। 

तब हिरण्याक्ष नारायण से युद्ध करने चल देता है। बाद में उसे वरुण देव और देवर्षि नारद से पता चलता है कि भगवान विष्णु इस समय वाराह के रूप में पृथ्वी का उद्धार करने रसातल गए हैं। इस पर जब हिरण्याक्ष रसातल पहुँचता है तो वो देखता है कि अनन्त रूपी वाराह पृथ्वी को अपनी दाढ़ में उठा कर भवसागर अर्थात रसातल से निकाल कर उनके अपने स्थान पर ले जा रहे हैं। तब हिरण्याक्ष उन्हें कई अपशब्द बोलते हुए उन्हें युद्ध की चुनौती देता है और उनके द्वारा अवहेलना किये जाने पर उनपर आक्रमण कर देता है। पृथ्वी को अपने स्थान पर वापस स्थापित करने के बाद भगवान वाराह घोर युद्ध कर हिरण्याक्ष का वध कर देते हैं। 

जब भगवान वाराह पृथ्वी को उसके अपने स्थान पर ले जा रहे थे उस समय हिरण्याक्ष वरुण लोक में ही था। अब चूँकि वरुण जल के देवता हैं इसी कारण हो सकता है कुछ लोगों को ये लगा हो कि भगवान वाराह पृथ्वी को सागर से निकाल कर ला रहे हैं। यही से इस मिथक का आरम्भ हुआ होगा। तो ये सदैव ध्यान रखें कि हिरण्याक्ष द्वारा पृथ्वी को सागर में नहीं अपितु रसातल या खौगोलीय/भवसागर में रखा गया था। समय के साथ हमें ये भ्रम हो गया कि वो सागर था। 

जय वाराह देव।

संवत्सर (संवत) क्या और कितने हैं?

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यदि आपने महाराज विक्रमादित्यपर प्रकाशित हमारा लेख पढ़ा होगा तो आपने विक्रम सम्वत के विषय में भी अवश्य पढ़ा होगा। किन्तु विक्रम संवत ही केवल एक संवत्सर नहीं है। हमारे धर्म में कई संवत्सरों का वर्णन है। इस लेख में हम जानेंगे कि संवत्सर वास्तव में है क्या और हिन्दू धर्म में कुल कितने संवत्सर हैं।

संवत्सरएक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है "वर्ष"। इसे ही आधुनिक भाषा में संवतके नाम से जानते हैं। हिन्दू पञ्चाङ्गमें कई प्रकार के संवत्सरों का वर्णन है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार वर्ष के आरम्भ को संवत के रूप में जाना जाता है। वैसे तो संवत्सर का इतिहास अत्यंत ही प्राचीन है किन्तु आधुनिक संवत को आरम्भ करने का श्रेय महाराज विक्रमादित्य को ही जाता है जिन्होंने प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर की सहायता से विक्रम सम्वत का आरम्भ किया जो ईसा से ५७ वर्ष पूर्व आरम्भ हुआ था। 

विक्रम सम्वत के अतिरिक्त शक सम्वत भी बहुत प्रसिद्ध है और भारतीय सरकार में इसे ही आधिकारिक संवत माना गया है। ये ईसा से ७८ वर्ष बाद प्रारम्भ हुआ था। इसके अतिरिक्त वीर संवत और लोदी संवत का भी वर्णन आता है किन्तु वे अधिक प्रयोग में नहीं लाये जाते। कुल मिलाकर आधुनिक संवत्सरों में सबसे प्रसिद्ध विक्रम संवत और शक संवत ही है। ऐसा वर्णित है कि अपने नाम से संवत्सर चलाने वाले सम्राट को संवत्सर प्रारंभ करने से पूर्व अपने राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को ऋण मुक्त करना पड़ता था। महाराजा विक्रमादित्य ने भी विक्रम संवत प्रारम्भ करने से पूर्व ऐसा ही किया।

हिन्दू संवत्सर में भी १२ मास ही होते हैं। ये हैं - चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्र, अश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघएवं फाल्गुन। ये १२ मास क्रमशः अंग्रेजी कैलेंडर के मार्च, अप्रैल, मई, जून, जुलाई, अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर, नवम्बर, दिसंबर, जनवरी एवं फरवरी के समकक्ष हैं। किन्तु हिन्दू संवत्सर अत्यंत ही प्राचीन है। किन्तु यदि अभी हम उतना पीछे ना जाएँ तो भी संवतों को मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया जा सकता है - प्राचीन संवतएवं आधुनिक संवत। विक्रम संवत के बाद के संवतों को आधुनिक संवत माना जाता है।

भारतीय संवत्सर मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं:
  1. सावन:ये सर्वाधिक प्राचीन संवत्सर है। इसके अनुसार एक वर्ष में ३६० दिनहोते हैं। ध्यान रहे कि हमारी जितनी भी पौराणिक काल गणना है जैसे कि युग, महायुग, मन्वन्तर, कल्प, ब्रह्माकी आयु इत्यादि, उन सभी की गणना ३६० दिनों के हिसाब से ही की जाती है। 
  2. चंद्र:यह संवत्सर ३५४ दिनोंका होता है। इसमें भी मूलतः १२ मास ही होते हैं किन्तु कम दिनों के कारण निश्चित वर्षों के बाद एक वर्ष १३ मास का होता है। इसमें एक मास कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पूर्णिमा तक माना जाता है। 
  3. सौर:यह संवत ३६५ दिनोंका माना जाता है। यही अंग्रेजी कैलेंडर के निर्माण का आधार भी है। यह सूर्य नारायण की मेष संक्रांति से आरम्भ होकर अगली मेष संक्रांति तक चलता है। 
चलिए अब हिन्दू धर्म के अनुसार अत्यंत प्राचीन संवतों का भी वर्णन देख लेते हैं। हिन्दू धर्म में कई प्राचीन संवतों का वर्णन है किन्तु इनमें से भी जो सर्वाधिक प्राचीन है उसका नाम है ब्रह्म संवत। इसका आरम्भ वर्तमान ब्रह्मा के साथ ही होता है। पुराणों के अनुसार वर्तमान ब्रह्मा की आयुलगभग १५५५२१९७१९६१६४२ (पंद्रह नील पचपन खरब इक्कीस अरब सत्तानवे करोड़ उन्नीस लाख इकसठ हजार छः सौ बयालीस) वर्ष हो चुकी है। तो इस प्रकार ब्रह्म संवत भी उतना ही प्राचीन हुआ।

ब्रह्म संवत के बाद जो तीन सबसे प्राचीन सम्वत हैं वो हैं - कल्पाब्द संवत, सृष्टि सम्वतएवं श्रीराम संवत। ये तीनों प्रसिद्ध हैं किन्तु कई संवत्सर इनसे भी प्राचीन हैं। भगवान विष्णु के दशावतारके सभी दस अवतारों के नाम पर १० संवत्सर चले। इन १० अवतारों के अतिरिक्त भी कई और संवत्सर चले, जो चारों युगों में विभक्त हैं। इनमें से सबसे प्रमुख हैं:

सतयुग
  1. ब्रह्म संवत: १५५५२१९७१९६१६४२ (पंद्रह नील पचपन खरब इक्कीस अरब सत्तानवे करोड़ उन्नीस लाख इकसठ हजार छः सौ बयालीस) वर्ष
  2. कल्पाब्द संवत:१९७२९८५१२७ (एक अरब सत्तानवे करोड़ उन्तीस लाख पचासी हजार एक सौसत्ताईस) वर्ष
  3. सृष्टि संवत:१९५५८८५१२७ (एक अरब पंचानवे करोड़ अट्ठावन लाख पचासी हजार एक सौसत्ताईस) वर्ष
  4. मत्स्य संवत (नव संवत)
  5. कूर्म संवत
  6. वाराह संवत 
  7. नृसिंहसंवत
त्रेतायुग
  1. वामन संवत
  2. परशुरामसंवत 
  3. श्रीराम संवत:१२५६९१२७ (एक करोड़ पच्चीस लाख उनहत्तर हजार एक सौ सत्ताईस) वर्ष
द्वापर युग
  1. बलराम संवत: ५२४८ (पांच हजार दो सौ अड़तालीस) वर्ष
  2. श्रीकृष्ण संवत (कलि संवत):५२४७ (पांच हजार दो सौ सैंतालीस) वर्ष
  3. युधिष्ठिर संवत: ५१२२ (पांच हजार एक सौ बाइस) वर्ष
कलियुग
  1. बौद्ध संवत: २५९६ (दो हजार पांच सौ छियानवे) वर्ष
  2. महावीर संवत: २५४८ (दो हजार पांच सौ अड़तालीस) वर्ष
  3. शंकराचार्य संवत:२३०१ (दो हजार तीन सौ एक) वर्ष
  4. विक्रम संवत: २०७८ (दो हजार अठत्तर) वर्ष
  5. शालिवाहन संवत (शक संवत):१९४३ (एक हजार नौ सौ तेतालीस) वर्ष
  6. कलचुरी संवत: १७७३ (एक हजार सात सौ तेहत्तर) वर्ष
  7. वलभी (वल्लभ) संवत:१७०१ (एक हजार सात सौ एक) वर्ष
  8. फसली संवत:१४२४ (एक हजार चार सौ चौबीस) वर्ष
  9. बांग्ला संवत:१३२८ (एक हजार दो सौ अट्ठाइस) वर्ष
  10. हर्षाब्द संवत:१४१४ (एक हजार एक सौ चौदह) वर्ष
  11. विजयाभिनन्दन संवत 
  12. नागार्जुन संवत 
  13. श्रीहर्ष संवत 
  14. गुप्त संवत 
  15. कल्कि संवत: अभी आरम्भ होना शेष है, जो भगवान कल्कि के अवतरण के बाद होगा। 
इनके अतिरिक्त परमपिता ब्रह्मा के आधे दिन (कल्प) में जो १४ मनु शासन करते हैं उनके नाम पर भी मन्वन्तर संवतपड़ते हैं। ये हैं - स्वयंभू, स्वरोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत (वर्तमान), सावर्णि, दक्ष सावर्णि, ब्रह्म सावर्णि, धर्म सावर्णि, रूद्र सावर्णि, देव सावर्णिएवं इन्द्र सावर्णि। 

अब बात करते हैं संवतों के चक्र की। हिन्दू धर्म में संवतों का चक्र ६० वर्षोंमें बटा हुआ है। अर्थात पुराणों के अनुसार हिन्दू धर्म में कुल ६० संवत्सर हैं। प्रत्येक ६० वर्ष पश्चात पुनः प्रथम संवत्सर प्रारम्भ होता है। अर्थात यदि आपको वर्तमान संवत्सर इससे पहले कब पड़ा, ये जानना हो तो वर्तमान वर्ष में ६० घटा दें। उदाहरण के लिए २०२१ आनंद संवत्सर है। इसका अर्थ ये है कि इससे पहले आनंद संवत्सर २०२१ - ६० = १९६१ में पड़ा होगा और अगला आनंद संवत्सर २०२१ + ६० = २०८१ में पड़ेगा।

ये सभी ६० संवत्सर २०-२० के समूह में क्रमशः ब्रह्मा, विष्णुऔर महेशको समर्पित होते हैं। अर्थात प्रभव से व्यय ब्रह्मा को, सर्वजित से पराभव विष्णु को एवं प्लवंग से अक्षय महादेव को। ये सभी संवत्सर हैं:
  1. प्रभव:१९७४ - १९७५ ई.
  2. विभव:१९७५ - १९७६ ई.
  3. शुक्ल:१९७६ - १९७७ ई.
  4. प्रमोद:१९७७ - १९७८ ई.
  5. प्रजापति:१९७८ - 1979 ई.
  6. अंगिरा: १९७९ - १९८० ई.
  7. श्रीमुख:१९८० - १९८१ ई.
  8. भाव:१९८१ - १९८२ ई.
  9. युवा: १९८२ - १९८३ ई.
  10. धाता:१९८३ - १९८४ ई.
  11. ईश्वर:१९८४ - १९८५ ई.
  12. बहुधान्य:१९८५ - १९८६ ई.
  13. प्रमाथी:१९८६ - १९८७ ई.
  14. विक्रम:१९८७ - १९८८ ई.
  15. वृषप्रजा:१९८८ - १९८९ ई. 
  16. चित्रभानु:१९८९ - १९९० ई. 
  17. सुभानु:१९९० - १९९१ ई. 
  18. तारण: १९९१ - १९९२ ई.
  19. पार्थिव:१९९२ - १९९३ ई.
  20. अव्यय:१९९३ - १९९४ ई.
  21. सर्वजीत:१९९४ - १९९५ ई.
  22. सर्वधारी:१९९५ - १९९६ ई.
  23. विरोधी:१९९६ - १९९७ ई. 
  24. विकृति:१९९७ - १९९८ ई. 
  25. खर:१९९८ - १९९९ ई.
  26. नंदन: १९९९ - २००० ई.
  27. विजय:२००० - २००१ ई. 
  28. जय:२००१ - २००२ ई.
  29. मन्मथ:२००२ - २००३ ई.
  30. दुर्मुख:२००३ - २००४ ई.
  31. हेमलंबी:२००४ - २००५ ई.
  32. विलंबी:२००५ - २००६ ई.
  33. विकारी:२००६ - २००७ ई.
  34. शार्वरी:२००७ - २००८ ई. 
  35. प्लव:२००८ - २००९ ई.
  36. शुभकृत:२००९ - २०१० ई.
  37. शोभकृत:२०१० - २०११ ई.
  38. क्रोधी:२०११ - २०१२ ई.
  39. विश्वावसु:२०१२ - २०१३ ई.
  40. पराभव:२०१३ - २०१४ ई. 
  41. प्ल्वंग:२०१४ - २०१५ ई.
  42. कीलक:२०१५ - २०१६ ई.
  43. सौम्य:२०१६ - २०१७ ई. 
  44. साधारण:२०१७ - २०१८ ई. 
  45. विरोधकृत:२०१८ - २०१९ ई.
  46. परिधावी:२०१९ - २०२० ई.
  47. प्रमादी: २०२० - २०२१ ई. 
  48. आनंद:२०२१ - २०२२ ई.
  49. राक्षस:२०२२ - २०२३ ई.
  50. आनल: २०२३ - २०२४ ई.
  51. पिंगल: २०२४ - २०२५ ई. 
  52. कालयुक्त:२०२५ - २०२६ ई.
  53. सिद्धार्थी:२०२६ - २०२७ ई.
  54. रौद्र:२०२७ - २०२८ ई. 
  55. दुर्मति:२०२८ - २०२९ ई. 
  56. दुन्दुभी: २०२९ - २०३० ई.
  57. रूधिरोद्गारी:२०३० - २०३१ ई.
  58. रक्ताक्षी: २०३१ - २०३२ ई.
  59. क्रोधन:२०३२ - २०३३ ई.
  60. क्षय (अक्षय):२०३३ - २०३४ ई.
यदि आप हिन्दू संवत के अतिरक्त अन्य सम्वत देखें तो आप पाएंगे कि चीनी संवत सबसे प्राचीन है, किन्तु हिंदू संवत के आस पास भी नहीं। कुछ प्रमुख विदेशी संवत हैं:
  1. चीनी सन:९६००२३१९ वर्ष 
  2. खताई सन:८८८३८३९२ वर्ष 
  3. पारसी सन:१८९९८९ वर्ष 
  4. मिस्री सन:२७६७५ वर्ष  
  5. तुर्की सन: ७६२८ वर्ष  
  6. आदम सन:७३७३ वर्ष  
  7. ईरानी सन:६०२६ वर्ष 
  8. यहूदी सन:५७८२ वर्ष 
  9. इब्राहीम सन:४४६१ वर्ष 
  10. मूसा सन:३७२५ वर्ष 
  11. यूनानी सन: ३५९४ वर्ष 
  12. रोमन सन:२७७२ वर्ष  
  13. मलयकेतु सन:२३३३ वर्ष 
  14. पार्थियन सन:२२६८ वर्ष 
  15. ईस्वी सन: २०२१ वर्ष  
  16. जावा सन:१९४७ वर्ष 
  17. हिजरी सन: १३९१ वर्ष
आशा है इस लेख को पढ़ने के बाद आपको समझ में आ गया होगा कि सनातन हिन्दू धर्म कितना प्राचीन और वैज्ञानिक है। जय श्रीराम। 
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